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त्रिलोचन ने कभी न खुशामद की, न स्वाभिमान से डिगे

त्रिलोचन ने कभी न खुशामद की, न स्वाभिमान से डिगे

Monday August 20, 2018 , 6 min Read

निजी जीवन में हमेशा परेशान हाल रहे हिंदी के शीर्ष कवि त्रिलोचन की असली शिनाख्त उनके शब्दों से होती है - 'आजकल लड़ाई का ज़माना है, घर-द्वार, राह, खेत में अपढ़-सुपढ़ सभी लोग लड़ाई की चर्चा करते रहते हैं। आख़िर यह लड़ाई क्यों होती है, इससे क्या मिलता है। ...हिन्दुस्तान ऐसा है, बस जैसा-तैसा है।'

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 त्रिलोचन का विश्वास कवि के रूप में पूरे देश को आत्मसात करने में था। इस आत्मसात करने की उनकी राह जलसों आदि से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत संपर्कों से गुजरती थी। सामयिक आंदोलनों से अधिक प्रभाव ग्रहण करने से वे बचते थे तथा अखबारीपन को कविता के लिए अच्छा नहीं मानते थे। 

हिंदी के ख्यात कवि त्रिलोचन का आज (20 अगस्त) जन्मदिन है। कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है। वे आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक थे। इस त्रयी के अन्य दो सतंभ नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह थे। प्रेम, प्रकृति, जीवन-सौंदर्य, जीवन-संघर्ष, मनुष्यता के विविध आयामों को समेटे हुए त्रिलोचन की कविताओं का फलक अत्यंत व्यापक है। वह हिंदी की प्रगतिशील काव्य-धारा के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवियों में हैं। उन्होंने न कभी किसी की खुशामद की, न अपने स्वाभिमान से एक इंच भी डिगे। उनकी कविताओं में लोक-जीवन की सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। 'उस जनपद का कवि हूँ' शीर्षक अपनी एक कविता में त्रिलोचन लिखते हैं -

उस जनपद का कवि हूँ, जो भूखा-दूखा है,

नंगा है, अनजान है, कला-नहीं जानता,

कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता,

कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है

उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता

सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से,

अपने समाज से है; दुनिया को सपने से

अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता

दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में

वे विचार रह गये नही हैं, जिनको ढोता

चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता

विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।

धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण

सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।

कवि दिविक रमेश बताते हैं कि त्रिलोचन तुलसी और निराला को लगभग सर्वोपरि मानते थे। उन्हीं की परम्परा में त्रिलोचन नि:संदेह जातीय परम्परा के कवि हैं। उन्हें धरती का कवि भी कहा जा सकता है। त्रिलोचन का विश्वास कवि के रूप में पूरे देश को आत्मसात करने में था। इस आत्मसात करने की उनकी राह जलसों आदि से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत संपर्कों से गुजरती थी। सामयिक आंदोलनों से अधिक प्रभाव ग्रहण करने से वे बचते थे तथा अखबारीपन को कविता के लिए अच्छा नहीं मानते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि कवि भाव की समृद्धि जन-जीवन के बीच से ही पाता है। वहीं से वह जीवंत भाषा भी लेता है। ताजगी तभी आती है और जीवंत भाषा किताबों से नहीं आती। वे जनता में बोली जाने वाली भाषा को पकड़ते हैं। हिंदी के कवियों के लिए संस्कृत सीखने पर भी उनका जोर था। अपनी कविताओं के चरित्रों को उन्होंने जीवन से उठाया है। जैसे नगई महरा। शमशेर ने कहा था कि निराला के बाद यदि कोई कवि सबसे ऊंचा है तो वह त्रिलोचन हैं। उनकी एक कविता है - 'बादल चले गए वे'। इसमें शब्द-चित्र एक बड़े कैनवास पर फैल जाते हैं:

बना बना कर चित्र सलोने

यह सूना आकाश सजाया

राग दिखाया, रंग दिखाया

क्षण-क्षण छवि से चित्त चुराया

बादल चले गए वे।

आसमान अब नीला-नीला

एक रंग रस श्याम सजीला

धरती पीली, हरी रसीली

शिशिर-प्रभात समुज्जल गीला

बादल चले गए वे।

दो दिन दुख के, दो दिन सुख के

दुख सुख दोनो संगी जग में

कभी हास है कभी अश्रु है

जीवन नवल तरंगी जल में

दो दिन पाहुन जैसे रह कर

बादल चले गए वे।

दिविक रमेश का कहना है कि 'त्रिलोचन को पहली मान्यता स्थापित आलोचकों से नहीं, पाठकों से मिली। जैसेकि मृत्यु के बाद ही सही, मुक्तिबोध को मिली। लोगों और पाठकों के दबाव ने ही आलोचकों की आंखें उनकी ओर घुमाईं। तब जाकर आलोचकों के लिए वे ‘खोज के कवि’ के रूप में ही सही पर उभर कर आ सके। सुनकर ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि 1957 में प्रकाशित उनके ‘दिगंत’ का दूसरा संस्करण मेरे ही प्रयत्नों से एक उभरते प्रकाशक ने 1983 में जाकर छापा था। हालांकि, पांडुलिपि काफी पहले दी जा चुकी थी।

यही नहीं, उन पर पहली पुस्तक ‘साक्षात त्रिलोचन’ भी कमलाकांत द्विवेदी और मेरी ही देन थी। साहित्य अकादमी जैसी संस्था उन्हें निमंत्रण तक नहीं भेजती थी, जिसके लिए मैं लड़ा। जिस संग्रह पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, उसे भी तब के एक युवा कवि ने ही तैयार किया था। लेकिन इस इतिहास को कुछ ही लोग जानते हैं। नयी पीढ़ी तो श्रेय उन्हीं को देती प्रतीत होती है, जिनसे वे उपेक्षित रहे। त्रिलोचन न खुशामदी थे और न अपने स्वाभिमान से एक इंच भी डिगने वाले थे। उलटा आलोचक हो या कोई और, उन पर व्यंग्य करने से भी नहीं चूकते थे। त्रिलोचन उपेक्षित रहे, लेकिन उन्होंने किसी की उपेक्षा नहीं की।'

त्रिलोचन की असली शिनाख्त उनके ही शब्दों से की जाए तो ज्यादा समीचीन रहेगा। वह लिखते हैं - 'आजकल लड़ाई का ज़माना है, घर, द्वार, राह और खेत में अपढ़-सुपढ़ सभी लोग लड़ाई की चर्चा करते रहते हैं। जिन्हें देश-काल का पता नहीं, वे भी इस लड़ाई पर अपना मत रखते हैं। रूस, चीन, अमरीका, इंगलैंड का, जर्मनी, जापान और इटली का नाम लिया करते हैं। साथियों की आँखों में आँखें डाल-डाल कर पूछते हैं, क्या होगा, कभी यदि हवाई जहाज ऊपर से उड़ता हुआ जाता है, जब तक वह क्षितिज पार करके नहीं जाता है, तब तक सब लोग काम-धाम से अलग हो कर उसे देखा करते हैं। अण्डे, बच्चे, बूढ़े या जवान सभी अपना-अपना अटकल लड़ाते हैं : कौन जीत सकता है। कभी परेशान होकर कहते हैं : आख़िर यह लड़ाई क्यों होती है, इससे क्या मिलता है। हाथ पर हाथ धरे हिन्दुस्तान की जनता बैठी है। कभी-कभी सोचती है : देखो, राम या अल्लाह, किसके पल्ले बांधते हैं हम सब को। हिन्दुस्तान ऐसा है, बस जैसा-तैसा है।'

विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी के शब्दों में 'त्रिलोचन हिंदी के सौभाग्य थे।' वह बेखबर नहीं, हमेशा बाखबर रहे। प्रगतिशील आलोचक चौथीराम यादव कहते हैं कि त्रिलोचन तीन जगह मिलते हैं। गांव में, दन्तकथाओं में और विश्वविद्यालय की एकेडमिक बहसों में। त्रिलोचन की कविताओं में ठेठ देसीपन है। उनकी कविताओं से नया लोकभाषा कोश बन सकता है। जनता जिस भाषा में बोलती-बतियाती है, त्रिलोचन उस भाषा के कवि हैं। त्रिलोचन की कविता के शब्द जनता के यहां मिलेंगे, लोक में मिलेंगे। भाषा का यह रूप उनके अलावा सिर्फ तुलसीराम की 'मुर्दहिया' में मिलता है। त्रिलोचन की कविताएं कलात्मकता और बनावटीपन से दूर हैं। भाषा पर त्रिलोचन की गहरी पकड़ थी। उर्दू-हिन्दी शब्दकोश बनाने में त्रिलोचन का बड़ा योगदान है। त्रिलोचन की कविता समाज की विषमता को सरल शब्दों में व्यक्त करती है। मुक्तिबोध और त्रिलोचन जीवन और समाज की विविधा के कवि हैं।

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