छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में दावेदारी पेश कर रहे किन्नर प्रत्याशी
हमारे देश में इस समय बीस लाख से ज्यादा किन्नर हैं। उनके बारे में आज भी भारतीय समाज में तमाम दुखद भ्रांतियां हैं, लेकिन वक्त तेजी से करवट ले रहा है। पूरे देश में ये समुदाय अपने हक-हिस्से के लिए जूझ रहा है। इन दिनो छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कई सीटों पर किन्नर प्रत्याशी ललकार रहे हैं। उधर, बलिया (उ.प्र.) में किन्नर अनुष्का ने 'नोटा' का बिगुल बजा दिया है।
लगभग 20 वर्ष पूर्व शबनम मौसी ने देश की पहली ट्रांसजैंडर विधायक बन कर इतिहास रचा था। 1998 के विधानसभा चुनावों में उनको हागपुर सीट से विजय मिली थी।
इन दिनो देश के तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। खासकर दो राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में चुनाव मैदान में उतरे कई एक किन्नर प्रत्याशी बड़ी पार्टियों के उम्मीदवारों के लिए कड़ी चुनौती बने हुए हैं। विद्या मौसी, मालती, राजा किन्नर आदि निर्दल प्रत्याशी के रूप में छत्तीसगढ़ की पांच सीटों अंबिकापुर, बिलासपुर, कोरबा, प्रेमनगर और सूरजपुर पर बड़े-बड़े नेताओं के छक्के छुड़ा रहे हैं। इसी तरह पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में भी किन्नर प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंद्वियों को ललकार रहे हैं। दो वर्ष पूर्व सिंहस्थ कुम्भ मेले में भी अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करा चुके 22 राज्यों के किन्नरों ने अखाड़े का गठन कर साधु-संतों की तरह शाही स्नान की सुविधा की मांग उठाई थी। पिछले पांच वर्षों में मध्य प्रदेश में ट्रांसजैंडर मतदाताओं की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। उनकी संख्या बढ़कर 1286 हो चुकी है। इंदौर (मध्यप्रदेश) विधानसभा सीट से लड़ रही, बाला दीदी के नाम से मशहूर उन्तीस वर्षीय किन्नर बाला वेशवार का कहना है कि शहर के ठेले-रेहड़ी वालों, मजदूरों और घरेलू कर्मचारियों की आर्थिक हालत बेहद खराब है। वह इसी शोषित-पीड़ित वर्ग के लिए पहली बार चुनावों में किस्मत आजमा रही हैं। वह चाहती हैं कि हर गरीब आदमी को दो वक्त की रोटी और इज्जत की जिंदगी नसीब हो।
मध्य प्रदेश की ही दमोह विधानसभा सीट पर किन्नर सब्बो बुआ पूर्व महापौर कमला बुआ के सहयोग से टक्कर दे रही हैं। कमला बुआ भी कहती हैं, उनकी लड़ाई शहर के बेरोजगार युवाओं के लिए है। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश ऐसा पहला राज्य है, जिसने एक किन्नर को विधानसभा में भेजा, जब शबनम मौसी 1998 में सुहागपुर सीट से जीती थीं। इन प्रत्याशियों का तरफदार किन्नरों का सबसे बड़ा संगठन 'किन्नर अखाड़ा' उन्हें किसी भी कीमत पर जिताने में जुटा हुआ है। गौरतलब है कि लगभग 20 वर्ष पूर्व शबनम मौसी ने देश की पहली ट्रांसजैंडर विधायक बन कर इतिहास रचा था। 1998 के विधानसभा चुनावों में उनको हागपुर सीट से विजय मिली थी। उनकी चुनावी सफलता ने बाद में कमला जान जैसी अन्य किन्नरों के लिए भी मार्ग प्रशस्त किया, जो जबलपुर के नजदीक कटनी नगर की मेयर बनीं। इस बार शबनम मौसी की जोर आजमाइश कोटमा सीट से है। यह भी गौरतलब है कि 2009 में कमला बुआ ने भाजपा की सुमन अहिरवार को सागर नगर निगम के मेयर पद के चुनाव में हरा दिया था।
पूरे देश में किन्नर समुदाय किस तरह अपने हक-हिस्से के लिए सियासत में हस्तक्षेप कर रहा है, इसकी एक गौरतब मिसाल दर्जा प्राप्त मंत्री रहीं उत्तराखंड की किन्नर रजनी रावत आम आदमी पार्टी की ओर से इस समय देहरादून नगर निगम महापौर पद के लिए निकाय चुनाव मैदान में हैं। वह प्रचार के लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी का भी बखूबी इस्तेमाल कर रही हैं। प्रचार में उतरने से पहले उन्होंने राज्य निर्वाचन आयोग से एलईडी स्क्रीन वाले प्रचार वाहन की अनुमति मांगी, जो नहीं मिल पार्इ। कांग्रेस-भाजपा के साथ ही रजनी रावत के भी मैदान में उतरने से महापौर पद का मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। उधर बलिया (उ.प्र.) में किन्नर अनुष्का चौबे उर्फ अन्नू ने 'नोटा आंदोलन' का बिगुल बजा दिया है। कोलकाता यूनिवर्सिटी से स्नातक अनुष्का देशभर के किन्नरों को अपने आंदोलन से जोड़ने में जुटी हुई हैं। उनका कहना है कि आज वोट की राजनीति के चलते देश गर्त में जा रहा है। समय की मांग है कि नेताओं को सबक सिखाया जाए। किन्नरों को न एमपी बनना है, न एमएलए, हम सिर्फ गरीबों के हक के लिए यह लड़ाई लड़ेंगे। हमारा मानना है आज देश में सिर्फ दो जातियां है अमीर व गरीब। आरक्षण का लाभ सिर्फ गरीबों को मिलें। किन्नर बिरादरी हमेशा से आम आदमी की खुशहाली की मन्नत मांगती आ रही है। आज देश में गरीबों का हक कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी किसी और कानून के नाम पर मारा जा रहा है। आज जिनकी सालाना आय दस लाख रुपए से ज्यादा है, वे भी आरक्षण का फायदा उठा रहे हैं। इसलिए अब चुनावों में किसी राजनीतिक दल की बजाए 'नोटा' का बटन ही जनता दबाए।
हमारे देश में इस समय बीस लाख से ज्यादा किन्नर हैं। किन्नरों के बारे में आज भी भारतीय समाज में कई दुखद भ्रांतियां हैं, मसलन, किन्नरों की शवयात्राएं रात्रि को निकाली जाती हैं। शवयात्रा को उठाने से पूर्व जूतों-चप्पलों से पीटा जाता है। इस समुदाय के किसी व्यक्ति के मरने के बाद पूरा किन्नर समुदाय एक सप्ताह तक भूखा रहता है आदि-आदि। बदलते दौर में किन्नरों के दर्दनाक जीवन की अकांक्षाओं, संघर्षों और सदस्यों की अनदेखी एक तरह से उनके साथ नाइंसाफी माने जाने लगी है। किन्नर सरकार और समाज से सिर्फ इतना चाहते हैं कि समाज उनका मजाक न उड़ाए, न घृणा की दृष्टि से देखे, तब भी वे तिरस्कृत-बहिष्कृत सा जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। इसीलिए आज आम समाज पर से उनका भरोसा उठ रहा है। सियासी हस्तक्षेप उनकी दुनिया बदल रहा है। साथ ही देश की सोच भी उनके प्रति बदल रही है।
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