घने कोहरे में रोशनी की तलाश करते रहे डॉ गिरिजाशंकर त्रिवेदी
वो कवि जिन्हें आज भी उत्तराखंड के लोग विस्मृत नहीं कर सके...
मूलतः कानपुर (उ.प्र.) के गांव अनेई के रहने वाले एवं विद्या वाचस्पति सहित अनेक सम्मानों से समादृत कवि डॉ गिरिजाशंकर त्रिवेदी को उत्तराखंड के लोग आज भी विस्मृत नहीं कर सके हैं। उनकी प्रमुख कृतियां हैं - इंद्रालय, ज्योतिरथ, वाल्मीकि के वन और वृक्ष, इंद्रधनुष कसे बिजली के डोर, तुलसी के मंगल दल आदि। प्रतिष्ठित गीत-कवि डॉ बुद्धिनाथ मिश्र लिखते हैं - 'आजीवन वह देवभूमि के प्रांगण में ऐसे तुलसी-वृक्ष की तरह रहे, जिसकी मंजरियों को छूकर हवाएं सुवासित होती रहीं और पत्तियां हर अर्पण का नैवेद्य बन गईं। मेरे मन पर उनकी उत्मीयता की कई परतें हैं।
कानपुर से जमी-जमाई नौकरी छोड़कर जब वह देहरादून के डीएवी कॉलेज के प्रवक्ता के रूप में आए, हर दिन अपमान का घूंट पीना पड़ा। कनिष्ठ को उनके सिरहाने थोप दिया गया। ईर्ष्यालु सहकर्मियों के उकसावे पर छात्र उनका महीने भर तक बहिष्कार करते रहे लेकिन इरादे के मजबूत डॉ त्रिवेदी ने हार नहीं मानी।
कवि डॉ गिरिजाशंकर त्रिवेदी के जीवन की कोई एक बंधी-बंधाई दिशा नहीं रही। तमाम विरोधाभासों के घने कोहरे के भीतर वह आराम से अपने व्यक्तित्व और कर्ततृत्व के ताने-बाने बुनते रहे। उनके बारे में सोचते हुए अक्सर लोग असमंजस में पड़ जाते हैं कि उनका व्यक्तित्व बड़ा था कि रचनाकार। वह संस्कृत के पंडित और आधुनिक चेतना के पुंज भी, पारिवारिक भी और समाजसेवी भी, साहित्यकार भी, पत्रकार भी, आचार्य भी और चिरजिज्ञासु छात्र भी। आजीवन वह देवभूमि के प्रांगण में ऐसे तुलसी-वृक्ष की तरह रहे, जिसकी मंजरियों को छूकर हवाएं सुवासित होती रहीं और पत्तियां हर अर्पण का नैवेद्य बन गईं। उनको देहरादून के लोग श्रद्धा और आत्मीयता से 'गुरुजी' कहते थे।
वे ज्ञान की पूंजी से व्यापार करने वाले आज के शिक्षकों से कदापि भिन्न थे। उनका पूरा जीवन शास्त्र को व्यवहार में उतारने में बीता। शिशु अवस्था में ही बघेरा उन्हें घर से उठा ले गया था। क्षत-विक्षत हालत में छोड़ गया। बाद में पढ़ाई भी टाट-पट्टी वाली पाठशाला में हुई। मल्ल विद्या भी सीखी। आसपास के गांवों से अपनी पहलवानी के पुरस्कार बटोरे। कभी रामलीला के लक्ष्मण के रूप में प्रशंसित हुए तो कभी अदम्य जिजीविषा के साथ कवि-सम्मेलनों के मंचों पर पुजने लगे। उनकी बहुमुखी प्रतिभा से जान-पहचान के लोग चकित हो उठे। भले उनका जन्म वसंत में हुआ, पूरा जीवन ग्रीष्म से तपता रहा। एक-एक पथ साधने के लिए उन्हें कई-कई पत्थर हटाने पड़े।
कानपुर से जमी-जमाई नौकरी छोड़कर जब वह देहरादून के डीएवी कॉलेज के प्रवक्ता के रूप में आए, हर दिन अपमान का घूंट पीना पड़ा। कनिष्ठ को उनके सिरहाने थोप दिया गया। ईर्ष्यालु सहकर्मियों के उकसावे पर छात्र उनका महीने भर तक बहिष्कार करते रहे लेकिन इरादे के मजबूत डॉ त्रिवेदी ने हार नहीं मानी। कालांतर में उनकी सुयोग्यता कॉलेज के हर शिक्षक और छात्र की साधना का स्वर बन गई। अध्यापन से बचे खाली समय में वह स्कूटर लेकर छात्र-शिक्षक, परिचित-सुपरिचित-अपरिचित किसी की भी मदद के लिए निकल पड़ते। वह संस्कृत और हिंदी, दो विषयों से एमए थे। एक ही समय में दोनों विषयों के प्रवक्ता का दायित्व भी उन पर रहा। जून
1974 में उनके बुलावे पर काव्यपाठ के लिए जब मैं देहरादून पहुंचा तो पहली ही मुलाकात के कुछ घंटों में उनकी आत्मीयता की कई परतें मन पर जम गईं। उनकी कृतियां इस बात की साक्षी हैं कि उनकी शब्द साधना दोनों भाषाओं में चलती रही। वह मलयालम भी सीख गए और उसके लिए उन्हें स्वर्ण पदक भी मिला। नवों काव्य-रसों के मर्मज्ञ, बेहद सात्विक और ऋजु-व्यक्तित्व के स्वामी भी। एवरेस्ट फतह करने वाली बचेंद्री पाल भी उनके छात्र-शिष्यों में रही हैं।
डॉ त्रिवेदी का रचना-संसार अत्यंत विस्तृत और बहुआयामी है। उनके गीतों में उत्तर-छायावादी काल का वैभव परिलक्षित होता है तो दूनघाटी की हरीतिमा पर भी कई-कई पुस्तकें। उनकी प्रतिभा का एक और छोर राष्ट्रीय पत्रकारिता में हस्तक्षेप करता रहा। वह अपने जेब-खर्च से साप्ताहिक 'नवोदित स्वर' भी निकालते रहे। यद्यपि इसके पीछे उनके पुत्र रजनीश त्रिवेदी की प्रारंभ में बाल-सुलभ कुशलता रही लेकिन बाद में जब देश भर के कवि-साहित्यकारों से डॉ त्रिवेदी को बधाइयां मिलने लगीं, तब उनके अनजाने में प्रकाशित होकर चहुंओर वितरित हो रही साप्ताहिकी का भेद खुला। यशस्वी कथा वाचक रामकिंकर, साहित्यकार विष्णु प्रभाकर, डॉ गोपालदास नीरज, रमानाथ अवस्थी, रवींद्रनाथ त्यागी, डॉ बरसाने लाल चतुर्वेदी, चिरंजीत, पद्मश्री बेकल उत्साही, राजेंद्र अवस्थी, वेदप्रताप वैदिक, रामधारी सिंह दिनकर आदि से उनके अत्यंत आत्मीय सम्बंध रहे। त्रिवेदी के गीतों में एक खास तरह की मौलिकता होती थी। जैसे उनका एक गीत है छह ऋतुओं की चुनरी ओढ़े वसुधा गंधवती -
धरती तन है, पवन प्राण है, पानी है जीवन।
पावनकारी पावक हलचल, रक्षक नील गगन।
छह ऋतुओं की चुनरी ओढ़े वसुधा गंधवती
शस्य-श्यामला, शांत उर्वरा, वरदा सरस्वती
हो न जाय विध्वंस सृष्टि का यज्ञ दक्षपुत्रों
अपमानित मत करो कि पृथ्वी है साक्षात सदी
हिला न दे भूगोल तुम्हारा यह आसुरी खनन।
नयी वधू सी सहमी-सकुची चलती मंद हवा
कभी उत्तरी, कभी दक्खिनी पछुवा औ पुरवा
इसमें गति है, इसमें लय है, इसमें स्वर-सरिता
परम पुरातन, यह अधुनातन, यह है पुनर्नवा
विषधर धुंआ, धूल ना कर दे इसके मलिन वसन।
हंसते हिमनद, गाते निर्झर, जल है गीत-गज़ल
धारा वेणी मुक्त, लहरियां हैं चितवन चंचल
पिया मिलन को सत्वर आतुर इठलाती नदियां
इनके रस को रस रहने दो, करो न हालाहल
यही धमनियां हैं धरती की, इनसे जग चेतन।
अग्नि ऊष्मा, अग्नि ऊर्जा, ज्योति और रक्षक
अग्नि कामना, अग्नि भावना, जप-तप अग्नि अथक
इससे करो सुगंधित संसृति और न यह भूलो
अग्नि विषैल उपजाती है रोगों के तक्षक
भड़की अग्नि न कर दे फिर से लंकापुरी दहन।
यह अग-जग का नीला अंबर, वसुधा का प्रियतम
यह विराट कल्पना, ज्योतिवीणा की स्वर-सरगम
छिन्न करो मत इसका जीवन-छद, क्षय हो अक्षय
शेष बचें कंकाल, धरे रह जायं सभी उपक्रम
चुक मत जाये सांस सृष्टि की, रुक न जाय धड़कन।
पंचतत्व निर्माता- क्षिति-जल-पावक-पवन-गगन।
कवि असीम शुक्ल कहते हैं कि मेरे लिए मानव मूल्य सम्पन्न लिखने का अर्थ है, अपनी चेतना से काव्य के प्रति समर्पित रचनाधर्मिता की परम्परा को प्रणाम अर्थात स्व. गिरजा शंकर त्रिवेदी जैसे मनीषी के प्रति अनेकशः स्मृतियों के पारावार में निमग्न हो जाना। त्रिवेदी जी निरंतर विसंगतियों से दो-चार होते हुए भी सृजन की लौ मद्धिम न पड़ने के लिए संकल्पबद्ध रचनाकारों की पंक्ति में अग्रिम ही दिखाई देते रहे। मेरी पहली मुलाकात गुरुकुल विश्वविद्यालय के कवि सम्मेलन में होने पर यह अनुभव हुआ कि ऐसा विदग्ध काव्यशिल्पी ऐसा कुशल संचालक भी हो सकता है।
यह सोचकर मैं उनके चिंतन परंपरा और स्मृति तथा वाक्य विन्यास में निरंतर डूबता-उतराता रहा। शाश्वत काव्य लेखन की संभावनाओं को रेखांकित करना तो कोई उनसे सीखता। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए कथा एवं शिल्प के स्तर पर वे निरंतर संघर्ष करते हुए समृद्धि की दिशा में कार्य करते रहे। समय-समय पर वे कविता में बाज़ारवाद और कविता के मंच को कविता की दृष्टि से विपन्न करने वाले विदूषकों से भी संघर्षरत रहे। मैंने उनका अनुवाद, अद्भुत शब्द विन्यास और चयन क्षमता को भी आकाशवाणी के एक कवि सम्मेलन में निकट से समझा व कुछ अपने को उन्हें सुनकर समृद्ध करने का प्रयास किया।
त्रिवेदी जी ऐसे काव्यमनीषियों की श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी थे, जो कनिष्ठ से कनिष्ठतम मेरे जैसे नवोदित हस्ताक्षरों के लिए निरंतर प्रेरणा का स्रोत रहे। साहित्याकाश में जहाँ आत्मलीन चेहरे दिखाई देते हैं, वहीं त्रिवेदी जी नई पीढ़ी के दुधमुंहे रचनाकारों को एक सुखद रूप लेकर ही दिखाई पड़ते रहे। मैंने उन्हें कई बार व्यथित होते हुए भी देखा, जब बलवीर सिंह, रंग, उमाकांत मालवीय, डॉ. शम्भूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह जैसों के स्मरण क्षण चर्चा में उन्हें जीने पड़े। सृजन-यात्रा को देखते त्रिवेदी जी सदैव मुझे एक साधन संपन्न कवि, कलमकार, कविता के पुजारी-से लगे। सदा सादगी पसंद रहे। बनावटी आचरण करने वालों को तो वे आवश्यकतानुसार आईना दिखाते हुए भी दिखे।
शुक्ला बताते हैं कि एक बार पं. रमानाथ अवस्थी के आकाशवाणी के कमरे में उनसे ग़ज़ल के व्याकरण पर चर्चा हुई तो उन्होंने बेबाकी से अपना मत रखा कि उर्दू व हिंदी के ग़ज़लकार व्याकरण की अपेक्षा उसके शास्त्र की चर्चा कर रहे हैं क्योंकि शास्त्रों को रटकर शास्त्री तो बन सकते हैं, किंतु कवि या शायर नहीं बन सकते। त्रिवेदी जी का स्पष्ट मत था कि आजकल जो ग़ज़लें कही जा रही हैं, वे सभी की सभी कार्बन राइटिंग जैसी लगती हैं। डॉ. त्रिवेदी निश्चित ही हमारे मानस पटल पर ऐसी स्मृतियों के रूप में विद्यमान रहेंगे, जो निष्काम कर्मयोग, उदात्त प्रेम भावना, सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूकता, श्रेष्ठ साहित्य सृजन के संकल्प आदि मानव मूल्यों की पर्याय हैं।
उनका स्मरण जब जब होता है, तब तब मुझ जैसा सबसे पीछे की पंक्ति का हस्ताक्षर गहरी संवेदना में अपने को निमग्न पाता है। वे हमारे बीच से गये नहीं अपितु यह कह सकते हैं कि केवल व्यस्ततावश अनुपस्थित हुए हैं। वे राम तो नहीं राम कथा की नाईं भारतीय साहित्य व संस्कृति के आधार स्तंभ के रूप में आज भी हमारे बीच यशःकाय लिये विद्यमान हैं। सचमुच वे बड़े थे, इसलिए नहीं कि वे बहुत पढ़े लिखे थे, इसलिए भी नहीं कि वे बड़े कवि थे, हर तरह से संपन्न थे, बल्कि वे इसलिए बड़े थे कि मेरे जैसा अकिंचन, बदरंग व्यक्तित्व वाला अतिकनिष्ठ नवोदित रचनाकार उनका सान्निध्य पाकर अपने को बड़ा अनुभव करते हुए गर्व की अनुभूति पाता है। गिरिजाशंकर त्रिवेदी की एक गीतिका है-
शब्द हुए भरमाने को।
अर्थ हुए बहकाने को।
सरगम तक का पता नहीं
वे आए हैं गाने को।
घर में दाना एक नहीं
अम्मा चली भुनाने को।
जिनको कोई समझ नहीं
वे आतुर समझाने को।
तीरंदाज ताकता है
चूके हुए निशाने को।
जनम-जनम के भुक्खड़ करते
वादे हमे खिलाने को।
किसको फुर्सत इस युग में
पहचाने दीवाने को।
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