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86 साल की उम्र में भी कायम है जज्बा, जैविक बीजों को कर रहे हैं संरक्षित

86 साल की उम्र में भी कायम है जज्बा, जैविक बीजों को कर रहे हैं संरक्षित

Saturday June 08, 2019 , 4 min Read

natbar sarangi odisha

नटबर सारंगी (तस्वीर साभार- अलजजीरा)

विश्व की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए पर्याप्त अनाज का उत्पादन करना एक चुनौती है जिसे कई देश सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। किसान अधिक उत्पादन के लिए लिए उर्वरक, आनुवंशिक रूप से संशोधित बीज और अन्य रसायनों का उपयोग कर रहे हैं। अब ऐसे बीज विकसित किए जा रहे हैं जिन्हें हर मौसम में उगाया जा सके। इससे फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। ऐसे बीज जो किसी भी जलवायु स्थिति का सामना करने की क्षमता रखते हैं, अब बेकार हो रहे हैं।


जैव विविधता को संरक्षित करने के लिए ओडिशा के रहने वाले 86 वर्षीय नटबर सारंगी काफी दिलचस्प काम कर रहे हैं। पेशे से अध्यापक ररहे सारंगी ओडिशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से धान के बीज एकत्र कर रहे हैं। हमेशा से जैविक खेती के पक्षधर रहे सारंगी 1988 से लेकर अब तक 700 से अधिक धान के बीज एकत्र कर चुके हैं।


इस उम्र में नटबर के लिए अकेले देश भर में यात्रा करना आसान नहीं था। इसलिए, 2010 में, उन्होंने भारत के अलग-अलग हिस्सों में स्थित खेतों से बीज इकट्ठा करने के लिए ग्लोबल ग्रीनग्रांट्स फंड से मिलने वाले अनुदान का इस्तेमाल किया। उन्होंने इस उद्देश्य के लिए यात्रा करने के लिए कुछ लोगों को काम पर रखा। इसके एक साल बाद नटबर ने बीज बैंक में बीजों को साफ करने और स्टोर करने में मदद करने के लिए 100 महिलाओं को काम पर रखा।





जैविक धान के बीजों के संरक्षण के महत्व पर द हिंदू बिजनेस लाइन से बात करते हुए, उन्होंने कहा, “1960 के दशक में, भारत में फसल की पैदावार में वृद्धि की बहुत जरूरत थी क्योंकि देश भारी अकाल से जूझ रहा था। नई कृषि पद्धतियों का छोटे किसानों और फसलों की जैव विविधता पर गंभीर प्रभाव पड़ा। पैदावार तो अच्छी थी, लेकिन दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होने थे। साल में सिर्फ एक फसल बोना और सूखे मौसम में भी रासायनिक उर्वरकों और रासायनिक कीटनाशकों का भारी मात्रा का उपयोग करके फसलों को उगाने के लिए सिंचाई तकनीकों का उपयोग करने की वजह से काफी बुरा असर पड़ा।


ओडिशा के नियाली गाँव के रहने वाले नटबर अब अपने जैविक खेती के तरीकों के लिए पूरे भारत में कृषक समुदाय के लिए एक प्रतीक के रूप में उभरे हैं। उन्होंने अब तक ओडिशा के नियाली में स्थापित राजेंद्र देसी चास गबेसना केंद्र नामक अपने शोध संस्थान में एक हजार से अधिक किसानों को प्रशिक्षित किया है।


संस्थान में नटबर ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर किसानों को जैविक पोषक तत्वों, जैव-कीटनाशकों और जैविक बीजों के बारे में प्रशिक्षित करते हैं। इन जैव कीटनाशकों को बिना रसायन का उपयोग किए पौधों से निकाला जाता है। किसानों के बीच जैविक बीजों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए नटबर जैविक बीज बांटते हैं और बदले में किसान फसल होने के बाद उन्हें चार किलोग्राम बीज देते हैं।


नटबर बताते हैं कि शुरू में किसानों को समझाना आसान काम नहीं था। वे कहते हैं, 'शुरू में, किसान हिचकिचा रहे थे। लेकिन जब उन्होंने महसूस किया कि पारंपरिक तरीके से खेती करना रासायनिक खेती की तुलना में सस्ता है और उपज समान है। तो उन्हें हमारी बात समझ में आई। अब पारंपरिक बीज इकट्ठा करने के लिए हमें न केवल हमारे गाँव बल्कि आसपास के क्षेत्रों से भी किसान आते हैं। महाराष्ट्र जैसे दूर-दराज के राज्यों से लोग हमारे पास आते हैं।'


किसानों के अलावा, ओडिशा राज्य सरकार भी सरकार की परम्परागत कृषि विकास योजना को लागू करने के लिए अपने अनुसंधान संस्थान के साथ टाइअप करने के लिए नटबर के साथ काम कर रही है। यह जैविक खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक प्रशिक्षण कार्यक्रम है। वर्तमान में नटबर रूफटॉप ऑर्गेनिक सब्जी की खेती को बढ़ावा देना चाहते हैं। द हिंदू बिजनेस लाइन की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा, "हम अपने क्षेत्र में लगभग दो लाख क्विंटल जैविक धान का उत्पादन कर रहे हैं। अगर अच्छी मार्केटिंग हो जाए तो हम किसानों की कमाई बढ़ा सकते हैं।"