आसिफ शेख: वह शख्स जिसने हाथ से मैला ढोने वाले 31000 मजदूरों को दिया नया जीवन
किसी इंसान के मल (अपशिष्ट) को अपने सिर पर ढोने का काम, जिस काम के बारे सोचकर ही घिन्न आने लगती हो। समाज में एक तबका आज भी वह काम मजबूरी में या जबरदस्ती कर रहा है। दरअसल, तकनीक और कई अन्य क्षेत्रों में तो भारत ने लंबी छलांग लगाई है। इसके बाद भी आज मैनुअल स्कैवेजिंग यानी हाथ से मैला ढोने जैसे शब्द समाज में व्याप्त हैं। इस गंभीर मुद्दे पर ध्यान देते हुए मैनुअल स्कैवेजिंग को समाप्त करने के लिए कई सालों से सरकारें काम कर रही हैं।
साल 2013 में मैनुअल स्कैवेजिंग को मैनुअल स्कैवेजिंग ऐक्ट के माध्यम से खत्म कर दिया गया लेकिन सिर्फ किताबों में, ऐक्ट लागू होने के बाद आज भी जमीनी स्तर पर देखें तो यह काम हो जा रहा है।
मैनुअल स्कैवेजिंग को खत्म करने के लिए आसिफ शेख जैसे लोग अपने स्तर पर प्रशंसनीय काम कर रहे हैं। आसिफ शेख जन साहस संगठन के संस्थापक हैं और यह संगठन मैनुअल स्कैवेजिंग को पूरी तरह से खत्म करने में लगा है। पिछले 16 सालों में इस संगठन ने 18 राज्यों के 200 जिलों से करीब 31,000 मैनुअल स्कैवेजिंग कर्मियों और बंधुआ मजदूरों को हटवाया है। यह फाउंडेशन ऐसे मजदूरों को स्कैवेजिंग जैसे काम से हटवाकर उन्हें अलग रोजगार देकर आर्थिक सहायता प्रदान करता है।
अंतरराष्ट्रीय दलित एकजुटता संघ की एक स्टडी के मुताबिक भारत में करीब 1.3 मिलियन यानी 13 लाख मैला ढोने वाले मजदूर हैं। इनमें से भी अधिकतर महिलाएं हैं। द गार्जियन की एक रिपोर्ट में आसिफ ने बताया, 'समाज में उनके (मैला मजदूरों को) मन में ये फिट कर दिया जाता है कि वे निचली जाति से संबंध रखते हैं। वे हमें कहेंगे कि मैला ढोने का काम हमें भगवान ने दिया है और इसमें हमारा फायदा है कि इससे हमें खाने को मिलता है। बल्कि सच्चाई ये है कि इनके (मैला ढोने वालों) के साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है।' आसिफ हमेशा से इस बात में विश्वास करते हैं कि अब ऐसी चीजों को बदलने की जरूरत है।
बचपन में आसिफ ने भी ऐसा भेदभाव झेला था। वहीं से प्रेरणा लेकर आसिफ ने 'साहसी एकता ग्रुप' नाम से एक छात्र समुदाय शुरू किया। इसका काम समाज में विकास करने के साथ-साथ समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करना था। इसके बाद साल 2000 में आसिफ ने जन साहस संगठन शुरू किया। इसके एक साल बाद आसिफ ने बंधुआ या जबरदस्ती मजदूरी को समाप्त करने के लिए एक कैंपेन शुरू किया जिसका नाम 'नैशनल कैंपेन फॉर डिगनिटी प्रोग्राम' था। इस प्रोग्राम में दलित वर्ग के लोगों के साथ होने वाले अछूतपन और भेदभाव के विभिन्न प्रकारों के बारे में अध्ययन किया गया।
इस स्टडी के दौरान आसिफ ने पाया कि बड़ी संख्या में महिलाएं भी हाथ से मैला ढोने का काम करती हैं। आसिफ ने जोर देकर कहा कि तेज गर्मी हो या भयंकर बारिश, वे अपने सिर पर रखी एक टोकरी में मानव मल ले जाती हैं। उनकी ऐसी दुर्दशा ना केवल अप्रिय बल्कि अमानवीय भी थी।
द लॉजिकल इंडियन के मुताबिक संगठन ने मध्य प्रदेश के भौंरासा से काम शुरू किया। यहां आसिफ ने 26 महिलाओं को मैनुअल स्कैवेजिंग काम छोड़ने के लिए राजी कर लिया। आसिफ ने कहा, 'इस बुरी प्रथा के विरोध का संकेत देने के लिए सभी महिलाओं ने अपनी टोकरी को जलाया।' इन महिलाओं को पैसे कमाने और अपने परिवार का पालन पोषण करने के लिए सिलाई जैसे दूसरे रोजगार दिए गए।
संगठन को वास्तविक सफलता साल 2013 में मिली जब संगठन ने मैनुअल स्कैवेजिंग के खिलाफ देशव्यापी मार्च आयोजित किया। यह देश के 230 जिलों में आयोजित किया गया। मार्च का नेतृत्व संगठन के ही पूर्व मैनुअल स्कैवेजिंग का काम करने वाले मजदूरों ने किया।
बाद में इस ग्रुप को एक एनजीओ (गैर सरकारी संस्थान) के तौर पर पहचान मिली। समूह ने बाद में भी अपने पुराने मॉडल को अपनाया और मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने में लगा रहा। इसके अलावा भी संगठन की एक और पहल सफल रही। इस पहल में पहले मैला ढोने वाले पीड़ित मजदूरों में 65% को वकील बनने की ट्रेनिंग दी गई ताकि वह बाकियों के हित की बात उठाकर उन्हें न्याय दिला सकें।
उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि दलित महिलाओं के खिलाफ यौन शोषण जैसे अपराध में सजा की दर 2 फीसदी से बढ़कर 38 फीसदी हो गई है।
आसिफ कहते हैं,
'सभी को संविधान में दिए गए समानता के मौलिक अधिकार के प्रति सम्मान दिखाने की आवश्यकता है।'