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इंडिया डिजिटल तो शेरशाह सूरी के ज़माने में भी था

तकनीक को केवल स्मार्टफोन और कंप्यूटर तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है बल्कि वो हर प्रक्रिया जो किसी काम को सरल बनाने में मदद करे तकनीक का हिस्सा है। तभी तो वर्तमान भारत सरकार ने सुशासन के लिए जिस तकनीकी आवश्यकता को स्वीकार करते हुए डिजिटल इण्डिया कार्यक्रम को लॉन्च किया है, कुछ ऐसा ही बादशाह शेरशाह सूरी ने भी किया था।

सुशासन से ही समाधान का उद्घोष करने वाली आधुनिक भारतीय सियासत के अलम्बरदारों को शायद ही इस बात का इल्म हो कि मध्यकालीन हिन्दोस्तान में एक ऐसे बादशाह का ज़िक्र आता है, जिसके शासन काल में सुशासन की कसौटी को इतनी बुलंदी अता हुई, कि आधुनिक भारत के शिल्पकारों के लिए उसे पाना ख्वाब को हकीकत में तब्दील करना या आकाश कुसुम जैसा हो गया है। जी हां, वह शख्सियत कोई और नहीं बल्कि भारत में मुगलिया सल्तनत की बुनियाद रखने वाले बाबर की सेना का अदना-सा सिपाही और हिन्दोस्तान के तख्त को मुगलों से छीनने का हौसला रखने वाला बादशाह शेरशाह सूरी है।

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वर्तमान भारत सरकार ने सुशासन के लिए तकनीकी की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए डिजिटल इण्डिया नामक पूरा कार्यक्रम ही लांच कर दिया कुछ ऐसा ही कार्य बादशाह शेरशाह सूरी ने भी किया था, बस फर्क इतना था आज अंतर्जालीय तरंगो पर व्यवस्था को थिरकाने की कोशिश है और शेरशाह के ज़माने में जमीन पर व्यवस्था जमाने की कोशिश थी, किन्तु तकनीक का इस्तेमाल दोनों जगह दिखाई पड़ता है।

तकनीक का सुशासन में योगदान हमारे मुल्क में सबसे बेहतरीन ढंग से जिसने करके दिखाया, वो शेरशाह सूरी था। शेरशाह ने अपने शासन काल में हर आठ किमी की दूरी पर सरायें बनवायीं, जो डाक-चौकी का काम भी करती थीं। जहां एथलेटिक्स स्पर्धाओं की रिले दौड़ की तर्ज पर तेजी से घोड़े दौड़ाते एक सराय से खबरनवीस दूसरी सराय जाते और वहां पर दूसरे खबरनवीस को सूचना थमा देते, फिर दूसरा खबरनवीस इसी प्रक्रिया को दोहराता और इस तरह से बंगाल जैसे सुदूरवर्ती इलाके से दिल्ली तक पहुंचने वाली खबरें, जिन्हें एक वक्त दिल्ली पहुंचने में महीनों का वक्त लग जाता था उन्हें अब हफ्ता भर दिल्ली पहुंचने में लगने लगा। ये भी सुशासन में तकनीक का ही इस्तेमाल था। इसलिए तकनीक को केवल स्मार्टफोन और कंप्यूटर तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है बल्कि वो हर प्रक्रिया जो किसी काम को सरल बनाने में मदद करे तकनीक का हिस्सा है। दीगर है कि शेरशाह द्वारा स्थापित सरायों में लोगों के ठहरने, इंसानों के लिए खाने-पानी की व्यवस्था और जानवारों के लिए चारे का इंतजाम भी होता था। पर इन सरायों का इतना ही महत्व नहीं था। दरअसल जहां-जहां सरायें थीं, धीरे-धीरे कुछ सालों में उसके आस-पास बाजार का विकास होने लगा फिर वो बाजार कस्बे की शक्ल में बदलने लगा। यही कारण है कि आज भी उत्तर भारत में हमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटे-छोटे बाजार मिलते हैं। ग्रामीण इलाकों में भी, शेरशाह की विरासत इस तरह से सहज रूप में हमारे आस-पास विद्यमान है।

कानून व्यवस्था, आतंरिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, वित्त, अर्थव्यवस्था, लोक प्रशासन और सैन्य प्रबंधन आदि क्षेत्र में शेरशाह के निर्णयों की धमक आज भी दिखाई पड़ती है। सुशासन के मध्यकालीन चितेरे शेरशाह सूरी ने गद्दी पर बैठते ही शान्ति एवं व्यवस्था सुरक्षित रखने के लिए पुलिस विभाग को पुन: संगठित किया तथा स्थानीय अपराधों के लिए स्थानीय उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को लागू किया। 

शेरशाह के प्रयास से गांवों के मुखियों को ग्रामीण क्षेत्रों में अपराधियों के पकड़ने तथा शान्ति बनाये रखने के लिए उत्तरदायी बना दिया गया। सभी मुसलमान लेखकों ने इस व्यवस्था की कार्यक्षमता की परिपुष्टि की है। निजामुद्दीन, जिसके शेरशाह का पक्षपाती होने का कोई कारण नहीं था, लिखते हैं, कि 'आम रास्ते पर सुरक्षा की ऐसी अवस्था थी कि यदि कोई सोने (के टुकड़ों) से भरा हुआ थैला लेकर चलता था तथा रातों तक मरुभूमि (निर्जन स्थानों) में सोता था, तो रखवाली करने की कोई आवश्यकता न होती थी।' 

दीवान-ए-बरीद नाम के एक विभाग की स्थापना भी शेरशाह ने की। ये जासूसी विभाग था। शेरशाह को इस मामले में उस्ताद माना जाता है। शेरशाह के इस विभाग का नेटवर्क बहुत तगड़ा था।

इतिहासकार मानते हैं कि राज्य में ये शेरशाह के लिए आंख और कान का काम करता था। शेरशाह ने ठगों, डाकुओं और बदमाश जमींदारों पर कठोरता से अंकुश लगाया। इससे केवल कानून व्यवस्था ही मजबूत नहीं हुई, व्यापार को भी बढ़ावा मिला। आज भी निवेशक और व्यापारी कानून व्यवस्था की स्थिति को देख कर ही निवेश करते हैं। यूपी और बिहार में कम निवेश का सबसे बड़ा कारण कानून व्यवस्था की स्थिति को माना जाता है।

विवेकपूर्ण एवं मानवतायुक्त सिद्धान्तों पर आधारित शेरशाह के भूमि-राजस्व

शेरशाह सूरी ने राजस्व विभाग के अधिकारियों को सख्त आदेश दिया था, कि वे कर-निर्धारण के समय दया दिखलाएं, परन्तु कर वसूलने के समय सख्त हो जाएं।

सम्बन्धी सुधारों का भारत के प्रशासनिक इतिहास में अद्वितीय महत्व है, क्योंकि इन्होंने भविष्य की भूमि-विषयक प्रणालियों के लिए नमूने का काम किया। भूमि की सावधानी से और औचित्य के साथ जांच कर उसने भूमि-कर सीधे खेतिहरों के साथ निश्चित किया। राज्य की औसत उपज का चौथाई अथवा तिहाई भाग मिलता था, जो अनाज या नकद के रूप में दिया जा सकता था। नकद का तरीका बेहतर समझा जाता था। राजस्व इकट्ठा करने के असली काम के लिए सरकार अमीनों, मकदमों, शिकदारों, कानूनगो तथा पटवारियों-सरीखे अधिकारियों की सेवाओं का उपयोग करती थी। नियम कर को निश्चित समय पर एवं पूर्ण रूप से देने पर जोर दिया जाता था तथा आवश्यकता पड़ने पर शेरशाह ऐसा कराता भी था। उसने राजस्व विभाग के अधिकारियों को आदेश दिया था कि वे कर-निर्धारण के समय दया दिखलाएं, परन्तु कर वसूलने के समय सख्त हो जाएं। रैयतों के अधिकार उचित रूप में माने जाते थे। करों की माफी होती थी। राजस्व सम्बन्धी इन सुधारों से राज्य के साधन बढ़ गये तथा साथ-साथ जनता के लिए हितकर भी हुए।

शेरशाह की सफलता इस बात में है कि उसने अनाजों की दर तालिका तैयार करायी, जिसे रय के नाम से जाना जाता है। दर निर्धारण के लिए आस-पास के क्षेत्रों के मूल्य को आधार बनाया जाता था। किसानों को यह विकल्प दिया गया था कि वे अनाज या नकद में भू-राजस्व अदा कर सकते हैं। भू-राजस्व के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार के कर भी लिये जाते थे। भूमि माप के अधिकारी एवं भू-राजस्व वसूल करने वाले अधिकारी को वेतन देने के लिए जरीबाना और मुहसिलाना नामक कर भी लगाया गया। जरीबाना उत्पादन का 2.5 प्रतिशत होता था और मुहसिलाना उत्पादन का 05 प्रतिशत होता था। इसके अतिरिक्त यह भी प्रावधान था कि अकाल से निपटने के लिए कुल उत्पादन का 2.5 सेर प्रति मन अनाज राजकीय गोदाम में सुरक्षित रखा जाता था।

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अंतर्जालीय तरंगों पर थिरकता भारत

शेरशाह की तकनीक का लोहा मुगलों ने तो माना ही, अंग्रेजों ने भी माना। शेरशाह ने चांदी के रुपए और तांबे का दाम चलाया। सोने की मुहर भी प्रचलन में थी। इन पर देवनागरी और हिंदी लिपी में लिखा होता था।

दरअसल, शेरशाह सूरी जब गद्दी पर बैठा तब उसके काल से पहले के सभी काल के सिक्के चलन में थे। उसने सारे पुराने सिक्के वापस ले लिए और नए चांदी के रुपए और तांबे के दाम चला दिए। ये सारे सिक्के बिल्कुल एक जैसे थे, जैसे मॉडर्न सिक्के होते हैं। इनका भार तय था, शेरशाह ने मानक सिक्कों का विकास किया जो सोने, चांदी एवं तांबे के बने होते थे। उसने 167 ग्रेन के सोने के सिक्के जारी किए, जो अशर्फी के नाम से जाना जाता है। उसने 180 ग्रेन के चांदी के सिक्के, जिसमें 175 ग्रेन शुद्ध चांदी थी, जारी किए। ये रुपये के नाम से जाना जाता था। 1835 ई. तक ब्रिटिश काल में भी चला। उसने 322 ग्रेन के तांबे के सिक्के भी जारी किए, जो दाम के नाम से जाना जाता था। शेरशाह के समय एक रुपया 64 दाम के बराबर होता था।

शेरशाह का प्रचलित किया हुआ शब्द रुपया आज भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका सहित सात देशों की मुद्रा है और भारत से निकले इस शब्द का सारे दक्षिण एशिया में दबदबा है। शेरशाह की ये मॉडर्न सिक्कों की व्यवस्था सारे मुगलिया काल में ही मान्य नहीं रही, बल्कि अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी अपनाई।

इतिहासकार विंसेट ए. स्मिथ ने लिखा है, यही (सिक्कों की व्यवस्था) उसके वक्त की ब्रिटिश करेंसी का आधार भी थी। 15 अगस्त, 1950 को भारत में नया 'आना सिस्टम' प्रचलन में आया। ये गणतंत्र भारत की पहली अपने ढंग की मुद्रा थी। ब्रिटिश राजा की तस्वीर को सारनाथ के अशोक स्तंभ से बदल दिया गया था और 1 रुपए के सिक्के पर बने चीते को गेंहूं की बाली में बदल दिया गया। एक रुपये की कीमत अब 16 आने थी। फिर 1955 में भारतीय मुद्रा (संशोधन) अधिनियम पारित हुआ जो कि 1 अप्रैल, 1957 से चलन में आया इसमें दशमलव प्रणाली लागू कर दी गई। अब रुपये की कीमत 16 आने या 64 पैसे न होकर 100 पैसे के बराबर थी। इसको नया पैसा कहा गया था ताकि ये पुराने वाले सिक्कों से अलग दिखे। यानि कि शेरशाह सूरी की मौत के बाद 400 सालों से भी ज्यादा उसकी सिक्का व्यवस्था हमारे साथ थी। सर्व सुलभ न्याय सुशासन की बुनियाद है। शेरशाह काल में न्याय की निष्पक्षता शिखर पर थी। ऊंच-नीच में कोई अन्तर नहीं किया जाता था। सुल्तान के निकट सम्बन्धी तक इसके आदेशों से मुक्त नहीं थे।

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शेरशाह किसी राज्य के विकास में अच्छे और सुचारू यातायात का महत्व समझता था इसलिए साम्राज्य की प्रतिरक्षा एवं जनता की सुविधा के लिए शेरशाह ने अपने राज्य के महत्वपूर्ण, स्थानों को अच्छी सड़कों की एक श्रृंखला से जोड़ दिया। इनमें सबसे लम्बी ग्रैंड ट्रक रोड, जो अब भी वर्तमान है, पंद्रह सौ कोस लम्बी थी तथा पूर्वी बंगाल के सोनारगांव से सिन्धु तक चली जाती थी।

एक सड़क आगरा से बुरहानपुर चली गयी थी, दूसरी आगरे से जोधपुर तथा चित्तौड़ के किले तक तथा चौथी लाहौर से मुल्तान तक थी। कुछ विगत शासकों की परम्पराओं का अनुसरण कर शेरशाह ने पक्की सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवा दिये। थोड़ी-थोडी दूरा पर सरायें अथवा विश्रामगृह बनाये गये, जहां मुसलमानों तथा हिन्दुओं के लिए अलग-अलग प्रबन्ध थे। ये सरायें डाकघरों का भी काम देती थीं, जिससे समाचार का शीघ्र विनिमय सुगम हो गया तथा सरकार को साम्राज्य के विभिन्न भागों से सूचना मिलने लगी। गुप्तचरों की एक सक्षम व्यवस्था रखने से भी शासक को यह मालूम होने लगा, कि उसके राज्य में क्या हो रहा है।

अब इसे वक्त की क्रूरता न कहें, तो क्या कहें कि सुशासन के शिल्पकार और हजारों लोगों के लिये ठहरने का बेहतरीन इंतजाम करने वाले का मकबरा खुद बदइंतजामी का शिकार है। काश सुशासन का दम भरने वाले सुशासन बाबू सासाराम (बिहार) के एक मकबरे में दफ्न सुशासन सुल्तान को सलाम कर आते तो शायद उन्हे भी इल्म हो जाता कि कैसे वास्तविक सुशासन लाया जाता है।