Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

लाखों का पैकेज छोड़ उत्तराखंड में रोजगार के अवसर पैदा कर रहीं ये दो बहनें

उत्तराखंड की बेटियां मल्टीनेशनल कंपनियों के लाखों के पैकेज ठुकराकर अपने उद्यम, अपने हुनर से ऑर्गेनिक खेती-बाड़ी से थाम रही हैं युवाओं का पलायन...

लाखों का पैकेज छोड़ उत्तराखंड में रोजगार के अवसर पैदा कर रहीं ये दो बहनें

Monday May 07, 2018 , 7 min Read

 एक ताजा सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में राज्य के पहाड़ों से पांच लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके हैं, जिनमें सबसे ज्यादा युवा हैं। बताया जा रहा है कि वास्तविकता में रिपोर्ट के आकड़ों से कई गुना अधिक है पलायन करने वालों की तादाद।

कनिका और कुशिका

कनिका और कुशिका


सरकार और शासन इस ओर दिलचस्पी लें, गंभीरता से मुखातिब हो जाएं, यहां के लोगों के साथ हाथ बंटाएं तो कोई भी व्यक्ति इतने खूबसूरत पहाड़ छोड़कर कहीं न जाए। उत्तराखंड का पर्यटन उद्योग सिर्फ कृषकों ही नहीं, अन्य वर्गों के लोगों के लिए भी मुफीद है।

उत्तराखंड के पहाड़ बदस्तूर जारी पलायन से वीरान होते जा रहे हैं, वहां न रोजी-रोटी का कोई संसाधन है, न शिक्षा और चिकित्सा की व्यवस्था, ले-देकर पर्यटन व्यवसाय ही एक आसरा है, जिस तक सीमित लोगों की पहुंच, ऐसे में बाहर गईं यहां की बेटियां मल्टीनेशनल कंपनियों के लाखों के पैकेज ठुकराकर अपने उद्यम, अपने हुनर से ऑर्गेनिक खेती-बाड़ी से पलायन थाम रही हैं। एक ताजा सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में राज्य के पहाड़ों से पांच लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके हैं, जिनमें सबसे ज्यादा युवा हैं। बताया जा रहा है कि वास्तविकता में रिपोर्ट के आकड़ों से कई गुना अधिक है पलायन करने वालों की तादाद।

जन्म से ही उत्तराखंड की अपनी अलग राह है। कितने तरह के हिंसक आंदोलनों की कोख से इसका जन्म हुआ। आज भी इस पर कितनी तरह की प्राकृतिक आपदाओं की मार पड़ रही है, लाखों लोग पहाड़ों से पलायन कर चुके हैं, सिलसिला बदस्तूर जारी है लेकिन इसी असंतुलन में जब राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत नैनीताल की किसी होनहार, मेहनतकश बेटी कुशिका शर्मा को ऑर्गेनिक खेती में महारत के लिए सम्मान से नवाजते हैं, तो तरक्की की इबारत के फलसफे अपने आप बदल जाते हैं, राह दूसरी ओर मुड़ जाती है, उस ओर, जहां से विकास की संभावनाएं हर युवा को प्रोत्साहित किए बिना रहती हैं।

ऐसा भी नहीं था कि नैनीताल की दो सगी बहनें कनिका और कुशिका की जिंदगी बाकी पढ़े-लिखे लड़के-लड़कियों की तरह मुश्किल न रही हो लेकिन पहाड़ की इन बेटियों ने अपनी राह बनाने की खुद ठानी और कामयाब होती चली गईं। पिछले दिनो जब कुशिका को मुख्यमन्त्री के हाथों सम्मान मिला तो उनका चेहरा खुशी से खिल उठा। एक वक्त में तो कुशिका और कनिका भी किसी न किसी महानगर में, पेशे में, खुशनुमा आबोहवा में अपनी आरामतलबी के दिन गुजार रही थीं लेकिन उन्हें उस तरह की ठहरी-सड़ी जिंदगी रास नहीं आई। दोनो बहनों की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा उनके कुमाऊं अंचल के नैनीताल और रानीखेत से हुई। बाद में कुशिका ने एमबीए किया।

कुछ साल तक गुड़गांव की मल्टी नेशनल कंपनी में लाखों के सैलरी पैकेज वाला जॉब किया। इस दौरान कनिका ने भी दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा प्राप्त कर खुद को इंटरनेशनल एनजीओ सेक्टर से जोड़ लिया लेकिन दोनो बहनें अपने-अपने पेशे से भीतर ही भीतर घुट रही थीं। घर-गांव की खूबसूरत वादियों, माता-पिता से दूर रहकर बस एक ढर्रे में दिन काटते जाना उन्हें तनिक भी रास नहीं आ रहा था। कुशिका बताती हैं - हमारे पास सब कुछ था लेकिन जिंदगी में सुकून नहीं था।शहरों में लोग अपनी आरामदायक जिंदगी के साथ कुछ वक्त प्रकृति के साथ भी बिताना चाहते हैं। दिमाग में आया कि क्यों न वे अपने गांव पहुंच कर पहाड़ पर ऐसा ही कुछ इंतजाम करें।

दोनों बहनों का मानना है कि उत्तराखंड के पहाड़ों से पलायन थामना है तो यहां के लोगों को स्थानीय स्तर पर ही रोजी-रोजगार मुहैया कराना होगा। पर्यटन यहां एक बड़ी संभावना के रूप में मौजूद है। सरकार और शासन इस ओर दिलचस्पी लें, गंभीरता से मुखातिब हो जाएं, यहां के लोगों के साथ हाथ बंटाएं तो कोई भी व्यक्ति इतने खूबसूरत पहाड़ छोड़कर कहीं न जाए। उत्तराखंड का पर्यटन उद्योग सिर्फ कृषकों ही नहीं, अन्य वर्गों के लोगों के लिए भी मुफीद है।

कनिका और कुशिका का मानना रहा कि पहाड़ पर तफरीह करने, छुट्टियां मनाने जो लोग पहुंचेंगे, मेरे संसाधन उनको तसल्ली तो देंगे ही, मेरा कारोबार भी चल निकलेगा। तब हम बहनों ने अपनी नौकरी छोड़कर जन्मभूमि पर ही कुछ करना तय कर लिया। इरादा ऑर्गेनिक फार्मिंग का रहा। ऐसी ऊब से मूड घूमा। हम दोनों सब छोड़छाड़ कर अपने गांव मुक्तेश्वर लौट गईं। दिमाग जैविक फॉर्मिंग पर जा टिका। पारंपरिक खेती नहीं, जैविक उत्पादों की ओर। इसके लिए सबसे पहले प्रशिक्षण जरूरी था।

दोनों बहने दक्षिण भारत के कई राज्यों में जाकर जैविक कृषि करना सीख आईं। वह 2014 का साल था। शुरुआत में उन्हें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। उनके प्रयोग पर यकीन करना मुश्किल था। दोनों ने 25 एकड़ जमीन पर खेती शुरू कर दी। इसके साथ एक नया प्रयोग किया ‘दयो – द ओर्गानिक विलेज रिसॉर्ट’। ताकि अपने रिसॉर्ट तक पहुंचने वाले अपने अतिथि खुद हों। 'दयो' यानी स्वर्ग। पांच कमरों (पंच तात्विक नामकरण - उर्वी, इरा, विहा,अर्क, व्योमन) वाला रिसॉर्ट शुरू करने में दो साल लगे।

इसके साथ ही दोनो बहने गाँव के बच्चों को शिक्षा के प्रति भी जागरूक कर रही हैं। सैलानी आने लगे। इसके साथ ही दोनों बहनों ने स्थानीय लोगों को हॉस्पिटैलिटी का प्रशिक्षण दिया। अब तो खेती से लेकर रसोई तक का सारा काम वही लोग संभाल रहे हैं। खेत फसलें दे रहे हैं। खुद अपनी पसंद की सब्जियां तोड़ो, बनाओ, खाओ। प्रयोग लुभावना था। खास कर विदेशी पर्यटकों को खूब भा गया। प्रयोग चल निकला। उनके ठिकाने पर सैलानियों को एक अलग तरह की सहूलियत है कि खेतों में जाकर मनपसंद सब्जियां तोड़ लाएं। रिसॉर्ट में शेफ की भी व्यवस्था है। उनसे जैसा चाहें, तैयार करवाएं। इस समय उनके रिसॉर्ट में लगभग दो दर्जन कर्मचारी कार्यरत हैं। इसके साथ ही दोनों बहनें अपने आसपास के लोगों को भी जैविक खेती के लिए जागरूक करने लगीं। साथ ही अपने कृषि उत्पाद बेचने की सप्लाई चेन भी बनाने लगीं। अब उनके कृषि उत्पाद मंडियों तक पहुंचने लगे हैं।

कनिका और कुशिका बहनों का पर्यटनोन्मुखी ऑर्गेनिक कृषि के प्रयोग पर उत्तराखंड सरकार ऐसे ही नहीं फिदा हो उठी है। उसकी कुछ बुनियादी, बड़ी वजहें हैं। इसी सप्ताह ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग के सर्वेक्षण की पहली अंतरिम रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि उत्तराखंड से पिछले एक दशक में पांच लाख दो हजार 707 लोग पलायन कर गए हैं। इनमें एक लाख 18 हजार 981 लोग स्थायी रूप से घरबार छोड़ चुके हैं। रिपोर्ट में पलायन की सबसे बड़ी वजह रोजगार के संसाधनों और आजीविका का अभाव बताया गया है। वर्ष 2011 की जनगणना के बाद प्रदेश में 734 राजस्व गांव गैर आबाद हो गए हैं, जिन्हें अब ‘घोस्ट विलेज’ कहा जा रहा है।

565 राजस्व गांव व तोक में वर्ष 2011 के बाद 50 फीसदी आबादी पलायन कर चुकी है, जिनमें छह गांव अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पास हैं। राज्य में पलायन की दर 36.2 फीसदी है, जबकि हिमाचल में 36.1 फीसदी लोग पलायन कर रहे हैं। सिक्किम में यह 34.6 प्रतिशत और जम्मू-कश्मीर में 17.8 फीसदी हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रदेश में सबसे अधिक पलायन युवाओं ने किया है। पिछले 10 साल में 26 से 35 वर्ष आयु वर्ग के 42 फीसदी युवा पहाड़ों से पलायन कर चुके हैं। 35 वर्ष से अधिक आयु वर्ग में 29 फीसदी ने और 25 वर्ष से कम आयु वर्ग में 28 फीसदी युवाओं ने पलायन किया है। पलायन आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. एस.एस. नेगी बताते हैं कि यह तो अभी अंतरिम रिपोर्ट है।

सर्वे के जरिए हमने बीमारी पकड़ ली है और अब आयोग इसके इलाज का रास्ता निकालेगा। रिवर्स पलायन के लिए सहज वातावरण बनाने से लेकर सिंगल विंडो सिस्टम विकसित करने की दिशा में सरकार को सुझाव दिए जाएंगे। आयोग की वेबसाइट पर रिवर्स माइग्रेशन के संबंध में सुझाव मांगे जा रहे हैं। बहरहाल, आगे सरकार चाहे जो कुछ भी करने के दावे करे, उसके मत्थे भी एक गंभीर सवाल है। उत्तराखंड राज्य का गठन हुए लगभग डेढ़ दशक हो रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या में लोग अपनी जड़ों से उजड़ गए तो सरकारी मशीनरी अब तक क्या करती रही है? जानकार बताते हैं कि रिपोर्ट में पलायन का जो आंकड़ा दर्शाया गया है, पलायन करने वालो की तादाद उससे कई गुना ज्यादा है।

यह भी पढ़ें: उस बहादुर महिला आईपीएस की कहानी जिसकी देखरेख में कसाब और याकूब को दी गई फांसी