घर से 25 रुपये लेकर निकले थे और खड़ी कर ली 7,000 करोड़ की कंपनी
भारतीय होटल साम्राज्य के बादशाह मोहन सिंह ओबेरॉय...
भारत में अगर होटल इंडस्ट्री का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें मोहन सिंह ओबेरॉय की कहानी स्वर्ण अक्षरों में लिखी जाएगी। ब्रिटिशकालीन भारत में 1898 में जन्में मोहन सिंह ओबेरॉय अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी विरासत और उनका होटल साम्राज्य आज भारत के साथ ही श्रीलंका, नेपाल, ऑस्ट्रेलिया और हंगरी जैसे देशों में फैला हुआ है।
मोहन सिंह ने अपनी मेहनत के दम पर हजारों करोड़ की संपत्ति बनाई, लेकिन उनका बचपन गरीबी में बीता था और उनकी परवरिश भी आभावों में हुई थी।
झेलम जिले के भाऊन में एक सामान्य से परिवार में जन्में मोहन सिंह जब केवल छह माह के थे तभी उनके सर से पिता का साया उठ गया था। ऐसी हालत में घर चलाने और बच्चों को पालने की जिम्मेदारी उनकी मां के कंधों पर आ गई। उन दिनों एक महिला के लिए इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठाना कतई आसान नहीं होता था। गांव में किसी तरह स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मोहन सिंह रावलपिंडी चले आए। यहां उन्होंने एक सरकारी कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे नौकरी की तलाश में निकले, लेकिन काफी भटकने के बाद भी उन्हें नौकरी नहीं मिली।
भारत में अगर होटल इंडस्ट्री का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें मोहन सिंह ओबेरॉय की कहानी स्वर्ण अक्षरों में लिखी जाएगी। ब्रिटिशकालीन भारत में 1898 में जन्में मोहन सिंह ओबेरॉय अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी विरासत और उनका होटल साम्राज्य आज भारत के साथ ही श्रीलंका, नेपाल, ऑस्ट्रेलिया और हंगरी जैसे देशों में फैला हुआ है। मोहन सिंह का जन्म अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में भाऊन कस्बे में हुआ था। अब यह क्षेत्र पाकिस्तान में आता है। उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई रावलपिंडी के दयानंद एंग्लो वैदिक स्कूल (डीएवी) से की। उन्होंने कानून की पढ़ाई करने के लिए दाखिला लिया था, लेकिन उसे बीच में ही छोड़ना पड़ा।
मोहन सिंह ने अपनी मेहनत के दम पर हजारों करोड़ की संपत्ति बनाई, लेकिन उनका बचपन गरीबी में बीता था और उनकी परवरिश भी आभावों में हुई थी। झेलम जिले के भाऊन में एक सामान्य से परिवार में जन्में मोहन सिंह जब केवल छह माह के थे तभी उनके सर से पिता का साया उठ गया था। ऐसी हालत में घर चलाने और बच्चों को पालने की जिम्मेदारी उनकी मां के कंधों पर आ गई। उन दिनों एक महिला के लिए इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठाना कतई आसान नहीं होता था। गांव में किसी तरह स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मोहन सिंह रावलपिंडी चले आए। यहां उन्होंने एक सरकारी कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे नौकरी की तलाश में निकले, लेकिन काफी भटकने के बाद भी उन्हें नौकरी नहीं मिली।
नौकरी की तलाश में भटक रहे मोहन सिंह को उनके एक मित्र ने टाइपिंग और स्टेनोग्राफी सीखने की सलाह दी। उन्होंने अमृतसर में एक टाइपिंग इंस्टीट्यूट में टाइपिंग सीखना शुरू किया, लेकिन जल्द ही उन्हें यह अहसास होने लगा कि इससे भी उन्हें नौकरी नहीं मिलने वाली। इन दिनों वे केवल यही सोचते थे कि कैसे भी उन्हें कोई नौकरी मिल जाए, जिससे वे अपनी मां के कंधों का बोझ कम कर सके। लेकिन नौकरी न मिलने की वजह से वे असहाय महसूस करने लगे थे। अमृतसर जैसे शहर में रहने के एवज में उन्हें काफी पैसे खर्च करने पड़ रहे थे। जब उनके पैसे खत्म होने को आए तो वे 1920 में अपने गांव वापस चले आए। गांव वापस आने पर उनकी शादी कोलकाता के एक परिवार से हो गई। इस दौरान उनकी उम्र सिर्फ 20 साल की थी और उनकी पत्नी ईसार देवी सिर्फ 15 साल की थीं। ईसार देवी का परिवार भी मूल रूप से भाऊन कस्बे का रहने वाला था। वे लोग बाद में कोलकाता जाकर बस गए थे।
एक दिन सुबह अखबार में मोहन सिंह ने सरकारी क्लर्क की वैकेंसी देखी। उन्होंने बिना कुछ ज्यादा सोचे बिना किसी तैयारी के इंटरव्यू देने शिमला चले आए। शिमला जाते वक्त उनकी मां ने उनकी जेब में 25 रुपये रख दिए थे। शिमला में वह एक होटल को देखकर वह काफी प्रभावित हुए और उस होटल के मैनेजर से नौकरी के बारे में पूछा। मैनेजर ने उनसे प्रभावित होकर 40 रुपये की मासिक सैलरी पर रख लिया। यह ऐसा मौका था जब उनक तकदीर बदल रही थी।
ब्रिटिश मैनेजर इरनेस्ट क्लार्क छह महीने की छुट्टी पर लंदन गए तो वह सिसिल होटल का कार्यभार मोहन सिंह ओबराय को सौंप गए। मोहन सिंह ने इस दौरान होटल के औकुपैंसी को दोगुना कर दिया। धीरे-धीरे उनकी सैलरी बढ़कर 50 रुपये हो गई और रहने के लिए एक क्वॉर्टर भी मिल गया। वह अपनी पत्नी के साथ वहां रहने लगे।
शादी होने के बाद मोहन सिंह को अहसास हुआ कि न तो उनके पास पैसे हैं, न नौकरी है और न ही अच्छे दोस्त हैं जो इस हालत में उनकी मदद कर सकें। शादी के बाद वे अपने साले के साथ सरगोंधा में ही रहने लगे और यहां रहकर नौकरी की तलाश की। लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली और वे वापस अपने गांव लौट आए। उस दौरान उनके गांव में प्लेग नाम की महामारी फैल गई थी और कई लोग इसकी चपेट में आ गए थे। इस हालत में उनकी मां ने उन्हें वापस सरगोंधा जाकर नौकरी की तलाश करने को कहा। नौकरी न मिलने की वजह से मोहन सिंह तनाव और अवसाद में आ गए थे। एक दिन सुबह अखबार में मोहन सिंह ने सरकारी क्लर्क की वैकेंसी देखी। उन्होंने बिना कुछ ज्यादा सोचे बिना किसी तैयारी के इंटरव्यू देने शिमला चले आए। शिमला जाते वक्त उनकी मां ने उनकी जेब में 25 रुपये रख दिए थे। शिमला में वह एक होटल को देखकर वह काफी प्रभावित हुए और उस होटल के मैनेजर से नौकरी के बारे में पूछा। मैनेजर ने उनसे प्रभावित होकर 40 रुपये की मासिक सैलरी पर रख लिया। यह ऐसा मौका था जब उनक तकदीर बदल रही थी। मोहन सिंह ओबेराय सिसिल होटल में मैनेजर, क्लर्क, स्टोर कीपर सभी कार्यभार खुद ही संभाल लेते थे और अपने प्रयत्नों और कड़ी मेहनत से उन्होंने ब्रिटिश हुक्मरानों का दिल जीत लिया था।
ब्रिटिश मैनेजर इरनेस्ट क्लार्क छह महीने की छुट्टी पर लंदन गए तो वह सिसिल होटल का कार्यभार मोहन सिंह ओबराय को सौंप गए। मोहन सिंह ने इस दौरान होटल के औकुपैंसी को दोगुना कर दिया। धीरे-धीरे उनकी सैलरी बढ़कर 50 रुपये हो गई और रहने के लिए एक क्वॉर्टर भी मिल गया। वह अपनी पत्नी के साथ वहां रहने लगे। इस दौरान मोहन सिंह ओबेराय और उनकी पत्नी ईसार देवी होटल के लिए मीट और सब्जियां खुद खरीदने जाते थे। इस दौरान पंडित मोतीलाल नेहरू सिसिल होटल में आए। उन्होंने टाइप करने के लिए एक अति महत्वपूर्ण रिपोर्ट दी जिसे मोहन सिंह ने पूरी रात कड़ी मेहनत के बाद पं. नेहरू को सौंपा। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें इनाम के रूप में 100 रुपये का नोट दिया।
ओबेरॉय होटल ग्रुप सबसे बड़ा होटल ग्रुप माना जाता है और इस ग्रुप का टर्नओवर 1,500 करोड़ के करीब है।
1947 में मोहन सिंह ने अपना ओबेरॉय पाम बीच होटल खोला और मर्करी ट्रैवल्स के नाम से एक ट्रैवल एजेंसी भी खोल दी। 1949 में उन्होंने 'द ईस्ट इंडिया होटल लिमिटेड' के नाम से एक होटल कंपनी खोली। इसके बाद उन्होंने दार्जिलिंग समेत कई पर्यटन स्थलों में होटल खरीदे। 1966 में उन्होंने बॉम्बे में एक महंगी जगह पर 34-36 मंजिल का होटल बनाया।
सिसिल होटल एक ब्रिटिश दंपती का था। जब दंपती इंडिया छोड़कर जाने लगे तो उन्होंने मोहन सिंह को 25 हजार में होटल बेचने का ऑफर दे दिया। मैनेजर क्लार्क ने सिर्फ 25,000 रुपये में उन्हें होटल बेचने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने राशि का प्रबंध करने के लिए कुछ वक्त मांगा। मोहन सिंह के पास इतने पैसे तो थे नहीं। लेकिन उन्होंने सोचा कि अगर यह होटल उन्हें मिल गया तो उनकी किस्मत बदलते देर नहीं लगेगी। उन्होंने किसी तरह पैसे इकट्ठा करने शुरू कर दिए।
मोहन सिंह ने राशि जुटाने के लिए अपनी पैतृक संपत्ति तथा पत्नी के जेबरात तक गिरवी रख दिए थे तथा उन्होंने पांच साल की अवधि में सारी राशि होटल मालिक को लौटा दी थी। 14 अगस्त 1934 को शिमला का सिसिल होटल उनका हो गया।
1947 में मोहन सिंह ने अपना ओबेरॉय पाम बीच होटल खोला और मर्करी ट्रैवल्स के नाम से एक ट्रैवल एजेंसी भी खोल दी। 1949 में उन्होंने 'द ईस्ट इंडिया होटल लिमिटेड' के नाम से एक होटल कंपनी खोली। इसके बाद उन्होंने दार्जिलिंग समेत कई पर्यटन स्थलों में होटल खरीदे। 1966 में उन्होंने बॉम्बे में एक महंगी जगह पर 34-36 मंजिल का होटल बनाया। जिसकी लागत उस समय 18 करोड़ आई थी। इसके बाद उन्होंने विदेशों में भी कई सारे होटल बनाए।
धीरे-धीरे मोहन सिंह देश के सबसे बड़े होटल उद्योगपति बन गए। ओबेरॉय होटल ग्रुप सबसे बड़ा होटल ग्रुप माना जाता है और इस ग्रुप का टर्नओवर 1,500 करोड़ के करीब है। सन, 2000 में उन्हें पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके होटल दुनिया के सबसे बेस्ट होटल में शुमार किए जाते हैं। एक छोटे से गांव से निकलकर पूरी दुनिया में अपना नाम बनाने वाले मोहन सिंह का 2002 में निधन हो गया।