कारगिल में एक पैर गंवा चुके ब्लेड रनर मेजर देवेंदरपाल सिंह देश के रीयल हीरो
आज से लगभग दो दशक पहले पाकिस्तानी सेना की शेलिंग के दौरान अपना एक पैर गंवा चुके रिटायर्ड मेजर देवेंदर पाल सिंह ने न उस दुखद वक्त में हार मानी थी, न ही आज तक किसी और को हार मानने देने की कोशिश में जुटे रहते हैं। सेना में रहते हुए अपने शरीर के अंग हमेशा के लिए खो देने वाले लोगों के लिए सपोर्ट ग्रुप चला रहे मेजर सिंह ने रविवार को स्कूली बच्चों में भी जज्बा भर दिया।
1999 में करगिल के युद्ध के दौरान जम्मू-कश्मीर के पल्लांवाला के अखनूर सेक्टर में तैनात सिंह पाकिस्तानी सेना के मोर्टार शेल से घायल हो गए थे। घटना में उनकी जान तो बचा ली गई लेकिन गैंगरीन के कारण उनका दायां पैर काटना पड़ा। हालांकि, सिंह ने हार नहीं मानी और कृत्रिम पैर लगाकर दौड़ना शुरू किया और भारत के ब्लेड रनर कहलाए।
सिंह का नाम लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड्स में दर्ज है और स्काइडाइविंग करने वाले दिव्यांग भारतीय हैं। उनकी कहानी सुन ऐक्टर आमिर खान ने जब उनकी तारीफ की और उनकी हिम्मत, ताकत और मुश्किलों के सामने दृढ़ता को सराहा था तो मेजर सिंह ने जवाब में कहा था-
'ऐसा हो सकता क्योंकि मुझे भारतीय सेना में ट्रेनिंग मिली थी। मैं महान नहीं हूं। भारतीय सेना के हर जवान में यह खूबी है।'
मेजर देवेंदर पाल सिंह पिछले दिनो सिंहघाट (मणिपुर) के चूराचंदपुर में एक स्कूल में पहुंचे। डॉन बॉस्को स्कूल में शहर के अलग-अलग स्कूलों से आए बच्चे अपने सामने करगिल के इस हीरो को देख गर्व से फूले नहीं समा रहे थे। उनके लिए अपने सामने मेजर सिंह को कृत्रिम पैर के साथ देखना किसी मिसाल से कम नहीं था। इस दौरान मेजर ने बच्चों को अपनी जिंदगी में कुछ कर दिखाने के लिए मोटिवेट किया।
देवेंदर पाल सिंह बताते हैं कि उस दिन भारत-पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध हो रहा था। दुश्मन के हर हमले को नेस्तनाबूद करते हुए हमारी सेना आगे बढ़ रही थी। उस लड़ाई में मेरे कई साथी पाकिस्तानी हमले में जान गंवा चुके थे, तो कई गंभीर रूप से जख्मी हो गए थे। मैंने पूरे जोश के साथ मोर्चा संभाल रखा था। अचानक एक तोप का गोला मेरे करीब आकर फटा। मेरे साथी आनन-फानन में मुझे नजदीकी सैनिक अस्पताल ले गए, जहां मेरे जैसे कई सैनिक हर मिनट भर्ती हो रहे थे। अस्पताल में घायलों की कोई गिनती नहीं थी। अस्पताल में फैली अफरातफरी के माहौल में मुझे मृत घोषित कर दिया गया।
वह बताते हैं कि दरअसल, जो गोला मेरे पास फटा था, उससे किसी का जिंदा बचना असंभव सरीखा होता है। हड़बड़ाहट में डॉक्टरों ने इसी आधार पर मुझे मृत घोषित कर दिया था। मुझे तुरंत मुर्दाघर ले जाया गया, जहां सौभाग्य से एक दूसरे चिकित्सक की नजर मुझ पर गई और उन्हें मेरे शरीर में हलचल महसूस हुई। उसने पाया कि मेरी सांसें चल रही हैं। मेरे लहूलुहान शरीर की अंतड़ियां खुली पड़ी थीं। डॉक्टरों के पास कुछ अंतड़ियों को काटने के सिवा दूसरा चारा न था। मेरा एक पैर भी बम के हमले से निष्क्रिय हो गया था, उसे भी तत्काल काटना पड़ा। एक सैनिक की मौत के साथ जारी इस जंग में आखिरकार मौत हार गई और अपंग ही सही, मैंने वह जंग जीत ली। मैं तमाम समस्याओं के साथ अपना एक पैर गंवा चुका था। मेरी सुनने की क्षमता भी कम हो गई और पेट का कई बार ऑपरेशन किया गया। इसके अलावा शरीर में बम के कई ऐसे महीन टुकड़े फंसे रह गए, जिन्हें तमाम कोशिशों के बावजूद बाहर निकाला नहीं जा सका। मजबूत इरादों के कारण मेरी जान तो बच गई थी, पर मुझे आगे एक नई जिंदगी जीनी थी। इसके लिए मैंने संकल्प लिया कि मैं अपनी अपंगता के बारे में न सोचकर केवल आगे बढ़ने के बारे में सोचूंगा। वही संकल्प आज तक वह कायम करते आ रहे हैं।