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क्या बाल साहित्य में अब लोक कथाओं और नैतिक शिक्षा की कहानियों का जमाना लद गया है?

पिछले कुछ सालों में बाल साहित्य में बड़ा बदलाव देखने को मिला है. अब बच्चों के लिए न सिर्फ नैतिक शिक्षा देने वाली और शिक्षाप्रद कहानियां लिखी जा रही हैं बल्कि ऐसे जटिल मसलों को भी सरल तरीके से सामने रखा जा रहा है जिन्हें जानना और समझना बच्चों के लिए जरूरी है.

क्या बाल साहित्य में अब लोक कथाओं और नैतिक शिक्षा की कहानियों का जमाना लद गया है?

Sunday November 06, 2022 , 9 min Read

भारत में बच्चों को ध्यान में रखकर लिखी जाने वाली कहानियों यानी बाल साहित्य का बहुत पुराना इतिहास है. बाल साहित्य के तहत ऐसे शिक्षाप्रद साहित्य आते हैं जिन्हें बच्चों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखकर लिखा जाता है.

हिंदी साहित्य में बाल साहित्य की परम्परा बेहद समृद्ध है. प्राचीन काल में विष्णु शर्मा द्वारा लिखित पंचतंत्र, नारायण पंडित द्वारा किया गया उसका पुनर्लेखन हितोपदेश और अमर-कथाओं की कहानियों के माध्यम से बच्चों को नैतिक शिक्षा देने का काफी पुराना इतिहास रहा है. विश्व साहित्य में विष्णु शर्मा की पंचतंत्र की कहानियों का तो महत्वपूर्ण स्थान रहा है और अब तक विश्व की पचास भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है.

मध्यकाल में भी ऐसी कई कृतियों की रचना इस देश में हुई जिन्हें बच्चे बेहद मजे के साथ पढ़ते हैइनमें अकबरबीरबल के चुटुकलेतेनाली राम के किस्सेदेवन मिसरगोनू झा की कहानियोंवैताल पचीसीसिंहासन बतीसी आदि सम्मिलित हैंकुछ रचनाएं मुगलों और इस्लाम के फॉलोवर्स के माध्यम से भी इस देश में पहुंची थींजिनमें ‘हजार रातें उर्फ आलिफ लैला’हातिम ताईमुल्ला नसीरुद्दीनगुलबकाबली आदि किस्से सम्मिलित हैं.

वहीं, 80 के दशक में नंदन, चंपक,पराग, बाल भारती, सुमन सौरभ, चंदा मामा आदि पत्रिकाएं बच्चों के बीच बहुत लोकप्रिय रहीं. उसके बाद कॉमिक्स का जमाना आया. डायमंड पॉकेट बुक्स, राज कॉमिक्स आदि के कॉमिक्स ने बच्चों के बीच अपनी जगह बना ली. जिसमें अमर चित्र कथा, नागराज, चाचा चौधरी, पिंकी, स्पाइडर मैन, मोटू-पतलु, सुपर कंमाडो ध्रुव आदि शामिल थे.

हालांकि, पिछले कुछ सालों में बाल साहित्य में बड़ा बदलाव देखने को मिला है. अब बच्चों के लिए न सिर्फ नैतिक शिक्षा देने वाली और शिक्षाप्रद कहानियां लिखी जा रही हैं बल्कि पर्यावरण, विज्ञान जैसे जटिल मसलों को भी सरल तरीके से सामने रखा जा रहा है जिन्हें जानना और समझना बच्चों के लिए जरूरी है.

यही कारण है कि अब बच्चों, पैरेंट्स और सीधे बाल साहित्य के लेखकों से रुबरु करवाने के लिए लिटरेचर फेस्टिवल्स का आयोजन किया जाने लगा है. इसमें एक महत्वपूर्ण फेस्टिवल साल 2017 से बेंगलुरु में होने वाला नीव लिटरेचर फेस्टिवल (Neev Literature Festival) है. इस साल इसके छठें संस्करण का आयोजन किया गया.

25 सितंबर को समाप्त हुए इस लिटरेचर फेस्टिवल में 3000 से अधिक बच्चे, पैरेंट्स और लेखक शामिल हुए थे. इस कार्यक्रम में देश और दुनिया के 60 से अधिक लेखक, चित्रकार, पब्लिशर और लाइब्रेरियन शामिल हुए.

कार्यक्रम से इतर बाल साहित्य के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित 65 वर्षीय लेखिका पारो आनंद, विज्ञान, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों पर फिक्शन लिखने वालीं बिजल वछरजानी और डॉक्यूमेंट्री मेकर समीना मिश्रा और नीव लिटरेचर फेस्टिवल की फाउंडर कविता गुप्ता सभरवाल से YourStory ने बात की.

भारत में बाल साहित्य को लंबी दूरी तय करनी है

1980 से ही टीनएजर्स और यंगस्टर्स के लिए लेखन करने वाली पारो आनंद अब तक 3 लाख से अधिक बच्चों के साथ काम कर चुकी हैं. वह आदिवासी, कश्मीर में संघर्ष में बड़े हुए बच्चे, गरीब, विशेष सहायता की जरूरत वाले बच्चों के लिए काम करती हैं. बच्चों के लिए शॉर्ट स्टोरीज से जुड़ी उनकी किताब 'वाइल्ड चाइल्ड' (Wild Child) के लिए उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला है.

Yourstory से बात करते हुए पारो आनंद कहती हैं, ‘बाल साहित्य की बात करें तो 1980 में जब मैंने लिखना शुरू किया तब की तुलना में आज बहुत अच्छी प्रगति हुई है. हालांकि, आज भी भारत में बाल साहित्य को लंबी दूरी तय करनी है. सिर्फ बच्चों तक किताबें पहुंचाने की ही बात नहीं है बल्कि अलग-अलग रीजनल भाषाओं में किताबें आनी चाहिए. अखबारों और टेलीविजन में बाल साहित्य की समीक्षा के लिए कोई जगह नहीं हैं. बुक लॉन्चिंग और मार्केटिंग के लिए भी कोई जगह नहीं हैं.

आनंद कहती हैं कि उन्होंने शुरुआती सालों से ही बाल साहित्य लिखना शुरू कर दिया था. हालांकि, उस समय पब्लिशर्स की मांग केवल लोक कथाओं जैसी कहानियों को होती थी जबकि वह नए विषयों पर लिखती थीं.

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वह कहती हैं कि इसके बाद मैंने स्कूलों में बच्चों के साथ काम करना शुरू किया. नेशनल बुक ट्रस्ट (NBT) के तहत आने वाले राष्ट्रीय बाल साहित्य केंद्र में संपादिका बनने पर गांव-गांव में जाकर कभी किताब नहीं देखने वाले बच्चों तक भी सिलेबस के बाहर की किताबें पहुंचाई. बाद में हमने एक संस्था के सहयोग से अपनी कहानी सुनाने की चाह रखने वाले बच्चों को जोड़ना शुरू किया और इसके साथ ही हम नॉन-सिलेबस बुक्स पढ़ाने के लिए टीचर्स को ट्रेनिंग देना भी शुरू किया.

वह बच्चों के लिए लाइब्रेरी की आवश्यकता पर अधिक जोर देती हैं. आनंद कहती हैं कि पब्लिक लाइब्रेरीज बहुत ही कम हैं. वहीं, जहां लाइब्रेरियां हैं, वहां लाइब्रेरियन का मुख्य काम बच्चों को किताबों से दूर रखना होता है.

वह कहती हैं कि नीव जैसे बाल साहित्य पर फोकस लिटरेचर फेस्टिवल कई जगहों पर अब शुरू हो गए हैं. हालांकि, ऐसे फेस्टिवल्स को मेनस्ट्रीम में लाना बहुत जरूरी है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में बाल साहित्य को शामिल करवाने के लिए मैंने बहुत लड़ाई लड़ी है.

वाइल्ड चाइल्ड के अलावा पारो आनंद की बाल साहित्य से जुड़ी अन्य किताबों में ‘दिल में बच्चा है जी’, रुरु (RuRu), अपनी जमीन से पलायन के लिए मजबूर होने वाली एक कश्मीरी पंडित और एक आदिवासी लड़की की कहानी 'Nomad's Land', कोविड-19 पर आधारित 'अनमास्क्ड' (Unmasked), 1984 के दंगों पर आधारित 'बीइंग गांधी' हैं.

अगली पीढ़ी को पर्यावरण को लेकर बदलाव लाना है

प्रथम बुक्स के साथ कमिशनिंग एडिटर के तौर पर काम करने वालीं बिजल वछरजानी पेपर बुक्स पर काम करने के साथ पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर बच्चों के लिए किताबें लिखती हैं.

बिजल कहती हैं कि मुझे किताबों से बहुत लगाव है. मैंने अपनी पहली किताब ‘सो यू वान्ट टू नो अबाउट एन्वायरमेंट’ लिखी थी. इसके बाद से मैंने जलवायु परिवर्तन और नेचर को लेकर फिक्शन बुक्स लिख रही हूं क्योंकि मुझे विश्वास है कि हमारी अगली पीढ़ी को पर्यावरण को लेकर बदलाव लाना है और मैं चाहती हूं कि इन किताबों के जरिए चर्चा हो.

नीव लिटरेचर फेस्टिवल में कार्यक्रम के दौरान बच्चे पर्यावरण को हो रहे नुकसान को लेकर काफी चिंता जता रहे थे. वे पर्यावरण को हो रहे नुकसान के लिए कदम उठाने की मांग कर रहे थे. वे स्कूल पैदल या साइकिल से जाने और प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करने की बात कर रहे थे.

वह साइंस और पर्यावरण से जुड़ी किताबों को बच्चों के लिए फिक्शन में लाने पर जोर देती हैं. वह कहती हैं कि इससे बच्चों की न सिर्फ जानकारी बढ़ती है बल्कि उनकी इमैजिनेशन भी बढ़ती है.

अपनी किताबों के बारे बात करते हुए बिजल कहती हैं कि नीव में उनकी एक किताब ‘दैट नाइट’ शॉर्टलिस्ट हुई थी. यह हिंसा में बच्चों के फंसने के बारे में है और पैरेंट्स, एजुकेशटर्स और सोसायटी से उस पर चर्चा की मांग करती है. वहीं, दूसरी किताब सवी द मेमोरी कीपर, इंसानों और पर्यावरण के संबंध पर आधारित है जिसमें हम सवी नाम की एक बच्ची के निजी नुकसान और पर्यावरण को लेकर हमारे कलेक्टिव नुकसान के बारे में बात करते हैं.

स्कूली बच्चों को क्यों पड़ रही हैप्पीनेस क्लासेज की जरूरत?

बाल साहित्य लिखने वाली समीना मिश्रा डॉक्यूमेंट्री मेकर और फिल्म टीचर भी हैं. उन्होंने दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हैप्पीनेस क्लासेज को लेकर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है. दिल्ली सरकार ने 2 जुलाई, 2018 को दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हैप्पीनेस क्लासेज की शुरुआत की थी. इसका उद्घाटन आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा ने किया था.

समीना बताती हैं कि डॉक्यूमेंट्री तीन सरकारी स्कूलों पर आधारित है. इसके अलावा कई बच्चों के घरों पर जाकर भी हमने शूटिंग की है. इसका मुख्य उद्देश्य यह जानना था कि दुनिया को हम एक ऐसी स्थिति में क्यों लेकर आ गए हैं, जहां पर हमें बच्चों के लिए अलग से हैप्पीनेस क्लासेज की जरूरत पड़ने लगी है. शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों का सर्वांगीण विकास होता है जिसमें हैप्पीनेस हासिल करना एक प्रमुख उद्देश्य होता है.

कोविड-19 महामारी के दौरान लॉकडाउन लगने के बाद समीना ने एक वर्चुअल आर्ट एंड चाइल्डहुड प्रोजेक्ट की शुरुआत की. इसमें बच्चों के प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए 24 घंटे का समय दिया जाता है. इसे उन्होंने 'मैजिक की सेंटर' (Magic Key Centre) नाम दिया है. इसका उद्देश्य आर्ट को पेडागॉजी (पढ़ाने के तरीके) से जोड़ना है.

बच्चों की रीडिंग हैबिट को बढ़ाना जरूरी

नीव लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत कविता गुप्ता सभरवाल ने अपने पति के साथ मिलकर की है. वह बेंगलुरू में एक क्लास 12 तक की स्कूल और पांच प्री-स्कूल्स भी चलाती हैं. उन्हें रीडिंग में काफी रूचि है लेकिन उन्होंने देखा कि आजकल के बच्चे रीडिंग में ज्यादा रूचि नहीं रखते हैं. लोग भी बच्चों के पढ़ने पर बहुत फोकस नहीं करते हैं.

कविता कहती हैं कि हमारा एजुकेशन सिस्टम पढ़ने के बजाय लिखने पर ज्यादा फोकस करता है. हालांकि, दुनियाभर में देखा गया है कि बच्चे की रीडिंग हैबिट जितनी बढ़ती है, उतनी ही उसकी राइटिंग स्किल भी निखरती है. पढ़ने में बच्चे की स्किल्स सेट होने के बाद उसका पढ़ने में लगने वाला समय कम हो सकता है और लिखावट में उतनी ही तेजी आ सकती है.

उन्होंने कहा कि जयपुर और बेंगलुरु लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत के बाद एडल्ट्स में नए तरीके से रीडिंग को लेकर रूचि जागी है. हालांकि, एडल्ट्स की तरह बच्चों की रीडिंग पर उस तरह का फोकस नहीं था. वहां बाल साहित्य केवल साइडशो या एंटरटेनमेंट के लिए था.

कविता बताती हैं कि हमने बच्चों की रीडिंग पर गंभीरता से चर्चा करने के लिए साल 2017 में नीव लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत की. इसका मॉडल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर आधारित है. इसे हमने अपनी निजी फंडिंग के साथ शुरू किया है.

उन्होंने आगे कहा कि अमर चित्र कथा, चंपक और कॉमिक्स तो बच्चों के लिए लंबे समय से मौजूद थे लेकिन बच्चों को ध्यान में रखकर गंभीर विषयों पर लेखन आज से 20 साल पहले हमें शायद ही देखने को मिलेगा. पिछले 15 सालों में इसकी शुरुआत हुई है और अब यह तेजी से बढ़ रहा है. संघर्ष, हिंसा, पर्यावरण, प्रदूषण जैसे विषयों पर बच्चों को रोचक तरीके से जागरुक करने का पूरा सिलसिला 2005-06 से शुरू हुआ है.

बाल साहित्य में बड़े बदलाव न हो पाने की एक वजह कविता लेखकों को मिलने वाले कम पैसों को बताती हैं. वह कहती हैं कि फुल टाइम लेखक बनना कभी भी आसान नहीं था क्योंकि पब्लिशर्स लेखकों को कम पैसे देते हैं. अधिकतर लेखक किसी अन्य प्रोफेशन के साथ इस काम को जारी रख पाते हैं. उन्हें बढ़ावा देने के लिए बड़े निवेश की जरूरत है.