गीत-नवगीत के बहाने खेमेबाज आलोचकों की खैर-खबर
हिंदी के प्रतिष्ठित जनकवि राम सेंगर...
राम सेंगर ने एक कविता क्या लिखी, गीत-नवगीत और छंदमुक्त रचनाओं की विवेचना, तुलना के साथ खलबली मचाने वाली बहस सी चल पड़ी, तुक-बेतुक इस बहस के मायने इन पंक्तियों के साथ हो लिए कि 'बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेंगे, ये भी पूछेंगे के तुम इतनी परेशां क्यूँ हो..।'
राम सेंगर की कविता पर शुरू बहस में शामिल होते हुए कवि जगदीश जैन्ड 'पंकज' कहते हैं कि छान्दसिक कविता को हाशिये पर डालकर स्वयम्भू आलोचकों और कवियों द्वारा निर्धारित किये गए प्रतिमानों की निरर्थकता पर चोट करती सार्थक कविता लिखी है राम सेंगर ने।
हिंदी के प्रतिष्ठित जनकवि राम सेंगर का एक विस्तृत नवगीत कवि-गीतकारों की लंबी बहस के केंद्र में आ गया है। गीत-नवगीत-जनगीत को लेकर वैसे भी कवितावादी समुदाय सिरे से नाक-भौंहें नचाता रहा है। राम सेंगर की कविता उसी के मर्म उधेड़ती है। राम सेंगर की यह कविता काफी लंबी है। बहरहाल, इस पर मध्य प्रदेश के नवगीतकार मनोज जैन मधुकर लिखते हैं कि कवि राम सेंगर की यह महत्वपूर्ण कविता नकली कवियों की घेराबंदी या कहें तो खेमेबाज आलोचकों की अच्छी खैर-खबर लेती है। इस कविता को पढ़कर नकली कवि, अकवि और स्वयंभू आलोचक मौन ही रहेंगे, यह विश्वास है। कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं -
कविता को लेकर,जितना जो भी कहा गया,
सत-असत नितर कर व्याख्याओं का आया।
कविकर्म और आलोचक की रुचि-अभिरुचि का
व्यवहार-गणित पर कोई समझ न पाया।
'कविता क्या है' पर कहा शुक्ल जी ने जो-जो,
उन कसौटियों पर खरा उतरने वाले।
सब देख लिए पहचान लिए जनमानस ने
खोजी परम्परा के अवतार निराले।
विस्फोट लयात्मक संवेदन का सुना नहीं,
खंडन-मंडन में साठ साल हैं बीते।
विकसित धारा को ख़ारिज़ कर इतिहास रचा
सब काग ले उड़े सुविधा श्रेय सुभीते।
जनमानस में कितना स्वीकृत है गद्यकाव्य
विद्वतमंचों के शोभापुरुषों बोलो।
मानक निर्धारण की वह क्या है रीति-नीति,
कविता की सारी जन्मपत्रियां खोलो।
कम्बल लपेट कर साँस गीत की मत घोटो,
व्यभिचार कभी क्या धर्मनिष्ठ है होता।
कहनी-अनकहनी छल का एल पुलिंदा है,
अपने प्रमाद में रहो लगाते गोता।
बौद्धिक, त्रिकालदर्शी पंडित होता होगा,
काव्यानुभूति को कवि से अधिक न जाने।
जो उसे समझने प्रतिमानों के जाल बुने,
जाने-अनजाने काव्यकर्म पर छाने।
गतिरोध बिछा कर मूल्यबोध संवेदन का,
कोने में धर दी लय-परम्परा सारी।
वह गीत न था, तुम मरे स्वयंभू नामवरों
छत्रप बनकर कविता का इच्छाधारी।
इस छंदमुक्ति में, गद्य बचा कविता खोयी,
सब खोज रहे हैं,अंधे हों या कोढ़ी।
काव्यानुभूति की बदली हुई बनावट की,
नवगीति पीठिका खेल-खेल में तोड़ी।
गति लय स्वर शब्दसाधना की देवी कविता,
कविता से कवितातत्व तुम्हीं ने खींचे।
कविता न कथ्य का गद्यात्मक प्रक्षेपण है
कविता, कविता है, परिभाषाएं पीछे।
जड़ काटी है तुमने गीतों की सोच-समझ
यह विधा दूब थी, तो भी पनपी फ़ैली।
लय,कथ्य-शिल्प के प्रगतिमार्ग की रूढ़ि नहीं
है रूढ़ समीक्षा,विगलित और विषैली।
राम सेंगर यह सब इसलिए लिख सके क्योंकि वे मंचीय और नकली कवि नहीं न पर्ची देखकर काव्यपाठ करते हैं, उन्होंने नवगीत को जिया है, उनकी अपनी विचारधारा है, न वे किसी खेमे में हैं और न किसी विवाद में। छंद में लिखने वाले कवि नई कविता लिखने वालों की अपेक्षा अपनी समालोचना सुनकर तिलमिला जाते हैं बजाय अपनी गलती स्वीकारने की अपेक्षा और फिर घेरा बनाकर वार करते हैं, यह भी सौ फीसदी सही। एक बार एक महान कवि ने आँखों के साथ चस्पा शब्द का असंगत प्रयोग किया। जब उसे सुझाव दिया गया तो वह बुरी तरह बिफर गया। बौखला गया। सुझाव देने वाला सुझाव भर देता है, मानने न मानने के लिए बाध्य नहीं करता। ऐसे ही एक अन्य महान कवि सूचियों का तुकांत रूचियों से जोड़ते हैं। बहरहाल, आलोचना पर सम्यक बात हो। यदि हम अपनी समृद्ध परम्परा को छोड़ दें तो आज के कवि जो मंचीय हैं, सबके सब नकली ही हैं। फिर चाहे वे किसी पत्रिका का सम्पादन ही क्यों न कर रहे हों क्योंकि न तो उनके पास विचारधारा है और न ही अपना स्वयं का दृष्टिकोण, न दृष्टि।
राम सेंगर की कविता पर शुरू बहस में शामिल होते हुए कवि जगदीश जैन्ड 'पंकज' कहते हैं कि छान्दसिक कविता को हाशिये पर डालकर स्वयम्भू आलोचकों और कवियों द्वारा निर्धारित किये गए प्रतिमानों की निरर्थकता पर चोट करती सार्थक कविता लिखी है राम सेंगर ने। लय और गेयता की रक्षा करते हुए। तथाकथित मुख्यधारा की नग्न सपाटबयानी की कविता के पोषकों पर प्रहार करते हुए गीत-नवगीत की शाश्वतता को प्रतिष्ठित किया है उन्होंने। कृष्ण बक्षी के विचार से राम सेंगर ने कम से कम आवाज़ तो उठाई, जो आज के साहित्यिक नक़लीपन से बहुत दूर है। आलोचक तो गीत को कविता ही नहीं मानते। गीत से दोयम दर्जे का व्यवहार करना और नकारना उनके लिए लगता है शायद बहुत ज़रूरी है।
हिंदी कवि एवं आलोचक राजा अवस्थी तो मनोज जैन मधुकर के सुर में सुर मिलाते हुए राम सेंगर की कविता का कई कोणों से विश्लेषणात्मक विवेचन करते हैं। इस अकेली कविता पर एक सार्थक बहस, सार्थक संवाद कविता के मर्म और उसके वास्तविक स्वरूप को समझने के साथ कविता के नाम पर फैलाए गए भ्रम व भ्रमकारों को बेनकाब करने के लिए बहुत जरूरी है लेकिन उनके साथ-साथ वास्तविक कविताधर्मी साहित्यकार भी चुप ही रहेंगे। यह बहुत महत्वपूर्ण बातें करती हुई महत्वपूर्ण कविता है। अशोक व्यग्र का कहना है कि जिस जीवन में अनुशासन नहीं, वह जीवन व्यर्थ है। जिस रचना में छन्द नहीं, वह रचना भी उसी भाँति व्यर्थ है। छन्दविहीन होना ही नश्वरता है। छन्दबद्ध ही शाश्वत् सम्भव है किन्तु छन्द भी मात्र अर्थद्योतक व लय या मात्रा में कह देना नहीं अपितु उसकी पूर्णता व सार्थक्य उसके मन्त्रात्मक शब्द संयोजन में है। राम सेंगर का गीत इन्हीं तथ्यों का पर्याय है।
चर्चित कवि डॉ. राजेन्द्र गौतम इस बहस से पृथक अपने अभिमत में लिखते हैं कि साहित्य में प्रवृत्यात्मक परिवर्तनों को नए नामों से पहचानना इतिहास-लेखन की प्रक्रिया की अनिवार्य शर्त है किन्तु यह नव्यता बोध, संवेदना और प्रवृत्तियों की है, विधाओं और काव्यरूपों की पारस्परिक कलह तक उसे बहुत दूर तक घसीटना सार्थक नहीं होगा। आदिकाल से अधुनातन युग तक काव्य में प्रवृत्यात्मक परिवर्तन निरन्तर होते रहे हैं, लोकप्रियता के आधार पर कभी किसी एक काव्यरूप को प्रमुखता मिली तो कभी दूसरे को किन्तु गीत और गीतेतर कविता का विवाद बहुत पुराना नहीं है। बारीकी से देखा जाए तो यह टकराव भी छांदसिक और अछांदसिक काव्य रूपों के बीच अधिक है।
तब गीत और नवगीत के विवाद का औचित्य समझना बहुत मुश्किल है। स्पष्टत: गीत और नवगीत में काव्यरूपतामक अंतर नहीं है। हिन्दी गीत काल के एक बिन्दु पर आकर नवीन प्रवृत्तियों का अर्जन करता है। उस बिंदु के परवर्ती प्रसार को नवगीत संज्ञा मिली है और उस नवगीत ने स्वयं के गीत होने को कभी अस्वीकार नहीं किया, पर इससे यह तो नहीं निश्चिंत हो जाता कि इतिहास के विकासक्रम में जो प्रवृत्तिगत परिवर्तन घटित हो चुके हैं, उन्हें नकार दिया जाए अथवा उन्हें अनदेखा किया जाए। बोध के अंतर को, इतिहास के पूर्वापर क्रम को नकार कर किसी मृत युग का स्तवन साहित्य के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध तो है ही, यह गीत के विकास को भी अवरुद्ध करने का प्रयास है और यह प्रयास या तो नितांत अज्ञानता-प्रेरित है या इसके पीछे चालाकी और गहरी साजिश क्रियाशिल है।
यों तो नव्य विकास को व्यक्त करने वाली संज्ञा नवगीत का विरोध इसके जन्म के साथ ही होता रहा है, पर कुछ पुस्तकों एवं पत्रिकाओं में चालाकी अथवा अज्ञानता के कारण नवगीत के विरोध का स्वर तेज़ हुआ है। कहा जाने लगा है कि नयी कविता ने गीत का विरोध एवं अहित नहीं किया, उसका वास्तविक शत्रु तो नवगीत है। नवगीतकार ही वह मूल अपराधी है जिसे तिरस्कार की सूली पर लटका देना चाहिए। यह भी कहा जाने लगा है कि नवगीत का आंदोलन चलाने के बहाने कुछ खास लोगों को केन्द्र में लाया जा रहा है। ऐसी भावुक अपीलों से गीत के क्षेत्र में एक खलबली है। क्या यह उचित न होगा कि स्थितियों का थोड़ा वैज्ञानिक विश्लेषण हो। इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी रचनाधारा में सभी रचनाएँ श्रेष्ठ नहीं होती। नवगीत नामधारी बहुत-सी तुकबंदियाँ शब्दजाल के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। अनेक ऐसी रचनाएँ नवगीत के नाम पर आ रही हैं जिनमें लय और छंद का निर्वाह भी नहीं है।
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