स्क्वायर फीट फार्मिंग सिखा रहा है अनामिका बिष्ट का 'विलेज स्टोरी' स्टार्टअप
कारपोरेट लाइफ छोड़कर जक्कुर (बेंगलुरु) में झारखंड की अनामिका बिष्ट अपने 'विलेज स्टोरी' स्टार्टअप से शहरी जीवन में तरह-तरह के प्रयोग कर रही हैं। उनकी टीम लोगों को 'स्क्वायर फीट फॉर्मिंग' करना सिखा रही है। लोग दो हजार रुपए प्रति माह पर खेती के लिए जमीन के टुकड़े लेकर अपने मन की सब्जियां उगा रहे हैं।
कॉरपोरेट सेक्टर में दो दशक तक कार्यरत रहीं झारखंड की अनामिका बिष्ट का 'विलेज स्टोरी' स्टार्टअप से शहरी जीवन में तरह-तरह के प्रयोग कर रही हैं। बचपन के ग्रामीण परिवेश से गहरे तक प्रभावित रही बिष्ट ने आधुनिकतम कृषि-प्रयोगों के साथ अपने पैशन को ही पेशे के रूप में ढाल लिया है। मुंबई के कॉलेज से साहित्य में ग्रेजुएशन, फिर निफ्ट, दिल्ली से गारमेंट मैन्युफैक्चरिंग में मास्टर्स डिग्री, फिर करियर की जद्दोजहद से आजिज आकर एक दिन कारपोरेट की नौकरी करते हुए उन्होंने अचानक अपनी लाइफ-स्टाइल को आलग मोड़ पर ला खड़ा किया। वह अपने एक दोस्त के सुझाव पर बेंगलुरू के जक्कुर में एक खाली पड़ी जगह देखने गईं। मन में संकल्प लिया और उस जमीन पर एक दिन सब्ज़ियों की खेती शुरू कर दी। पहली फसल उन्होंने परिचितों में बांट दी। उसी समय पहली बार उनके दिमाग में 'स्क्वायर फुट फॉर्मिंग' का नया आइडिया।
अपने इस अनोखे स्टार्टअप की सफलता के लिए उन्होंने सबसे पहले 'विलेज स्टोरी' की अपनी एक टीम बनाई। इसके बाद उन्होंने इसके सक्सेज के लिए 15 अगस्त 2017 से शहरी लोगों के लिए सब्सक्रिप्शन फार्मिंग की शुरुआत कर दी। 'स्क्वायर फुट फॉर्मिंग' का कांसेप्ट है- 7×7 फीट की एक क्यारी किराए पर लेकर खुद की खेती करना। लोग उनके संपर्क में आने लगे। उनकी टीम उन लोगों को प्राकृतिक और जैविक खेती के तरीके सिखाने लगी। दो हजार रुपए प्रति माह पर उपलब्ध कराई गई उस जमीन पर खेती के लिए विलेज स्टोरी टीम की ओर से उन्हे ज़मीन ही नहीं, सम्बंधित फसल के लिए उपयुक्त मिट्टी, बीज, सैपलिंग, खाद, कॉकोपीट मुहैया करा दिए जाते हैं। इस तरह लोग वहां पालक, मेथी, धनिया, अजवायन, गोभी, हरा प्याज, लेट्स, लहसुन, सौंफ, चौलाई, नीम, मोरिंगा, हल्दी, तुलसी, एलोवेरा और फूलों की खेती करने लगे हैं। उन्हे भी लगता है कि खामख्वाह मॉडर्न होने से मुक्ति मिल गई है।
अनामिका कहती हैं कि आज लगभग हर घर में एक कैंसर रोगी या कोई न कोई बीमार होता है। इस सच ने भी उन्हे खान-पान के प्रति लोगों को आगाह करने के साथ ही साझीदारी के लिए मोटिवेट किया। यह प्रेरणा उन्हे अपने बुजुर्गों की जीवन शैली से मिली है। वह कहती हैं कि बिगड़ते पर्यावरण, केमिकलाइज खान-पान के दौर में आज हमें अपनी जड़ों की और लौटने की बहुत जरूरत है। हमें जैविक खाद्य को बढ़ावा देना ही होगा। आज हम जो भोजन ग्रहण करते हैं, वह तरह-तरह की बीमारियाँ दे रहा है। इससे बचने का एक ही तरीका है, खुद उगाओ, खुद खाओ। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। जैविक फसलों की ऊर्जा हमारे जीवन को हरा-भरा रखेगी।
अनामिका बिष्ट बताती हैं कि वह शहर में रहते हुए भी मानसिक रूप से अपने को गांव में पाती हैं। इसीलिए उन्हे अपना स्टार्टअप स्वभाव के अनुकूल लगता है। बोकारो (झारखंड) के बचपन में वह अपने गाँव से गहरे तक जुड़ी हुईं शहर के माहौल से एकदम अलग दिन-दिनभर खेत-खलिहानों में खेला करती थीं। परिजनों के साथ क्यारियों में सब्ज़ियां लगाया करती थीं। जब उनकी नानी घर के आँगन में मिट्टी के चूल्हे पर रोटी बनाती थीं तो सारे बच्चे अपनी-अपनी थाली लेकर उन्हे घेर लेते थे। बड़े होने पर पढ़ाई लिखाई के बाद रोजी-रोजगार को लेकर वह शहरी बन कर रह गईं।
वह कहती हैं कि उनकी जिंदगी अजनबीयत भरे टेक्नोलॉजी से लैस शहरों के छोटे से फ्लैट में सिमटकर रह गई थी लेकिन उनके मन को बचपन के देसीपन ने हमेशा बेचैन किए रखा। अब जाकर बेंगलुरू में 'विलेज स्टोरी' की पहल और इसके साथ तमाम लोगों की सहभागिता ने उनकी जिंदगी को एक सुखद, जीने लायक ट्रैक पर ला दिया है, जैसेकि उन्हे अपना गांव मिल गया हो।
पैशन जैसा यह करियर अनामिका को काफी शक्ति दे रहा है। अब तो वह एक बार फिर अपने स्टार्टअप के माध्यम से कबड्डी, पतंगबाजी जैसी दिनचर्याओं को भी अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाना चाहती हैं। इसके पीछे भी उनकी एक बड़ी योजना है क्योंकि आज के लोग अपने बच्चों को जबर्दस्ती, आर्थिक अनिश्चितताओं के भय में कुछ ज़्यादा ही तकनीकी दुनिया में बड़े करने पर आमादा दिखते हैं, जो ठीक नहीं है। उनके स्टार्टअप का मकसद नई पीढ़ी को तकनीकी और उबाऊ रुटीन से बाहर ले आने का है।