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जो अमेजन के साथ हुआ क्या वही हाल अपोलो का होगा? फ्यूचर-रिलायंस डील में आया एक और ट्विस्ट

फ्यूचर-रिलायंस डील के विरोध में अमेजन ने कई कानूनी लड़ाइयां लड़ीं. अंत में फ्यूचर के स्टोर्स को अपने कंट्रोल में लेकर रिलायंस ने अमेजन को बड़ा झटका दिया. अब कुछ वैसा ही अपोलो के साथ हो रहा है.

जो अमेजन के साथ हुआ क्या वही हाल अपोलो का होगा? फ्यूचर-रिलायंस डील में आया एक और ट्विस्ट

Tuesday September 20, 2022 , 4 min Read

अमेजन के बाद अब अपोलो ग्लोबल मैनेजमेंट भी भारत में कॉरपोरेट गवर्नेंस के बीच आ चुकी है. अपोलो ने मुंबई की एक वेयरहाउसिंग फर्म के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया है. अमेजन और अपोलो ने किशोर बियानी के प्राइवेट वेंचर्स में अलग-अलग निवेश किया हुआ है. सिएटल की दिग्गज ई-कॉमर्स कंपनी अमेजन ने किशोर बियानी की गिफ्ट-वाउचर यूनिट में 192 मिलियन डॉलर के स्टॉक खरीदे हुए हैं, ताकि फाउंडर उनके रिटेल बिजनस में पैसे लगा सके. वहीं न्यूयॉर्क की असेट मैनेजमेंट कंपनी अपोलो ग्लोबल ने बियानी की होल्डिंग कंपनियों को 200 मिलियन डॉलर यानी करीब 16 अरब रुपये का लोन दिया हुआ है.

जब बियानी ने अंबानी को बेच दिया बिजनस

ये बात तब की है जब कोरोना का संक्रमण बढ़ा तो किशोर बियानी का कर्ज तेजी से बढ़ने लगा. उस वक्त किशोर बियानी अपनी लिस्टेड कंपनी फ्यूचर रिटेल लिमिटेड को बचाने के लिए अमेजन के पास नहीं जा सकते थे. ऐसा इसलिए क्योंकि रिटेल में विदेशी निवेश को लेकर भारत में 2018 में कुछ पाबंदियां लगाई गई थीं. ऐसे में उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के मालिक मुकेश अंबानी का रुख किया. हालांकि, फ्यूचर कूपंस प्राइवेट लिमिटेड में अमेजन के निवेश की शर्तों में यह बात थी कि किशोर बियानी अपना बिजनस किसी अरबपति टाइकून को नहीं बेच सकते हैं.

लीगल मामले के बीच में आया ट्विस्ट

2.4 अरब डॉलर की डील को लेकर अभी अमेजन और फ्यूचर रिटेल के बीच लीगल मामला चल ही रहा था कि रिलायंस ने बियानी के स्टोर्स का कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया. तर्क दिया गया कि फ्यूचर ग्रुप के स्टोर्स रेंट नहीं चुका सके, इसलिए उन पर कंट्रोल वापस अपने हाथ ले लिया गया है. वहीं दूसरी ओर अमेजन के फ्यूचर कूपंस में निवेश की मंजूरी को नामंजूर कर दिया गया. तर्क दिया गया कि अमेजन ने अपने सही इरादे जाहिर किए बिना निवेश की मंजूरी ली थी. अमेजन का लीगल केस घुटनों पर आ गया.

अमेजन जैसी कहानी अब अपोलो के साथ भी

यह सब मार्च में हुआ था. इकनॉमिक टाइम्स के अनुसार अब अपोलो को लेकर भी कुछ इसी तरह की कहानी शुरू हुई है. अपोलो को किशोर बियानी की एक दूसरी लिस्टेड कंपनी फ्यूचर सप्लाई चेन सॉल्यूशंस लिमिटेड के शेयर गारंटी यानी कोलैटरल के तौर पर दिए गए थे. इसके तहत अगर किशोर बियानी की तरफ से कर्ज नहीं चुकाए जाने पर अपोलो ने उन शेयरों पर कब्जा कर लिया और 24.8 फीसदी का मालिक बन गया. इसके बावजूद, जब हाल ही में फ्यूचर सप्लाई चेन सॉल्यूशंस लिमिटेड शेयरहोल्डर्स के सामने प्रस्ताव रखा कि रिटेल ग्रुप के असेट्स को बेचा जाए या ट्रांसफर किया जाए तो अपोलो ने 'नहीं' (NO) की वोटिंग की. हालांकि, अपोलो के वोट को कोई तवज्जो नहीं देते हुए उसे इनवैलिड करार दिया. अपोलो को शायद उम्मीद थी कि वह 8.2 मिलियन स्क्वायर फुट के वेयरहाउसिंग स्पेस के जरिए तेजी से बढ़े लोन की रिकवरी कर सकता है, लेकिन अब उसे बियानी परिवार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कभी भी मुकेश अंबानी को बेच सकता है.

अप्रैल में मुकेश अंबानी ने फ्यूचर ग्रुप के स्टोर्स पर कंट्रोल लेकर अमेजन के लीगल चैलेंज को तगड़ा झटका दिया था. उसी दौरान फ्यूचर ग्रुप में कंपनियों ने क्रेडिटर्स और शेयर होल्डर्स के सामने असेट्स को रिलायंस को ट्रांसफर करने का प्रस्ताव रखा. उस वक्त भी फ्यूचर सप्लाई चेन सॉल्यूशंस लिमिटेड में अपोलो ने इसके खिलाफ वोट किया था. उस वक्त अपोलो की बात के कोई मायने नहीं थे, क्योंकि फ्यूचर रिटेल के भारतीय कर्जदाताओं ने रिलायंस की डील को रद्द कर दिया था, क्योंकि उनके लिए सिर्फ 66 फीसदी हेयरकट की बात की जा रही थी.

फैसलों में दिख रहा विरोधाभास

मजे की बात है कि जिस वोट स्क्रूटिनाइजर ने पहले अपोलो की भागीदारी को वैलिड माना था, 5 महीने बाद उसी ने वोट भागीदारी को नकार दिया. ऐसा लगता है कि जैसे सप्लाई चेन कंपनी का मैनेजमेंट यह नहीं मानता कि गिरवी रखे शेयरों के आधार पर अपोलो के पास वोटिंग राइट्स हो सकते हैं. स्क्रूटिनाइजर ने तो सुप्रीम कोर्ट का एक ऐसा फैसला भी दिखाया, जिसमें किसी और केस में कुछ ऐसे ही मामले का समर्थन किया गया था और स्क्रूटिनाइजर ने खुद की राय देने से भी इनकार कर दिया.

इकनॉमिक टाइम्स ने तो इसे लेकर शुक्रवार को ही एक खबर जारी की थी कि अपोलो ग्लोबल लीगल एक्शन लेने की सोच रही है. इस लीगल एक्शन का जो फैसला होगा, वह अपोलो से कहीं ज्यादा भारत के लिए अहम होगा. क्रेडिटर्स को ये कहना कि उनके पास जो शेयर हैं, उनके आधार पर उन्हें वोटिंग राइट्स नहीं मिलेंगे, यह वाकई भविष्य में कर्जदारों को दिक्कत देने वाला साबित हो सकता है.