कोख से लेकर कब्र तक लैंगिक असमानता के हजारो दागों की निशानदेही
भगवान राम और कृष्ण के उत्तर प्रदेश में हर रोज तकरीबन दो महिलाओं के साथ रेप होता है। यहां महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध का प्रतिशत 16.6 फीसदी है, इन मामलों में महिलाओं को शारीरिक रूप से प्रताडि़त किया गया है। वहीं 17.8 फीसदी मामले ऐसे हैं जिसमें महिलाओं को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है।
'संयुक्त राष्ट्र' की महिला इकाई के अध्ययन के अनुसार राम के भारत में 55 प्रतिशत महिलायें घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। अपने ही जीवन साथी के द्वारा प्रताडि़त की जाती हैं।
दुबई में शरीयत का कानून लागू है। शरीयत शुरा शब्द से बना है। कुरान के अध्यायों को शुरा कहते हैं। यानी कुरान के अनुसार लागू कानून शरीयत है। वहां नार्वे की एक महिला मार्टे डेब्रो डालेल्व से रेप हुआ। जब उसने पुलिस से शिकायत की तो उस पर गैर मर्द के साथ सेक्स करने का आरोप लगाकर 14 महीने की सजा सुना दी गई।
कुछ अरसे पहले मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम पर अपनी पत्नी से गलत व्यवहार के कारण मुकदमा दर्ज कराया गया। उनके छोटे भाई व लखनऊ के राजा लक्ष्मण भी इसमें अभियुक्त थे। यहां सवाल यह उठता है कि सतयुग के प्रसंग की वर्तमान कालखंड में कोई प्रासंगिकता है भी? तो जवाब यह है कि, हां प्रासंगिकता भी है और संबंध भी है। संबंध यह कि आज भी वैसे ही घटनाक्रम (कृत्य) स्वयं को अनवरत दोहरा रहे हैं बस किरदार बदल गये हैं। सीता की अग्नि परीक्षा से लेकर गर्भवती अवस्था में दंड स्वरूप वन गमन तक और उसके पश्चात आत्महत्या की विवशता से यह तथ्य प्रमाणित है कि यदि राम का राज्य होगा तो सीता की अग्नि परीक्षा होगी और राज्य रावण का हुआ तो हरण होगा।
अग्नि परीक्षा की विवशता और हरण का भय आज तक स्त्री जाति के सिर पर वैसे ही मंडरा रहा है। आज भी हर घर में गूंजती हुई 'आह' की 'कराह' सीता की वेदना का ही विस्तार लगती है। वेदना का यह विस्तार जो अपनो के संस्थागत अधिकार जनित प्रेम की परिणति है, घरेलू हिंसा के नाम से पुकारी जाती है। विडंबना देखिये कि हिंसा भी घरेलू हो गई है। घर जिसे दाम्पत्य जीवन में मन्दिर का स्थान प्राप्त है, उसमें स्त्री अपने 'आराध्य' पति परमेश्वर के द्वारा हिंसा की शिकार हो रही है। दरअसल समाज में दाता की स्थिति याचक से अधिक सुदृण होती है। अत: पुरुष सदैव मनोवैज्ञानिक लाभ की स्थिति में होता है। अपनी 'आश्रिता' से आश्रयदाता की अपेक्षायें भी भिन्न प्रकार की होने लगती हैं। मन में बैठा 'पशु' जिसे 'पौरुष' के पर्याय के रूप में स्वीकार किया गया है, जागृत होकर, 'अर्धांगिनी', 'भार्या', 'धर्मपत्नी' की भाव धारा को क्रूर प्रहारों से लहूलुहान कर देता है। शरीर से अधिक मन पर असर करते हैं ऐसे प्रहार।
इस प्रकार की 'घरेलू' हिंसा से ग्रसित होने पर स्त्री स्वयं को निराश्रित महसूस करती है। अन्तर्मन की वेदना आंसुओं के स्वरूप में ढल कर सिसकियों की गुहार के साथ बह निकलती है और वह भी सीता की तरह पृथ्वी में समाने का रास्ता खोजने लगती है। 'संयुक्त राष्ट्र' की महिला इकाई के अध्ययन के अनुसार राम के भारत में 55 प्रतिशत महिलायें घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। अपने ही जीवन साथी के द्वारा प्रताडि़त की जाती हैं। जख्मी चेहरा, व्यथित मन, दर्द से कराहती देह, असुरक्षित भविष्य, टूटते ख्वाब, दरकता संबंध, अरुचिकर जीवन और अवसादित जीवन शैली, फिर भी जीवन जीने की मजबूरी। यही दास्तान है हिंसा के 'घरेलू रूप' से कुरूप होते स्त्री जीवन की। काश राम पर जो आरोप आज तय किये गये हैं, गर वह घटना के समय ही तय कर दिये गये होते तो शायद सीता को वन गमन न होता और आज भी अनेक सीता वन गमन से बच जाती क्योंकि हमारा सम्पूर्ण आचरण धर्म, समाज, सभ्यता के इर्द-गिर्द ही घूमता है धर्म ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा कारक है जो हमारे जीवन को नियंत्रित करता है।
कुछ माह पूर्व उत्तर प्रदेश के डीजीपी रहे जगमोहन यादव ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि रेप तो राम राज्य में भी होते थे वह कभी भी रुक नहीं सकते। उनका यह बेहूदा बयान निराश और शर्मसार अवश्य करता है किंतु कौतुक उत्पन्न नहीं करता है। क्योंकि डीजीपी जगमोहन के बयान की जड़ें हमें अपने बीते हुए कल से जुड़ी नजर आती हैं जहां पित्रसत्तात्मक अधिनायकवाद में डूबे हुए पुरूष द्वारा स्वयं की यौन कुचेष्टाओं को शांत करने के लिये अनेक संदर्भ मिल जाते हैं। विडंबना यह है कि उनकी स्वीकीर्यता आज भी बरकार है।
आखिर अहिल्या की क्या गलती थी? अहिल्या का अपराध क्या था? मात्र यह कि वे सुंदर थीं। अहिल्या ने इंद्र के सभी प्रलोभनों को दरकिनार कर दिया तो इंद्र ने चंद्र के साथ कूट रचना कर छल का सहारा ले कर उनके साथ सम्बन्ध बनाए। यह तो अपने आप में बहुत बड़ा अपराध था ही लेकिन उससे भी कई गुना बड़ा अपराध तब हुआ, जब गौतम ऋषि ने उसी अहिल्या को दंडित कर दिया जो कुछ समय पूर्व ही जघन्यतम अपराध की शिकार हुई थीं। और किसी से इतना भी नहीं हुआ कि इंद्र को उसी क्षण वहीं सिंहासन से उतार कर उन्हें सख्त से सख्त सजा देता। इंद्र ने इतना बड़ा कांड कर दिया और फिर भी देवताओं के राजा बने रहे जैसे आज के समय में कई सफेदपोश विधायक, सांसद और मंत्री, दुष्कर्म या भ्रष्टाचार या जघन्य अपराध करने के बावजूद अपने-अपने पदों पर ढिठाई से पसरे रहते हैं। भले कानून की किताबें चीख-चीख कर उन्हें बलात्कारी या अपराधी कह रही हों। आंकड़ों की आइने में देखिये तो आज के भारत में हजारो इंद्रों की करतूतें उभर कर सामने आती हैं।
भगवान राम और कृष्ण के उत्तर प्रदेश में हर रोज तकरीबन दो महिलाओं के साथ रेप होता है। यहां महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध का प्रतिशत 16.6 फीसदी है, इन मामलों में महिलाओं को शारीरिक रूप से प्रताडि़त किया गया है। वहीं 17.8 फीसदी मामले ऐसे हैं जिसमें महिलाओं को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। जबकि 11.4 फीसदी मामले में 9.4 फीसदी मामले रेप से जुड़े पाये गये हैं। अगर बलात्कार की घटनाओं पर नजर डालें तो भारत में 2014 में 23 हजार बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं। जिनमें से 3500 मामले उत्तर प्रदेश में हुए हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि इन रेप के मामलों में 6.5 फीसदी मामले 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ हुये हैं। इतना ही नहीं दुराचार के प्रत्येक प्रकार में सूबे ने अपनी 'सम्मानजनक' स्थिति बरकारार रखी है।
लोकसभा चुनाव के दौरान सपा नेता मुलायम सिंह ने कहा था कि रेप में फांसी की सजा सही नहीं है, लड़के हैं...गलती हो जाती है। यूपी में ही रेप की बढ़ती वारदातों पर समाजवादी नेता नरेश अग्रवाल ने रेप की एक घटना पर पीडि़त को ही जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि आज किसी के घर के जानवर को भी कोई जबरदस्ती नहीं ले जाता है। तो जबरन दुराचार कैसे संभव है? चाल, चरित्र और चिंतन की बात करने वाली भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने तो बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव और विदेशी सोच को जिम्मेदार ठहरा दिया था। उन्होंने कहा था कि रेप 'इंडिया' में होते हैं 'भारत' में नहीं।
यह तो था दुराचार की सांस्कृतिक काली विरासत में बंधा-पगा भारतीय समाज, किंतु बदलाव और भाईचारे के संदेश का दम भरने वाले इस्लाम ने तो महिलाओं को मात्र 'माल' में ही तब्दील कर दिया। इस्लाम के प्रसार के नाम पर उसके परचम तले आगे बढऩे वाली फौजों ने विजित प्रदेशों में महिलाओं के साथ सिर्फ दुराचार किया। उन्हे 'वेश्यावृत्ति' को मजबूर किया। यहां तक की अपनी आबरू को सुरक्षित करने के लिये महिलाओं को जौहर तक करना पड़ा। लेकिन इस्लाम के नाम पर जबरन बलात्कार को अंजाम देने वाली फौजों, उनके सिपहसलारों और बादशाहों पर कभी कोई भी फतवा जारी नहीं किया गया। दुराचारों को न्याय संगत ठहराने का इससे बड़ा क्या प्रमाण हो सकता है? दुबई में शरीयत का कानून लागू है। शरीयत शुरा शब्द से बना है। कुरान के अध्यायों को शुरा कहते हैं। यानी कुरान के अनुसार लागू कानून शरीयत है। वहां नार्वे की एक महिला मार्टे डेब्रो डालेल्व से रेप हुआ। जब उसने पुलिस से शिकायत की तो उस पर गैर मर्द के साथ सेक्स करने का आरोप लगाकर 14 महीने की सजा सुना दी गई। आश्चर्यजनक है कि इस मामले में दोषी को तीन महीने की सजा सुनाई गई। अब शरीयत का कानून जानिए। संयुक्त अरब अमीरात का कानून कहता है कि रेप तभी माना जा सकता है जब रेपिस्ट खुद आपना गुनाह कबूल ले या फिर रेप करते समय कम से कम चार व्यस्क मुसलमान पुरूषों ने देखा हो।
अब बताइये कि कौन रेपिस्ट अपना गुनाह कबूल करेगा या फिर रेप के कितने मामलों में चार लोग मौजूद रहते हैं। अगर चार लोग मौजूद ही होंगे तो कोई रेप कैसे करेगा? हां एक सूरत में हो सकता है, जब चारों उस रेप में शामिल हों या गैंगरेप करें। यह भी संभव है कि चार लोग रेप होते देख लें तो चुप रहने के लिए रेपिस्ट उन्हें भी रेप करने का अवसर मुहैया कराये। इसके अलावा इस कानून का यह भी अर्थ है कि अगर कहीं कोई लड़की/औरत एकांत में दिखे तो उसका रेप कर सकते हैं। कोई देखेगा नहीं तो सजा नहीं होगी। यानी एकांत में मिल जाने पर किसी भी महिला के साथ रेप और कोई देख ले तो उसे भी अपना साथी बनाकर गैंगरेप करने की पूरी छूट! यह है शरीयत का कानून यानी कुरान का आदेश। शरीयत के इसी कानून के चलते अफगानिस्तान में कई रेप पीडि़ताओं को ही दोषी मानकर पत्थर से मार-मारकर जान से मार देने के मामले प्रकाश में आते रहे हैं।
केरल के मशहूर सुन्नी मुस्लिम धर्मगुरु कांथापुरम एपी अबूबकर मुसलियार ने बताया कि लैंगिक समानता की अवधारणा ही गैर-इस्लामिक है। साथ ही कहा कि महिलाएं कभी भी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकती हैं क्योंकि वे केवल बच्चों को पैदा करने के लिए हैं। मुसलियार ने कहा कि महिलाएं मानसिक तौर पर मजबूत नहीं होती है और दुनिया को नियंत्रित करने की ताकत पुरुषों में ही है। लैंगिक समानता कभी भी हकीकत में नहीं हो सकता। यह इस्लाम, मानवता के खिलाफ होने के साथ ही बौद्धिक रूप से भी गलत है। शायद तभी मात्र मौखिक रूप से तीन बार तलाक कह देने से ही औरत की कुल जिंदगी की फैसला हो जाता है। अब तो सोशल मीडिया के जरिए तीन बार तलाक बोल या लिखकर भी तलाक लिया जाने लगा है। मोबाइल फोन पर तीन बार तलाक बोल देने या लिख देने से कहीं से भी तलाक लेने की सुविधा हो गई है। संवाद के ये सारे औजार एकतरफा और महिला विरोधी साबित होने लगे हैं।
एक तरफ तलाक से अलग होने का रास्ता साफ हुआ तो दूसरी तरफ महजब की इजाजत के नाम पर बहु-पत्नी प्रथा भी जारी है। तलाक का हक सिर्फ पुरूषों को ही प्राप्त है। यही नहीं दारुल उलूम देवबंद ने अपने एक फतवे में साफ किया है कि अगर कोई आदमी शराब के नशे में भी तीन बार तलाक बोल देता है तो वह तलाक मान्य है। फतवे के मुताबिक होश में आने पर भले वह शख्स अफसोस करे, पर बीवी उसके लिए हराम हो जाती है।
विडंबना देखिये कि इस्लाम में शराब का सेवन हराम है। लेकिन शराब के नशे में दिया गया तलाक जायज है। यहां एक सवाल यह भी है कि चौदह सौ साल पहले किसी ने मोबाइल फोन और एस.एम.एस की कल्पना भी नहीं की होगी पर आज इसका ऐसा इस्तेमाल इस्लाम सम्मत है? ऐसी अनेकों मिसालें हैं जहां शरीअत की आड़ में कठमुल्ले और धोखेबाज मर्द बेहयाई से अपनी औरतों का हक मार रहे हैं, उन्हें बेसहारा और यतीम कर रहे हैं। अब इससे ज्यादा लैंगिक असमानता का जहर क्या होगा कि दो महिलाओं और एक पुरुष की गवाही को बराबर माना गया है। खुला, हलाला, मुताह, निकाह मिस्यार (कॉन्ट्रैक्ट मैरिज), जिहाद अल निकाह, पर्दा आदि अनेकों कुरीतियां हैं, जो केवल और केवल, महिलाओं का शोषण करती हैं, उन्हें भोग की वस्तु मानकर महिला की अस्मत आबरू बर्बाद करती हैं। ये विषय कभी भी सामाजिक पटल पर नहीं उठाये जाते हैं। अध्ययन कहते हैं कि देश में 80 फीसदी मुस्लिम शादियां तीन बार तलाक बोलने से टूटी हैं। 92.1 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं ने मौखिक तलाक पर प्रतिबंध की मांग की है।
हां एक बात और जो मौखिक तलाक से भी ज्यादा ओछी है। मान लीजिये किसी व्यक्ति ने अपनी पत्नी से तलाक के तीन लफ्ज चाहे नींद में या गुस्से में, मजाक में या नशे में, या किसी गफलत में या पूरे होशोहवास में कहे हों और बाद में पछतावा होने पर तौबा कर पुन: अपनी पत्नी को अपनाना चाहे तो कुरान इसकी इजाजत नहीं देती है। अब एक साथ होने के लिये उन्हे दुबारा निकाह करना पड़ेगा और उसके लिये हलाला पद्यति को अपनाना होगा। मतलब कि तलाकशुदा स्त्री को पहले किसी दूसरे मर्द के साथ निकाह कर कम से कम एक रात के लिये बाकायदा बीवी बनना होगा और उससे तलाक लेकर फिर पहले मर्द के साथ शादी करनी होगी।
अब देखिये इंसाफ, तलाक का गुनाह करे मर्द और बे-आबरू हो औरत! शरीअत की ऐसी 'क्रांतिकारी' व्याख्याओं से कभी किसी मौलाना को आपत्ति नहीं क्योंकि इन्होंने इस्लाम को 'मेन्स ओनली क्लब' समझ रखा है। हां अगर एक 69 साल की बुजुर्ग और पांच बच्चों की मां को शौहर तलाक दे और कुरान की हिदायत के मुताबिक वह अदालत से 25/- रु. महीने का गुजारा खर्च शौहर से बंधवा ले तो पढ़े-लिखे सैयद शहाबुद्दीनों और उबेददुल्लाह खां आजमियों का 'इस्लाम' खतरे में पड़ जाता है।
हराम और हलाल के दरम्यान देवबंद ने महिलाओं को 'काजी' या 'जज' बनाने को भी लगभग हराम करार दिया है। देवबंद ने कहा कि यह हदीस में भी दिया गया है, जिसका मतलब है कि जो देश एक महिला को अपना शासक बनाएगा, वह कभी सफल नहीं होगा। इसलिए महिलाओं को जज नहीं बनाया जाना चाहिए। यही नहीं देवबंद ने महिलाओं के पुरुषों के साथ काम करने को भी हराम बताया। देवबंद ने ऐसे सभी स्थानों पर महिलाओं के काम करने को गलत बताया, जहां वे पुरूषों से बिना बुर्के के स्वछंदता से बातचीत करती हों।
दरअसल 'इंद्र' से लेकर 'इस्लाम' तक, 'अनपढ़' से लेकर 'आलिम' तक सभी की ऐसी सोच के पीछे पित्रसत्तात्मक समाज की वह घिनौनी दृष्टि है जो औरत को सिर्फ क्रीति दासी समझती है। मनु और याज्ञवल्क्य जैसे स्मृतिकारों के द्वारा महिलाओं पर प्रतिबंधात्मक निर्देशों के सम्मुख, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवताओं का निवास होता है का प्रभाव शून्य हो जाता है। मैत्रेयी, गार्गी, अनसुइया, लोपामुद्रा आदि विदुषी और महान आचरण वाली महिलाओं की गाथाएं कई हैं, पर उनका प्रभाव उस प्रदूषण के सामने नगण्य हो जाता है, जिसे शास्त्रकारों ने हमारी नसों में भर दिया है। सीता, सावित्री और द्रौपदी के उल्लेख मात्र से ही स्त्री शोषण की जड़ों की गहराई को टटोला जा सकता है।
पहले बात सावित्री की। अपने पति सत्यकाम के प्राण बचाने के लिये सावित्री और यम के मध्य संपन्न हुए संवाद से उस गौरवशाली स्वर्णयुग में भी लैंगिक भेद की जड़े कितनी गहरी थीं समझा जा सकता है। सावित्री ने यम से वरदान मांगा सत्यवान से अपने सौ पुत्रों का। अगर उस काल में नारी का इतना ही ऊंचा दर्जा था तो एकाध बेटी ही मांग ली होती, लेकिन नहीं। केवल पुत्र प्राप्ति की कामना सभी शास्त्रों का एकमात्र आदर्श रहा है। पुत्रेष्टि यज्ञ होता था। पद्म पुराण के अनुसार सांसारिक सुखों की प्राप्ति और पुत्र इच्छुक भक्तों के लिए पुत्रदा एकादशी व्रत को फलदायक माना जाता है। सारे व्रत, त्योहार सभी पुरूषों और लड़को के लिये ही हैं।
सच तो यह है कि बेटी की कामना न तब कोई करता था न अब। क्या वर्तमान समय में भ्रूण हत्याएं होना समाज की आदिम अपेक्षाओं की आधुनिक अभिव्यक्ति नहीं है। आज पुत्र पाने की लालसा में पूरा परिवार एक स्त्री पर दबाव डालता है और स्त्री न चाहते हुए भी अपने ही गर्भ में पल रही बालिका की हत्या करने के लिए बाध्य हो जाती है।
कोख में कत्ल की गवाही आंकड़ों की नजर में देखेंगे तो आदम को भी अपनी औलादों के किये पर शर्मिंदगी होगी। अल्टरनेटिव इकोनॉमिक सर्वे के लिए जुटाए गए आंकड़ों में मुताबिक, हर साल ऐसी लगभग 06 लाख बच्चियां जन्म नहीं ले पातीं जिन्हें देश के औसत लिंग अनुपात के हिसाब से दुनिया में आना था। यानी रोजाना 1600 लड़कियों की गर्भ में ही हत्या कर दी गई। साल में दो बार कन्या आधारित त्यौहार नवरात्र और रक्षाबंधन मनाने वाले भारत में एक अनुमान के अनुसार विगत पांच दशको में 1.50 करोड़ नवजात कन्याओं की हत्या की जा चुकी है और इसी कारण वर्ष में औसतन 28 से 30 लाख भ्रूण परीक्षण होते हैं।
अब बात लिंग के आधार पर जीवन जीने के अवसरों में भेदभाव की। विवाह से लेकर सुरक्षा तक के प्रश्न में असमानता का स्तर आदिम से आधुनिक समाज तक बराबर दिखाई पड़ता है। स्त्री को न तो आज अपने जीवन साथी के चयन का अधिकार है न ही सतयुग और द्वापर में था। विवाह के लिए स्वयंवरों में लड़की की स्वतंत्रता के दो प्रसिद्ध उदाहरण देख लीजिए। स्वयंवर में वर का चुनाव सीता को नहीं, पिता की शर्त वाले धनुष को करना था। द्रौपदी लक्ष्यबेध की शर्त में बंधी थी। क्या मजाल थी कि सीता और द्रौपदी निर्धारित शर्तों के विरुद्ध कोई कदम उठा सकतीं। प्रतिष्ठा और अस्मिता के सवाल उस समय भी मुंह बाये हुए खड़े थे और आज भी हैं। हां, अस्मत के नाम पर कत्ल के किस्से तो हजारों की संख्या में भरे पड़े हैं।
यही नहीं यदि हम सनातनी व्यवस्था में वैवाहिक विधियों का ही अवलोकन करें तो यहां भी हम पाते हैं कि मनु महाराज ने विवाह की जिन आठ रीतियों का उल्लेख किया है, उनमें तीन, असुर (यथाशक्ति धन दे कर की गई शादी), राक्षस (कन्या के पक्षवालों को मार कर या उनका अंगछेदन कर, उनके द्वार को तोड़ कर सहायता के लिए पुकारती हुई या रोती कन्या का बलपूर्वक अपहरण कर उससे विवाह रचाना) और पैशाच (मद से मत्त कन्या के साथ बलपूर्वक सम्भोग कर विवाह करना), ऐसी थी जो तत्कालीन समाज में मौजूद महिला अपराध और महिलाओं की दशा को व्यक्त करने के लिए बहुत दिखती हैं। यह भी द्रष्टव्य है कि इन तीनों के अलावा एक चौथी अमान्य वैवाहिक रीति भी थी-गंधर्व विवाह, जिसमें वर और वधू स्वेच्छा स्नेह के वशीभूत विवाह करते थे। इस प्रकार की विवाह पद्धति को अमान्य रीति में वर्गीकृत करना भी महिलाओं की स्थिति का एक महत्वपूर्ण द्योतक है।
कहते हैं कि विश्व के इतिहास में किसी मर्द के द्वारा औरत की हत्या का सबसे पहला साक्ष्य अवतारी परशुराम द्वारा अपनी मां का सिर कुल्हाड़ी से काट देने के रूप में मिलता है। हां इस कृत्य के पश्चात भी उन्हें कहीं आलोचना का शिकार नहीं होना पड़ा। वह तब भी पूज्यनीय थे और आज भी हैं। वैसे ही प्रथम बार महाभारत में 'जिगोलो' को वैधानिक मान्यता मिली थी। जब महात्मा भीष्म के भाई विचित्रवीर्य की असामयिक मृत्यु के बाद प्रतिष्ठा और सामाजिक आवश्यकता के नाम पर, एक बार पुन: महिला उत्पीडऩ की घटना तब खुलेआम घटती है, जब हरण की गई अम्बिका और अम्बालिका को बलपूर्वक तत्समय प्रचलित नियोग पद्धति (जिसमें किसी महिला से गैर व्यक्ति का शारीरिक सम्बन्ध बना कर संतान प्राप्ति की जाती थी) से गुजरना पड़ता है।
ऐसी ही नियोग प्रथा के बहुतायत विवरण मध्य युगीन अरब में भी मिलते हैं जिसमें दस पुरूष बारी-बारी से एक महिला के साथ संभोग करते हैं और गर्भ धारण करने पर महिला जिस पुरुष की तरफ उंगली का इशारा कर देती थी, वही बच्चे का पिता होता था। क्या यह सब वैश्यावृति का संस्थागत स्वरूप नहीं था? 'जिगोलो', 'वाइफ स्वैपिंग' से लेकर 'लिव-इन-रिलेशन' जैसी परम्पराओं के उद्गम स्थल का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
जैन धर्मशास्त्र 'योगशास्त्र' में यह वर्णन मिलता है कि 'स्त्रियां नरक की ओर जाने वाली सड़क पर जलने वाले प्रदीप हैं।' फिर दूसरे ग्रंथ उत्तराध्ययन सुत्त के अनुसार स्त्रियां वे राक्षसनियां है जिनकी छाती पर मांस के दो ढेर उगे होते है जो लगातार आदमियों को निरंतर अपने जाल में फंसा लेती हैं और इसके बाद वे उनके साथ ऐसा खिलवाड़ करती है जैसे वे उनके गुलाम हो। ईसाई धर्म में स्त्री को लेकर एक संवाद है कि, स्त्री क्या है ? संत जेरोम का उत्तर था वह शैतान का प्रवेश द्वार है वह पाप की ओर ले जाने वाली सड़क है। वह बिच्छू का डंक है। अन्यत्र एक दूसरे स्थान पर संत जेरोम ने कहा है कि 'स्त्री आग, पुरुष रस्सी और शैतान फौकनी हैं।'
यह और दु:ख की बात है कि कबीर जैसे सांप्रदायिकता-विरोधी, पाखंड-विरोधी एवं प्रगतिशील चेतना-संपन्न कवि जेंडर भेद से बच नहीं पाये और नारी का मूल्यांकन पूर्णत: 'पुंसवादी' दृष्टिकोण से किया। कबीर ने माया का जो रूप वर्णित किया है और उसकी स्त्री से जिस तरह तुलना की है, उससे तो यही स्पष्ट होता है, माया महाठगिनी हम जानी/ निरगुन फांस लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी। इसलिए कामिनियों से दूर रहने का मूल्यवान उपदेश पुरुषों को बारंबार दिया है। अब पुरुष इनके उपदेशों को मानते हैं या नहीं ये दीगर बात है। लेकिन हे पुरुष ! ये तो ज्यादती है ना, आकर्षित आप हों और दोष मढ़ा जाए स्त्रियों के सिर? अरे आप तो ईश्वर की उपासना करने वाले उत्तम कोटि के भक्त हैं, तो आप ये स्वर्ग-नर्क वाला फैसला भी ईश्वर पर ही क्यों नहीं छोड़ दिए? स्त्री-समस्याओं से परिचित एवं संवेदनशील संत तुलसीदास ने भी स्त्री को स्वर्ग-नर्क की सीमाओं में आबद्ध कर दिया।
दुर्भाग्य है कि आज भी यही लिंग जनित भेदभाव की दृष्टि मजबूती के साथ कायम है। आदिकाल से ही इस पुरुषवादी समाज ने सदैव अपने पापों के लिए हव्वा की बेटियों को ही जिम्मेदार माना है। प्राचीन काल से आज तक न जाने कितनी सदियां बीत गई, कितने चांद-सूरज ढल गये, कितनी सभ्यताओं ने अपने चेहरे बदले। क्या मेनका के विश्वामित्र, जाबालि के ऋषि स्वामियों से लेकर चित्रलेखा के कुमारगिरि तक बदले? इन सवालों को दरकिनार करते हुए दोष स्त्रियों पर ही लगाया गया कि इन्होंने महान ऋषियों, ब्रह्मचारी तपस्वियों को रिझाया। इंसानी सभ्यता के ग्रंथों के हर पन्ने पर लिंग जनित अपराधों के धब्बे सदियों से कायम हैं। आधी आबादी की सिसकन, उनके आंसू, उनकी वेदना, उनकी कसक, उनके अत्याचार, उनके साथ हुए पाप और उनसे जुड़े पुरुषों के कलंक हमारी सांस्कृतिक विरासत में यत्र-तत्र समाए हुए दिख ही जाते हैं।
दरअसल गरीब और अमीर के बीच जो शोषण है, उससे भी ज्यादा खतरनाक, उससे भी ज्यादा लंबा शोषण पुरुष और नारी के बीच में है। स्त्री का उसके शरीर के आधार पर शोषण किया जाता रहा है और वर्तमान में भी हो रहा है। कोख से लेकर कब्र तक भेदभाव के हजारो दागों की निशानदेही रहती है। बहुत सीधी बात है कि यदि हम समाज को समतावादी धरातल पर चहलकदमी करते देखना चाहते हैं तो हमें अपने बीते हुए काल में हुई तमाम असमानताओं को स्वीकारना ही होगा और हमें अपने आदर्शों, अपनी मान्यताओं का पुनर्मूल्यांकन करना ही होगा। जब तक सच को सच नहीं कहा जाएगा, समाज में लैंगिक असमानता की दशा जस की तस ही बनी रहेगी और अग्नि परीक्षा की विवशता और अपहरण के भय के काले बादल यूं ही मंडराते रहेंगे।
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