क्यों सूख रही है धरती
दोहन से संरक्षण तक...
आज दुनिया अपनी जल-जरूरतों की पूर्ति के लिए सबसे ज्यादा भू-जल पर ही निर्भर है। लिहाजा, एक तरफ भू-जल का अनवरत दोहन हो रहा है तो वहीं दूसरी तरफ औद्योगीकरण के अन्धोत्साह में हो रहे प्राकृतिक विनाश के चलते पेड़-पौधों व पहाड़ों की हरियाली आदि में कमी आने के कारण बरसात में भी काफी कमी आ गई है। परिणामत: धरती को भू-जल दोहन के अनुपात में जल की प्राप्ति नहीं हो पा रही है! इन्हीं सबको ध्यान में बढ़ते जल संकट पर पढ़ें, योरस्टोरी की एक रिपोर्ट...
भारत 2025 तक भीषण जल संकट वाला देश बन जाएगा। हमारे पास सिर्फ आठ वर्षों का वक्त है, जब हम अपनी कोशिशों से धरती की बंजर होती कोख को दोबारा सींच सकते हैं। अगर हम जीना चाहते हैं तो हमें ये करना ही होगा।
भूगर्भ जल को रीचार्ज करने के लिए वर्षा का पानी तालाबों, कुओं, नालों के जरिये धरती के भीतर इकट्ठा होता है, लेकिन अधिकांश तालाब अवैध कब्जों के कारण नष्ट हो गए हैं तो कुओं का भी अस्तित्व नष्ट हो चुका है। नालों में बारिश के पानी की बजाय शहरों और कारखानों का जहरीला पानी बह रहा है। गंगा, यमुना, हिंडन, काली, कृष्णा आदि नदियां बुरी तरह से प्रदूषित हो चुकी हैं। इस कारण वाटर रीचार्ज नहीं हो रहा। सरकारी स्तर पर रेन वाटर हार्वेस्टिंग के प्लांट लगाने की योजना है, लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है।
उत्तर प्रदेश में तीन दशकों से भूगर्भ जल के स्तर में तेजी से गिरावट आ रही है। विशेषज्ञ इस स्थिति से भलीभांति परिचित हैं, सरकारों ने कदम उठाए हैं, मीडिया में भी मामला उछलता रहता है। दरअसल प्रदेश पांच भौगोलिक क्षेत्रों में बंटा हुआ है। भाभर, तराई, मध्य गंगा का मैदान, कछारी मैदान और दक्षिणी विंध्य प्रायद्वीपीय क्षेत्र। प्रत्येक क्षेत्र के जल दोहन मानक अलग-अलग हैं। जहां उस क्षेत्र के मानक से स्तर नीचे चला गया है, उसे डार्क क्षेत्र कहा गया है। प्रदेश में डेढ़ सौ से अधिक ब्लाक डार्क जोन घोषित किए जा चुके हैं। आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि हालात इस कदर भयावह हैं कि सूबे के कुल 820 विकास खण्डों में से 639 के जलस्तर में गिरावट आ चुकी है। इसमें 179 को डार्क जोन घोषित कर दिया गया है। इनमें से 69 विकासखण्डों में भू-गर्भ जलस्तर नाजुक हालत में पहुंच गया है। डार्क जोन विकासखण्डों में नलकूपों, सबमर्सिबल पम्पों की बोरिंग रोक दी गई है। यहां ट्यूबवेल बोर करने और इन्हें बिजली कनेक्शन दिए जाने पर भी रोक है। अफसोस कि सरकार की ओर से किए गए सुधारात्मक प्रयास सफल नहीं हो सके हैं।
पानी का स्तर बराबर बने रहने अथवा ऊपर उठने की तो नौबत आ ही नहीं रही है, साल-दर-साल यह गिरता ही जा रहा है। शहरों में भूगर्भ भण्डार का पानी बेचा जा रहा है, कभी टैंकरों से तो कोई बोतलबन्द। किसानों को फसल की जरूरत के मुताबिक नहरों से पानी नहीं मिलता। ऐसे में बड़े किसान ट्यूबवेल से और छोटे किसान पम्पिंग सेट से पानी दुह रहे हैं। जलस्तर गिरने से कई स्थानों पर पेयजल का गम्भीर संकट पैदा हो गया है। हैण्डपम्पों से पानी निकालने में काफी दिक्कत आ रही है। सैकड़ों हैण्डपम्पों से पानी निकल ही नहीं रहा है तो कई में पानी काफी कम निकल रहा है। कहीं-कहीं तो 70 सेन्टीमीटर से ज्यादा पानी नीचे खिसक गया है।
उत्तर प्रदेश का अधिकांश क्षेत्र गंगा-यमुना नदियों के मैदानी भूभाग के अन्तर्गत आता है, जो विश्व में भूजल के धनी भण्डारों में से एक है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में इस राज्य में जल की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भूगर्भ जल संसाधनों पर निर्भरता अत्यधिक बढ़ी है किन्तु भूजल दोहन के अनुपात में संचयन की मात्रा अब तक न के बराबर है।
भूजल विभाग की रिपोर्ट के अनुसार भूगर्भ जल सम्पदा ने हाल के वर्षों में प्रमुख सिंचाई साधन के रूप में एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। उत्तर प्रदेश में लगभग 70 प्रतिशत सिंचित कृषि मुख्य रूप से भूगर्भ जल संसाधनों पर निर्भर है। पेयजल की 80 प्रतिशत तथा औद्योगिक सेक्टर की 85 प्रतिशत आवश्यकताओं की पूर्ति भी भूगर्भ जल से ही होती है। भूजल स्रोतों पर बढ़ती निर्भरता का आंकलन भूजल विभाग के आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2000 में प्रदेश में भूजल विकास / दोहन की दर 54.31 प्रतिशत एवं वर्ष 2009 में 72.16 प्रतिशत आंकी गयी थी, जो बढ़ कर वर्ष 2011 में 73.65 फीसदी हो गई है।
लघु सिंचाई सेक्टर में 41 लाख उथले नलकूप, 25730 मध्यम नलकूप व 25198 गहरे नलकूप तथा 29595 राजकीय नलकूपों से बड़े पैमाने पर भूजल का दोहन हो रहा था। रिपोर्ट के मुताबिक पेयजल योजनाओं के अन्तर्गत 630 शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 5200 मिलियन लीटर तथा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन लगभग 7800 मिलियन लीटर से अधिक भूजल का दोहन किया जा रहा है। परिणामस्वरूप, प्रदेश के अनेक ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में अतिदोहन की स्थिति उत्पन्न हो गई है और यह प्राकृतिक संसाधन अनियन्त्रित दोहन के साथ-साथ प्रदूषण व पारिस्थितिकीय असन्तुलन के कारण गम्भीर संकट में है।
भूजल के गिरते स्तर के बीच राजधानी लखनऊ और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी की हालत भी चिन्ताजनक है। इसके बाद औद्योगिक नगरी कानपुर और इलाहाबाद का नम्बर है। औद्योगिक इकाइयों द्वारा अत्यधिक भूजल दोहन और भूजल रिचार्ज सिस्टम के अभाव को इसका उत्तरदायी माना जा रहा है।
मेरठ में बड़ी आबादी वाले ब्लॉक डार्क जोन में हैं। रिपोर्ट के मुताबिक गौतमबुद्ध नगर में हर साल 79 सेमी भूजल की गिरावट दर्ज की जा रही है जबकि लखनऊ में यह आंकड़ा 70 सेमी, वाराणसी में 68 सेमी, कानपुर में 65 सेमी, इलाहाबाद में 62 सेमी, मुजफ्फरनगर में 49 सेमी और आगरा में 45 सेमी है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तर प्रदेश में लगातार गिर रहे भूजल स्तर से राज्य में खाद्यान्न का कटोरा माने जाने वाले जिलों बागपत, हाथरस, जालौन और जौनपुर में कृषि उत्पादन पर असर पड़ेगा। कृषि विभाग के सूत्रों ने बताया कि बागपत, गाजियाबाद, वाराणसी, मेरठ, हाथरस, मथुरा, सहारनपुर, बांदा, जालौन, जौनपुर और हमीरपुर में भूजल स्तर में भारी गिरावट हुई है।
आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि भूजल के बेरोकटोक दोहन और सूख रही झीलों और तालाबों को बचाने के लिए सरकार ने प्रभावी कदम उठाये है हालांकि इस प्रयास में निरन्तरता बहुत जरूरी है। अधिकारियों का मानना है कि बेतरतीब विकास प्रतिमान और जल निकायों का पुनर्भरण नहीं होने से भूजल स्तर में तेजी से गिरावट हुई है। भूगर्भ जल को रीचार्ज करने के लिए वर्षा का पानी तालाबों, कुओं, नालों के जरिये धरती के भीतर इकट्ठा होता है, लेकिन अधिकांश तालाब अवैध कब्जों के कारण नष्ट हो गए हैं तो कुओं का भी अस्तित्व नष्ट हो चुका है। नालों में बारिश के पानी की बजाय शहरों और कारखानों का जहरीला पानी बह रहा है।
गंगा, यमुना, हिंडन, काली, कृष्णा आदि नदियां बुरी तरह से प्रदूषित हो चुकी हैं। इस कारण वाटर रीचार्ज नहीं हो रहा। सरकारी स्तर पर रेन वाटर हार्वेस्टिंग के प्लांट लगाने की योजना है, लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है।
मेरठ में 2.97 लाख रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्लांट के स्थान पर केवल 250 प्लांट लगे हुए हैं। सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने में भी नगर निकाय बहुत पीछे हैं। अकेले मेरठ में 150 प्लांट के मुकाबले केवल 95 प्लांट ही लग पाए हैं। गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में हैण्डपम्प भी दम तोड़ते जा रहे हैं। इसका कारण भूमिगत जल का स्तर लगातार गहरा होना है। पानी नहीं मिलने के कारण हैण्डपम्प लगातार दम तोड़ते जा रहे हैं। अधिकांश हैण्डपम्प जहरीला पानी उगल रहे हैं। तालाबों, नालों और नदियों में प्रदूषित पानी बहने से भूगर्भ जल भी जहरीला होता जा रहा है। इस कारण लोगों में कैंसर, अल्सर, लीवर सिरोसिस, पथरी आदि बीमारियां घर कर रही हैं। नदियों के किनारे बसे गांवों में जहरीले पानी से कैंसर पनप गया है, जो लोगों की जान ले रहा है।
जल संरक्षण में लगी संस्था नीर फाउण्डेशन के निदेशक रमनकांत कहते हैं कि कैंसर से हर साल सैकड़ों जानें जा रही हैं। यह कैंसर की बीमारी हिंडन, काली, कृष्णा, यमुना नदी किनारे बसे गांवों के लोगों में फैल रही है। इसका कारण जहरीले पानी को पीना है। सरकारी मशीनरी इस ओर पूरी तरह से उदासीन है। इसे रोकने के लिए राज्य सरकार को सबसे पहले वर्षा जल संरक्षण पर काम करना होगा। नदियों का पानी रोकने को छोटे-छोटे चैक डैम व बाढ़ का पानी रोकने के लिए रबर डैम बनाने होंगे। साथ ही बड़े जलाशयों की सम्भावना पर भी विचार करना होगा। नये भवनों के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य करनी होगी और सख्ती के साथ सभी ट्यूबवेलों को बन्द कराना होगा, फिर वे चाहे निजी हों या सरकारी। प्रत्येक राज्य में एक जल विनियमन प्राधिकरण की स्थापना की जानी चाहिए। प्राधिकरण अन्य बातों के साथ-साथ इस नीति में उल्लिखित नियमों के अनुसार सामान्यत: स्वायत्त ढंग से जल शुल्क प्रणाली तथा प्रभारों का निर्धारण और विनियमन करना चाहिए। प्राधिकरण को शुल्क प्रणाली के अलावा आवंटन का विनियमन करने, निगरानी प्रचालन करने, निष्पादन की समीक्षा करने तथा नीति में परिवर्तन करने सम्बन्धी सुझाव इत्यादि देने जैसे कार्य भी करने चाहिए। राज्य में जल विनियमन प्राधिकरण को अन्तत: राज्यीय जल सम्बन्धी विवादों का समाधान करने में भी सहयोग देना चाहिए। जल संसाधन के आयोजन, क्रियान्वन और प्रबन्धन हेतु जिम्मेदार संस्थानों के सुदृढ़ीकरण हेतु राज्य को 'सेवा प्रदाता' से सेवाओं के विनियामकों और व्यवस्थाधारकों की भूमिका में धीरे-धीरे हस्तान्तरित होना चाहिए। जल सम्बन्धी सेवाओं को समुचित 'सार्वजनिक निजी भागीदारी' के उचित प्रारूप के अनुसार समुदाय तथा निजी क्षेत्र को हस्तान्तरित किया जाना चाहिए। दोनों सतही और भूजल की जल गुणवत्ता की निगरानी के लिए प्रत्येक नदी बेसिन हेतु समुचित संस्थागत व्यवस्था को विकसित किया जाना चाहिए।
1947 में राजस्व दस्तावेजों में तालाबों, झीलों और कुओं के रूप में जल के 8.91 लाख प्राकृतिक स्रोतों का ब्यौरा दर्ज था। राजस्व परिषद की रिपोर्ट की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक गुजरे 68 वर्ष में इन जलस्रोतों की संख्या घट कर 8.22 लाख रह गई है। जल के 78 हजार से ज्यादा प्राकृतिक जलस्रोतों का वजूद मिट चुका है। यानी आजादी के बाद हर साल सूबे में औसतन 1000 हजार जल स्रोत अपना वजूद खो रहे हैं और कुओं जैसे प्राकृतिक जलस्रोतों पर भूमाफियाओं का कब्जा है। इनका कुल क्षेत्रफल 18451 एकड़ है। राज्य सरकार ने इनमें से 70 हजार जलस्रोतों को अवैध कब्जों से मुक्त करने का दावा किया है। बाकी 40 हजार जल भण्डार अब भी अवैध कब्जे में है। इन जल स्रोतों के विलुप्त होने की वजह से पानी के भण्डारों का दायरा भी कम हो रहा है। आजादी के समय इन जल भण्डारों का कुल क्षेत्रफल 547046.9 एकड़ था जो अब घट कर 546216.9 एकड़ रह गया है। इस हिसाब से जल भण्डारों का क्षेत्रफल 830 एकड़ घटा है। स्थिति यह हो गई है कि बारिश का 90 फीसदी पानी नालों में बह कर बर्बाद हो रहा है। ऐसे में जल संरक्षण को चलाई जा रही योजनाएं बेमानी साबित हो रही हैं। अत: जल स्रोतों की कब्जा की गई भूमि को शीघ्रातिशीघ्र मुक्त कराने की आवश्यकता है ताकि जल संरक्षण हेतु चलाई जा रही योजनायें अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकें।
कैसे हो जल संरक्षण
बरसात के मौसम में जो पानी बरसता है उसे संरक्षित करने की सरकार की कोई योजना नहीं। बारिश से पहले गांवों में छोटे-छोटे डैम और बांध बना कर वर्षा जल को संरक्षित किया जाना चाहिए। शहर में जितने भी तालाब और डैम हैं। उन्हें गहरा किया जाना चाहिए जिससे उनकी जल संग्रह की क्षमता बढ़े। सभी घरों और अपार्टमेंट में वाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य किया जाना चाहिए तभी जलसंकट का मुकाबला किया जा सकेगा। गांव और टोले में कुआं रहेगा तो उसमें बरसात का पानी जायेगा। तब धरती का पानी और बरसात का पानी मेल खाएगा। जरूरी नहीं है कि हम भगीरथ बन जाएं, लेकिन दैनिक जीवन में एक-एक बूंद बचाने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। खुला हुआ नल बन्द करें, अनावश्यक पानी बर्बाद न करें और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करें। इसे आदत में शामिल करें। हमारी छोटी सी आदत आने वाली पीढिय़ों को जल के रूप में जीवन दे सकती है। दिलचस्प है कि उत्तर प्रदेश के लोग भी अपने सिर आये संकट के समाधान के लिए सरकार का मुंह ताक रहे हैं। वे भूल गए हैं कि पानी के संकट को ज्यादा दिन टाला नहीं जा सकता।
जहां पानी ने कई सभ्यताएं आबाद की हैं, वहीं पानी लोगों को उजाड़ भी देता है। बेपानी होकर कोई गांव/शहर टिक नहीं सकता। उसे उजड़ना ही होता है। छोटे-मोटे गांव और शहर की तो औकात ही क्या, दिल्ली जैसी राजधानी को पानी के ही कारण एक नहीं कई बार उजड़ना पड़ा।
पानी के संकट के समाधान के लिए सरकार की तरफ मुंह ताकना छोडऩा होगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत 2025 तक भीषण जल संकट वाला देश बन जाएगा। हमारे पास सिर्फ आठ वर्षों का वक्त है, जब हम अपनी कोशिशों से धरती की बंजर होती कोख को दोबारा सींच सकते हैं। अगर हम जीना चाहते हैं तो हमें ये करना ही होगा। जिस दिन गांव के लोग अपने कुदाल-फावड़े उठा कर पानी के बर्तनों को खुद ठीक करने की ठान लेंगे, उसी दिन उत्तर प्रदेश की तकदीर बदल जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे की राजस्थान के जिला अलवर की कभी सूख चुकी नदी अरवरी को 72 गांवों ने अपने श्रम से न सिर्फ जिन्दा की, बल्कि अपनी जिन्दगी को भी गौरवशाली बनाया।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर भू-जल स्तर के इस तरह निरन्तर गिरते जाने का मुख्य कारण क्या है? अगर इस सवाल की तह में जाते हुए हम घटते भू-जल स्तर के कारणों को समझने का प्रयास करें तो तमाम बातें सामने आती हैं। घटते भू-जल के लिए सबसे प्रमुख कारण तो उसका अनियन्त्रित और अनवरत दोहन ही है।
आज दुनिया अपनी जल-जरूरतों की पूर्ति के लिए सबसे ज्यादा भू-जल पर ही निर्भर है। लिहाजा, एक तरफ भू-जल का अनवरत दोहन हो रहा है तो वहीं दूसरी तरफ औद्योगीकरण के अन्धोत्साह में हो रहे प्राकृतिक विनाश के चलते पेड़-पौधों व पहाड़ों की हरियाली आदि में कमी आने के कारण बरसात में भी काफी कमी आ गई है। परिणामत: धरती को भू-जल दोहन के अनुपात में जल की प्राप्ति नहीं हो पा रही है। सीधे शब्दों में कहें तो धरती जितना जल दे रही है, उसे उसके अनुपात में बेहद कम जल मिल रहा है। बस यही वह प्रमुख कारण है जिससे कि दुनिया का भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है।