ग्लोबलाइज अरबों, खरबों के बाजार में भाषा का कारोबार भी
आज की ग्लोबलाइज दुनिया में क्यों भाषा बनती जा रही है एक बहुत बड़ा बाजार?
एक होती है बाजार और व्यापार की भाषा, लेकिन हम बात कर रहे हैं इसके उलट भाषा के बाजार और व्यापार की। अंग्रेजी हर तरह से सबसे बड़ी भाषा का कारोबारी माध्यम बन चुकी है। स्वाभाविक भूमंडलीकरण ने भाषाओं का भी एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया है। ग्लोबलाइज विश्व में आज भाषा भी अपने आप में एक बहुत बड़ा बाजार बनती जा रही है।
गांव-गांव में खुलने वाले अंग्रेजी माध्यम के स्कूल और शहरों में अंग्रेजी भाषा सिखाने वाले कोचिंग सेंटरों की संख्या देखकर यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि भारतीय बेहतर भविष्य के लिए अंग्रेजी की अहमियत को स्वीकार कर रहे हैं। हमारे बहुलतावादी भारतीय समाज में एक-दूसरे की संस्कृति और मूल्यों को समझने में भी अंग्रेजी भाषा केंद्रीय भूमिका निभा रही हैं।
ग्लोबलाइज दुनिया में आज भाषा भी अपने आप में एक बहुत बड़ा बाजार बनती जा रही है। शुरू में दुनिया केवल बाजार के सन्दर्भ में एक गाँव में तब्दील हो रही थी, आज उस स्वाभाविक भूमंडलीकरण ने भाषाओं का भी एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया है। जहां तक भाषाओं के अस्तित्व का प्रश्न है, वही समाज को विकास के इस पड़ाव तक ले आई है। चिंताजनक तो ये है कि वही भाषा ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बाजार के पहलू में बैठी राजनीतिक व्यवस्था की दयादृष्टि पर निर्भर हो चुकी है। इससे योग्यता के पैमाने भी बदलते जा रहे हैं। मसलन, सिर्फ दो भाषाओं हिंदी और अंग्रेजी को ही ले लीजिए। भारत सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना चाहती है तो दूसरी ओर बहुत से लोगों द्वारा अंग्रेजी गुलामी का प्रतीक मानने के बावजूद वैश्वीकरण के दौर में दुनिया से जुड़ने की कुंजी साबित हो रही है।
अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान लार्ड मैकाले द्वारा साल 1835 में भारत में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा की शुरू किए जाने के करीब 182 साल बाद भी 22 आधिकारिक भाषाओं और 350 बोलियों वाले देश में विदेशी भाषा कही जाने वाले अंग्रेजी के महत्व को लेकर बहसें चलती रहती हैं लेकिन आज भी देश में बहुत अच्छी तनख्वाह वाली कोई नौकरी नहीं है जिसमें अंग्रेजी जानना जरूरी न हो। अंग्रेजी को सामाजिक समावेश की भाषा नहीं मानने वालों की कमी नहीं है लेकिन 1991 में उदारीकरण की शुरुआत के बाद देश में काफी कुछ बदला है। अंग्रेजी भाषा को लेकर कुछ शंकाएं कम हुई हैं तो इसके महत्व को स्वीकार करने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है।
गांव-गांव में खुलने वाले अंग्रेजी माध्यम के स्कूल और शहरों में अंग्रेजी भाषा सिखाने वाले कोचिंग सेंटरों की संख्या देखकर यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि भारतीय बेहतर भविष्य के लिए अंग्रेजी की अहमियत को स्वीकार कर रहे हैं। हमारे बहुलतावादी भारतीय समाज में एक-दूसरे की संस्कृति और मूल्यों को समझने में भी अंग्रेजी भाषा केंद्रीय भूमिका निभा रही हैं।
रोजगार की भाषा के रूप में तेजी से अंग्रेजी के प्रति युवाओं का रुझान बढ़ता ही जा रहा है। वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम ने अर्थव्यवस्था, भूगोल और कम्यूनिकेशन जैसे पैमानों पर तौलते हुए विभिन्न भाषाओं का अध्ययन किया है। इस अध्ययन से जारी हुआ पावर लैंग्वेज इंडेक्स, जिसके मुताबिक दुनिया की 10 सबसे ताकतवर भाषाएं बन चुकी हैं अंग्रेजी, हिंदी, मैंडरिन, फ्रेंच, स्पैनिश, अरबी, रूसी, जर्मन, जापानी और पुर्तगाली। हिन्दी दुनिया में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा तो है लेकिन इसके भरोसे रोजी-रोजगार न मिल पाना हमारी चिंता का सबसे बड़ा विषय है। रोजी-रोटी हासिल करने में आज अंग्रेजी शीर्ष पर है। इसीलिए इससे जुड़ा भाषा का बाजार विश्व का सबसे बड़ा कारोबारी क्षेत्र बन चुका है।
एक होती है बाजार और व्यापार की भाषा, लेकिन हम बात कर रहे हैं इसके उलट भाषा के बाजार और व्यापार की। अंग्रेजी हर तरह से सबसे बड़ी भाषा का कारोबारी माध्यम बन चुकी है। ज्यादातर स्कूल-कॉलेज, दूर संचार कंपनियां, ऑनलाइन सेवाएं, अखबार, चैनल, आइटी दफ्तर इसी भाषा के भरोसे अरबो-खरबों का कारोबार कर रहे हैं। भाषा की श्रेष्ठता और उपभोक्ताओं की दृष्टि बाजार की प्राथमिकताएं, दो अलग-अलग बाते हैं। आज उत्पादों के बाजार की जिस भाषा में उपभोक्ताओं की संख्या सबसे ज्यादा होगी, वही सिरमौर रहेगी, इस सच से आंखें चुराना भाषाओं की समकालीन शक्ति का गलत मूल्यांकन करना होगा। आइए, इस सम्बंध में राकेश भारतीय के एक अलग तरह के मूल्यांकन पर नजर डालते हैं। उनका मानना है कि अपने अस्तित्व के लिए ही जो उत्पाद अहम हों, उनका ग्राहक की भाषा में उन तक पहुंचना बहुत जरूरी होता है। पूरी तरह से यह सुनिश्चित करना संभव नहीं पर काफी हद तक ऐसा किया जा सकता है। बहुत दिन नहीं हुए जब जीवनरक्षक से लेकर सामान्य बुखार तक दवाएं सिर्फ अंग्रेजी में लिखे नाम के साथ बिका करती थीं। जिस देश में एक प्रतिशत लोग ही ढंग से अंग्रेजी जानते हों, वहां दवाओं जैसे अहम उत्पाद को ऐसे बेचा जाना ग्राहकों के प्रति घोर अन्याय था।
अब भारत सरकार की पहल से दवाओं के नाम हिन्दी में भी लिखे आते हैं। अंग्रेजी का दिग्विजय अमरीका के वैश्विक व्यापारिक परिदृश्य पर छा जाने से शुरू हुआ था। भारतीय मध्यमवर्ग भी इस विजयी घोडे क़े ऊपर सवार होने की हाडतोड क़वायद करने लगा गया था। हाल की वैश्विक मंदी अमरीका से शुरू हुई है और बावजूद तमाम हवाई दावों के बनी हुई है। भारतीय भाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी की 'उपयोगिता' सिद्ध करने के प्रयत्न में 'नए जमाने के चतुर सुजान' एक तर्क अक्सर दिया करते हैं कि अंग्रेजी बाजार और व्यापार की भाषा है। क्या वाकई ऐसा है? क्या बनारस गोरखपुर से लेकर न्यूयॉर्क-टोक्यो तक एक ही बाजार है और उस बाजार की एक ही भाषा है? क्या तौलिया-साबुन से लेकर जहाज-तोप सब एक ही भाषा के माध्यम से खरीदा और बेचा जाता है? ये सारे सवाल उठाते हुए भी राकेश भारतीय इतना तो मानते हैं कि भाषा बाजार और व्यापार की प्रकृति के अनुसार चढ़ती-उतरती रहती है। अमरीका के वैश्विक परिदृश्य पर हावी हो जाने के साथ ही अंग्रेजी का बाजार और व्यापार पर भी एकछत्र राज्य हो जाने का विश्वास, कम से कम मध्यवर्गीय हिन्दुस्तानियों के दिमाग में बैठ गया है। हिन्दी भाषियों से भरी राजधानी दिल्ली के कनॉटप्लेस जैसे मुख्य बाजार में दु:खदायक दृश्य ये है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों के अलावा किसी दुकान-संस्थान का नाम हिन्दी में देखने को आंखें तरस जाती हैं।
किशन कालजयी के शब्दों में 'राधाकृष्णन कमीशन रिपोर्ट (1949) ने सिफारिश की थी कि हिन्दी के साथ राष्ट्र की क्षेत्रीय भाषाओं का विकास किया जाएगा और 15 साल के भीतर क्षेत्रीय जातीय भाषाओं में पाठ्य पुस्तकें तैयार की जाएँगी, विज्ञान की किताबें बनेंगी, यहाँ तक कि ये भाषाएँ अन्य शिक्षा का माध्यम बनेंगी। इन लक्ष्यों में एक बड़ा लक्ष्य सभी राष्ट्रीय भाषाओं को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाना है। इस पर चर्चा बार–बार होती है, पर यह कार्य कभी किया ना जा सका। 2007 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक फैसले के तहत तय हुआ कि हिन्दी में ज्ञान–विज्ञान के विषयों पर मौलिक पुस्तकें उन हिन्दी विद्वानों से लिखाई जाए, जो अँग्रेजी में लिखते हैं। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक के रूप में मैं इस फैसले की प्रक्रिया से जुड़ा था। मैंने एक आरम्भिक कार्य योजना बनवाकर भेजी। यह सुझाव दिया कि देश के कुछ विश्वविद्यालयों में इसके लिए एक सेल बनाकर कार्य आरम्भ किया जा सकता है और हिन्दी में प्रबन्धन, इंजीनियरिंग, तकनीकी, समाजविज्ञान, चिकित्सा विज्ञान आदि की मौलिक किताबें तैयार की जा सकती हैं। इसमें हिन्दीतर विद्वान भी सुझाव के लिए रखे जाएँ। यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। हिन्दी में मनोरंजन उद्योग की धूम है। देश के कोन–कोने में हिन्दी गाने बज रहे हैं। हिन्दी ‘गंगा आरती’ की भाषा बनी हुई है लेकिन ज्ञान–विज्ञान और तकनीक की भाषा के रूप में हिन्दी गायब है। किसी भाषा की समृद्धि का एक लक्षण है, उसमें कोई अच्छा विश्वकोश है या नहीं। इस मामले में भी दरिद्रता नंगी खड़ी है। इस समय राष्ट्र अँग्रेजी की मुट्ठी में है, लोकतन्त्र अँग्रेजी की मुट्ठी में है। हिन्दी सिर्फ लाल किले पर 15 अगस्त की भाषा है।'
दो साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हमें हिंदी को बाजार से जोड़ना होगा। इस रुझान पर प्रसून जोशी कहते हैं कि दुनिया की रीढ़ धन है। युवाओं को वही चीजें आकर्षित करती हैं, जो बेहतर जिंदगी की ओर ले जाती हैं। आप नजर दौड़ाकर देखिए, जो भी देश आर्थिक रूप से अच्छे हैं, उनका संगीत भी अच्छा नजर आता है, उनकी फिल्में भी स्तरीय लगती हैं, उनकी हर चीज हमें बेहतर नजर आती है। हमारे प्रधानमंत्री अगर चीजों को बाजार से जोड़ने की कोशिश करते हैं तो उसमें गलत क्या है? अगर वह हिंदी को बाजार से जोड़ने की बात करते हैं, तो उसमें क्या नुकसान है? बाजार यथार्थ है, बाजार रोजगार दे रहा है। सरकारें कितना रोजगार दे पा रही हैं? रोजगार की समस्या से लड़ने में बाजार ही तो बड़ा रोल निभा रहा है। बाजार हमारी कल्चर में घुस चुका है। जाहिर है, उसे हमें स्वीकार करना होगा। वहां हिंदी को जिंदा रखना होगा। इधर कुछ समय से भाषा की शुद्धता पर भी बात हो रही है। कुछ लोगों का मानना है कि हिंदी की पवित्रता को बनाए रखना होगा, लेकिन मेरा मानना है कि जो लोग इस मामले में किसी भी तरह की हठधर्मिता दिखा रहे हैं, वे हिंदी का नुकसान ही कर रहे हैं। जो भाषा अलग-अलग जगहों से आए और नए नए शब्दों को स्वीकार करने में हिचकेगी, उसका जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। अगर हिंदी में स्टेशन और स्कूल जैसी शब्द आए हैं तो आप उनके लिए अपने दरवाजे बंद नहीं कर सकते। ऐसे बोलचाल के शब्दों को हमें स्वीकार करना होगा और ये शब्द हिंदी को बेहतर ही बनाते हैं, कमजोर नहीं। हमें प्रधानमंत्री द्वारा कही गई बात को सही तरह से समझना होगा। उनका मतलब यह नहीं है कि हिंदी को बाजारू बना दिया जाए।
हिंदी हमारी मां की तरह है। ऐसे में उसे सिर्फ बाजार की भाषा नहीं बनाया जा सकता, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि अगर भाषा बाजार के लिए तैयार नहीं है तो वह रोजगार की भाषा नहीं बन सकती। सिर्फ हिंदी प्रेम के भरोसे आप लोगों के मन में इसे नहीं उतार सकते, उसे आपको बाजार की भाषा बनाना होगा, रोजगार की भाषा बनाना होगा। लेकिन यह भी सच है कि किसी उत्पाद को घरेलू बाजार में बेचना और अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचना एकसमान नहीं होता है। उसके बेचने का मूल्य, बेचने का तरीका और बेचने का माध्यम वांछित ग्राहक के अनुसार परिवर्तित हो जाता है। साइकिल पर घूम-घूम कर अपना बनाया साबुन 'निरमा' बेचते हुए करसनभाई पटेल को गुजरात के बाजारों में गुजराती भाषा की ही जरूरत पड़ी होगी। निरमा कंपनी जब पश्चिमी बाजार में हिन्दुस्तान लीवर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को पछाड़ने के बाद गुजरात से बाहर पांव फैलाकर खुद एक बड़ी क़ंपनी बनी तो अन्य बाजारों और ग्राहकों के अनुसार बेचने का माध्यम और तरीका भी बदला।
आज की तारीख में इसीलिए उत्पाद के प्रचार के लिए बड़ी क़ंपनियां हर क्षेत्र और भाषाई प्रदेश के लिए अलग-अलग रणनीति बना कर प्रचार करवाती हैं। यहां तक कि क्षेत्र-विशेष प्रचार के दौरान विज्ञापन अक्सर क्षेत्र-विशेष के मुहावरों का भी प्रचार की भाषा में समावेश कर ज्यादा प्रभाव डालने की कोशिश करते हैं। कल को अगर चीन नम्बर एक आर्थिक महाशक्ति बन जाता है तो क्या पता अमरीकी अंग्रेजी झटक कर मंडारिन से गले मिलने दौड़ पड़ें। इसलिए भाषा का महत्व अपनी जगह है, और बाजार का महत्व अपनी जगह। दोनो अलग-अलग तरह की जरूरतों के कायल जरूर हैं लेकिन एक दूसरे के लिए अपरिहार्य भी।
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