भारत की पहली संथाली रेडियो जॉकी शिखा मांडी
आदिवासी इलाके से निकलकर आज चालीस लाख लोगों के बीच रोजाना तीन घंटे सुनी जा रहीं देश की पहली संथाली रेडियो जॉकी का श्रेय पा चुकी शिखा मांडी का एक सवाल पीछा करता रहता है कि कोई काली लड़की डांस क्यों नहीं कर सकती है?
कभी माओवादियों के डर से बंगाल का अपना गांव झारग्राम (बेलपहाड़ी) छोड़ने को विवश हुई देश की पहली संथाल रेडियो जॉकी शिखा माडी गहरे श्याम रंग की होने से बहुत चाहकर भी चमक-दमक वाले नृत्य कलाधर्मियों के लिए तो आखिर तक अस्वीकार्य रही हैं लेकिन आज उनकी संथाली आवाज का जादू चालीस लाख संथाली लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। शिखा की सफलता की राहों में अनुवांशिक अड़चन रही है उसकी बोली-भाषा (संथाली), लेकिन आज वही उसकी संघर्षशील कामयाबी का सबसे बड़ा शस्त्र बन गई है।
जिन दिनों वह कोलकाता की सड़कों पर दर-ब-दर भटकते हुए रोजी-रोटी की टोह लेती रही थी, बांग्ला-अंग्रेजीदां लोगों से संथाली में संवाद कर पाना भी उसके लिए इतना दिक्कत तलब रहा कि मूक व्यक्ति की तरह संकेतों से काम चलाना पड़ता था। इससे कोई काम-काज मिलने में गतिरोध के कारण वह अक्सर असहज हो जाया करती थी। उन दिनों कोलकाता में एक रिश्तेदार के यहां रहते हुई आखिरकार उन्हे बांग्ला सीखनी पड़ी। आज वह रेडियो जॉकी की देश की पहली संथाली होस्ट का गौरव पा चुकी हैं।
नील नदी के किनारे रहने वाले आदिवासियों के बीच से महानगरीय आभा मंडल में आ घिरी संथाली बिरादरी की इस लड़की की मुसीबतों का यहीं तक अंत नहीं रहा। उसके बारे में लोगों की तरह-तरह की धारणाएं होतीं, मसलन, वह तो कच्चा मांस खाती रही होगी, नील नदी के किनारे पत्तों से तन ढंकती रही होगी, आदि-आदि, लेकिन खुद के संथाली होने के अपराधबोध में रोती-बिसूरती वह हर ऐसी मुश्किल से लड़ती-भिड़ती, संथाली के बूते ही (बांग्ला का सहारा लेती हुई) अपना अनुभवहीन लक्ष्य हासिल करने में कामयाब रही। शिखा मंडी का रेडियो जॉकी से गहरा याराना उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी नियामत बन गया। आज भारत के चार राज्यों में संथाली बोलने-समझने वाले लगभग चालीस लाख लोग उन्हें टकटकी बांधकर सुनते रहते हैं। यद्यपि एक सवाल आज तक उनका पीछा करता रहता है कि काली लड़कियां क्यों डांस नहीं कर सकती हैं?
शिखा मांडी कहती हैं- 'मैं संथाली संस्कृति को और अधिक समृद्ध होते देखना चाहता हूं। संथाली हमेशा की तरह मेरी पहली भाषा थी, है और रहेगी। मैंने बंगाली तब सीखी, जब तीन साल की छोटी सी उम्र में अपने गाँव से कोलकाता पहुंची।संथाली में जो रेडियो जॉकी शो एक घंटे के स्लॉट के साथ शुरू किया गया था, लोकप्रियता हासिल करते हुए, अब हर दिन दो घंटे के लिए शाम 4 बजे से शाम 6 बजे तक प्रसारित होता है। हमे अनुमान था कि संथाली के लिए एक बड़ा श्रोता वर्ग मौजूद था, लेकिन प्रारंभ में मामूली प्रतिक्रियाएं मिलीं। अब तो वह रोजाना तीन घंटे संथाली को समर्पित कर लाखों लोगों का मनोरंजन कर रही हैं। अब संथाली ही उनकी दिनचर्या होकर रह गई है। अक्सर ऐसा होता है कि जब मैं कार्यालय पहुंचती हूं, मुझे अपने संपादक या निर्माता से एक नया और बेहतर विचार मिलता है। वह उस पर अमल करना शुरू कर देती हैं। एक बार जब कोई विचार हमारे अंदर बस जाता हैं, तो हम उसके ही अनुकूल आचरण करने लगते हैं। अब अपने चालीस लाख श्रोताओं के लिए मैं संथाली में विषय, सामग्री, गीत सब कुछ खोजती, चुनती रहती हूं।'
शिखा मांडी ने जब रेडियो जॉकी की राह ली, परिजनों ने भी उसका साथ नहीं दिया। वे चाहते थे कि ठीक से ऊंची पढ़ाई-लिखाई कर वह चार पैसे कमाने लायक बनें लेकिन वह चल पड़ीं तो चल पड़ीं, पीछे मुड़कर देखना अब गंवारा नहीं रहा। प्रशिक्षण के बाद वह संथाली कार्यक्रम देने लगीं। कोलकाता की आधुनिकता ने इस दौरान उनके संथाली इकहरेपन को भी अंदर से डांवाडोल कर दिया था, चित्त में वैसी जुबानी सहजता नहीं रह गई थी लेकिन दिल-दिमाग सख्त कर वह रेडियो जॉकी पर धीरे-धीरे फर्राटे से बांग्ला मिश्रित संथाली बोलने लगीं। शुद्ध संथाली अथवा शुद्ध बांग्ला न बोलने के कारण उन्हे आए दिन उलाहने मिलने लगे। कई एक ने तो गालियां देने से भी परहेज नहीं किया, सोशल मीडिया पर उनके बारे में अनाप-शनाप लिखते रहते, उन्हे लगता कि बांग्ला मिश्रित हो जाने से उनकी संथाली बदनाम हो रही है लेकिन वह अपने लक्ष्य से कदापि तनिक भी डिगी नहीं। अपनी राह चलती गईं और संथाली उनकी, वह संथाली की होकर रह गईं। कभी कोसते रहे, पूरे देश में अब वही लोग शिखा मांडी को घंटों संथाली में सुनते रहते हैं।