कम हो रही जानलेवा सल्फर डाइऑक्साइड के बढ़ने की रफ्तार, प्रदूषण नियमों में और सख्ती की जरूरत
एक हालिया शोध के मुताबिक वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड (एसओटू) की मात्रा हाल के दशक (2010-2020) में उस रफ्तार से नहीं बढ़ी जितनी रफ्तार से पहले बढ़ रही थी. वर्ष 2000-2010 के बीच एसओटू के बढ़ने की रफ्तार काफी अधिक थी.
Sahana Ghosh
Saturday September 24, 2022 , 10 min Read
वायु प्रदूषण की समस्या देश में साल-दर-साल बढ़ती ही जा रही है. इस बीच राहत की एक खबर भी आई है. एक शोध के मुताबिक स्वास्थ्य और जलवायु पर गंभीर प्रभाव छोड़ने वाला सल्फर डाइऑक्साइड (एसओटू) के बढ़ने की रफ्तार में कमी आ रही है. पर्यावरण नियमों और प्रदूषण नियंत्रण की कोशिशों का नतीजा दिखने लगा है और पिछले दशकों की तुलना में हाल के दशक (2010-2020) भारत में एसओटू प्रदूषण की रफ्तार कम हुई है. हालांकि, वातावरण में इसकी मात्रा अभी भी अधिक है और यह एक चिंता का विषय है.
“भले ही बढ़ने की रफ्तार में कमी आई हो, लेकिन वातावरण में एसओटू की मात्रा अभी भी अधिक है. इस मात्रा में कमी के लिए हमें और भी उपाय करने होंगे. हालांकि, अब तक जो उपाय किए गए हैं उसके सकारात्मक परिणाम दिख रहे हैं,” अध्ययन के प्रमुख लेखक और जलवायु वैज्ञानिक जयनारायणन कुट्टीपुरथ ने मोंगाबे-इंडिया को बताया.
“हमारे विश्लेषण में हमने पाया है कि प्रदूषण कम करने की नई तकनीक और पर्यावरण नियमों की वजह से एसओटू के बढ़ने की रफ्तार कम हुई है. यह सकारात्मक बात है और सरकार को ऐसे उपायों को जारी रखना चाहिए,” आईआईटी के महासागर, नदी, वायुमंडल और भूमि विज्ञान केंद्र (कोरल) में कार्यरत कुट्टीपुरथ ने कहा.
वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि ऊर्जा क्षेत्र, लौह और इस्पात उद्योगों, रिफाइनरियों और अन्य ईंधन-मांग वाले क्षेत्रों में नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल कर पारंपरिक ईंधन आधारित उत्पादन (कोयला) को कम किया जा सकता है. इससे एसओटू उत्सर्जन को कम करने में मदद मिलेगी. वैज्ञानिक सुझाव देते हैं कि भारत में आने वाले समय में एसओटू उत्सर्जकों की सूची बनाकर भविष्य की नीतियों पर काम करना चाहिए. प्रदूषकों के स्रोत की पहचान करने और नियंत्रण के नियमों को लागू करने के लिए ऐसी सूची महत्वपूर्ण है.
सल्फर डाइऑक्साइड एक वायु प्रदूषक है और अधिक आर्द्रता वाली परिस्थितियों में यह सल्फेट एरोसोल (सल्फेट धूलकण) में परिवर्तित हो जाता है. इससे सूरज की किरण का विकिरण होता है और इसके फलस्वरूप क्षेत्रीय जलवायु पर असर हो सकता है. यह असर पृथ्वी के गर्म होने में और वर्षा का कारण बन सकता है.
“इसके अतिरिक्त, एसओटू विजिबलिटी को भी कम करता है और अम्लीय वर्षा में योगदान देता है. अम्लीय वर्षा से जलीय और स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र, और स्मारकों (जैसे ताजमहल) को नुकसान पहुंचता है. इसलिए, उच्च मात्रा में एसओटू वायु की गुणवत्ता, पारिस्थितिकी तंत्र, धुंध निर्माण, वर्षा, और क्षेत्रीय जलवायु को प्रभावित करता है,” कुट्टीपुरथ ने कहा.
अध्ययन में कहा गया है कि एसओटू का मानव श्वसन प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. यहां तक कि उच्च स्तर पर कम समय के लिए भी एसओटू की मात्रा से मृत्यु हो सकती है. डब्ल्यूएचओ वायु गुणवत्ता दिशानिर्देशों (विश्व स्वास्थ्य संगठन 2021) के अनुसार, मानव स्वास्थ्य के लिए 24 घंटे औसत एसओटू की 40 µg/m3 (माइक्रोग्राम / एम3) से अधिक मात्रा नहीं होनी चाहिए.
इस अध्ययन में 1980 से 2020 तक भारत में एसओटू की एकाग्रता को लंबे समय में हुए परिवर्तनों के आधार पर विश्लेषण किया गया है. अध्ययनकर्ताओं ने 1980 से 2010 तक एसओटू उत्सर्जन में निरंतर वृद्धि देखी. यही समय था जब देश में औद्योगिक विकास और शहरीकरण की बढ़ती जरूरत के हिसाब से ऊर्जा की मांग भी बढ़ रही थी.
“अस्थायी विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में एसओटू की मात्रा 1980 और 2010 के बीच अधिक कोयला जलने और इस अवधि के दौरान उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए नई तकनीक की कमी के कारण बढ़ी है. हालांकि, एसओटू हाल के दशक (2010–2020) में पर्यावरणीय नियमों और कई प्रभावी नियंत्रण तकनीकों के कार्यान्वयन के कारण घट रही है ” लेखक ने शोधपत्र में लिखा.
“हमने पिछले दशकों का तुलनात्मक अध्ययन किया कि एसओटू के बढ़ने की रफ्तार क्या है. 2000-2010 की तुलना में 2010-2020 में लगभग 50-60% की कमी देखी गयी. हालांकि, पिछले दशकों की तुलना में वातावरण में एसओटू की एकाग्रता (कंसंट्रेशन) अभी भी अधिक है. यह चिंता का विषय है,” कुट्टीपुरथ ने कहा.
अध्ययन के अनुसार, भारत में गंगा के मैदान, मध्य और पूर्वी भारत एसओटू प्रदूषण के हॉटस्पॉट हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में थर्मल पावर प्लांट, पेट्रोलियम रिफाइनरी, स्टील निर्माण इकाइयां और सीमेंट उद्योग हैं. इन हॉटस्पॉट में ग्रामीण क्षेत्र शामिल हैं.
ग्रीनपीस द्वारा 2019 के विश्लेषण के अनुसार, भारत को दुनिया में सबसे बड़ा एसओटू उत्सर्जक माना जाता है.
2017 में किया गया एक अन्य शोध भी कुछ इसी तरह के आंकड़े पेश करता है. इसके मुताबिक भारत ने चीन को पीछे छोड़ते हुए मानवजनित सल्फर डाइऑक्साइड के दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक बन गया है.
“2007 के बाद से, चीन में उत्सर्जन में 75% की गिरावट आई है जबकि भारत में 50% की वृद्धि हुई है. इन परिवर्तनों के साथ, भारत अब मानवजनित एसओटू के दुनिया के सबसे बड़े उत्सर्जक के रूप में चीन को पीछे छोड़ रहा है,” शोध में कहा गया.
कुट्टीपुरथ के नवीनतम विश्लेषण के अनुसार, कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट (51%) और निर्माण उद्योग (29%) एसओटू के भारत के प्रमुख स्रोत हैं. बायोमास जलाने, रासायनिक और उर्वरक उद्योग और पेट्रोलियम उद्योग भी एसओटू प्रदूषण में योगदान करते हैं. भारत में एसओटू के बोझ में बायोमास जलने का योगदान एक प्रतिशत से भी कम है. विश्लेषण से पता चलता है कि सर्दियों में एसओटू की मात्रा अधिक होती है और प्री-मानसून में कम हो जाती है.
विश्लेषण के रुझानों से पता चलता है कि दो प्राथमिक स्रोतों (कोयला आधारित बिजली संयंत्रों और विनिर्माण और निर्माण उद्योग) से उत्सर्जन पिछले दशक (2000-2010) में पिछले दशकों की तुलना में अधिक है. लेकिन पिछले दशक में परिवहन, रासायनिक उद्योग और बायोमास जलने जैसे अन्य स्रोतों से उत्सर्जन में कमी आई है.
“वाहन उत्सर्जन पर भारत स्टेज (जैसे बीएस VI) मानदंडों को लागू करने, स्क्रबर और एफजीडी तकनीक का उपयोग करने की वजह से बिजली संयंत्र में एसओटू का उत्सर्जन कम हो सकता है. बिजली के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत का रुख करना भी एसओटू उत्सर्जन में गिरावट के कारण हो सकते हैं,“ कुट्टीपुरथ ने कहा.
“भारत में अधिकांश कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट बिटुमिनस या सब-बिटुमिनस कोयले या लिग्नाइट का उपयोग करते हैं, जिसमें वजन के हिसाब से 0.7% सल्फर होता है. काला कोयला या बिटुमिनस कोयला अपेक्षाकृत नरम कोयला होता है जिसमें तारकोल जैसा पदार्थ होता है जिसे बिटुमेन या डामर कहा जाता है. इसके अलावा, भारतीय कोयले (गोंडवाना कोयला) में बहुत अधिक राख (35-45%) होती है और इसका कैलोरिफिक वैल्यू (यानी ऊर्जा पैदा करने की क्षमता) कम होता है. इसलिए, कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों को प्रदूषण के मानकों का पालन करना चाहिए. उदाहरण के लिए, मौजूदा कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों को एफजीडी और स्क्रबर सिस्टम स्थापित करना अनिवार्य होने से एसओटू प्रदूषण कम कर सकता है, ” शोध के लेखकों ने कहा.
लेकिन बड़ी संख्या में कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों ने अभी तक एफजीडी प्रणाली नहीं लगाया है. इस तकनीक का उपयोग एसओटू को हटाने के लिए किया जाता है.
एफजीडी लगाने में लेटलतीफी
2015 में, भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सल्फर एसओटू उत्सर्जन के मानकों सहित अन्य प्रदूषण कम करने के लिए कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों के लिए मानक जारी किए थे. मंत्रालय ने सल्फर डाइऑक्साइड पर लगाम लगाने के लिए प्रदूषण नियंत्रण रेट्रोफिट, विशेष रूप से एफजीडी सिस्टम स्थापित करने के लिए आवश्यक लगभग 166 गीगावॉट क्षमता वाले संयंत्रों की पहचान की.
हालांकि, ज्यादातर बिजली संयंत्र एफजीडी स्थापित करने के लिए दिसंबर 2017 की प्रारंभिक समय सीमा से चूक गए और इसे जून 2022 तक बढ़ा दिया गया. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, केवल 20 बिजली संयंत्रों ने एफजीडी स्थापित किया है. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने लोकसभा में कहा, “नवीनतम स्थिति के अनुसार, 16 इकाइयां वेट एफजीडी पर हैं और चार इकाइयां कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट से ग्रिप गैस के डी-सल्फराइजेशन के लिए स्थापित डीएसआई तकनीक पर हैं.”
भारत में कुल 267 कोयला आधारित बिजली संयंत्र हैं.
भारत के ऊर्जा मंत्रालय ने हाल ही में पर्यावरण मंत्रालय को एक पत्र लिखा और थर्मल पावर प्लांट के लिए एफजीडी स्थापित करने के लिए दो साल का और समय मांगा है.
5 सितंबर, 2022 को जारी एक अधिसूचना में पर्यावरण मंत्रालय ने फिर से सल्फर डाइऑक्साइड मानदंडों को पूरा करने की समयसीमा 31 दिसंबर, 2027 तक बढ़ा दी.
“यह बिल्कुल स्पष्ट है कि पर्यावरण मंत्रालय और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने उत्सर्जन मानदंडों को सख्ती से लागू करने के बजाय, प्रदूषण फैलाने वाले थर्मल पावर प्लांट्स (टीपीपी) को बचाने के लिए कानूनों में संशोधन करके समय सीमा बढ़ा रहे हैं,” कानूनी विश्लेषक देबदित्य सिन्हा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया.
विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सिन्हा, एक स्वतंत्र कानूनी शोधकर्ता है. वह कहते हैं कि हालांकि केंद्र के स्वामित्व वाले और निजी स्वामित्व वाले टीपीपी में एफजीडी स्थापित करने में कुछ प्रगति हुई है, लेकिन राज्य के स्वामित्व वाले टीपीपी ने शायद ही इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति की है.
हालांकि, देश में कुछ ऐसे भी पावर प्लांट हैं जो नई तकनीक स्थापित कर प्रदूषण पर काबू पाने की कोशिश में हैं.
2018 में, नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन के दादरी पावर प्लांट ने 2015 के मानदंडों का पालन करते हुए एसओटू कम करने के लिए ड्राई सॉर्बेंट इंजेक्शन (डीएसआई) सिस्टम स्थापित किया. सामान्य प्रदूषकों को हटाने के लिए डीएसआई सिस्टम सूखे क्षारीय सॉर्बेंट्स को ग्रिप गैस में इंजेक्ट करते हैं. ग्रिप गैस एक बिजली संयंत्र से निकलने वाला गैस है.
एफजीडी की स्थापना में देरी की एक बड़ी वजह इस पर होने वाला बड़ा निवेश भी है.
दिल्ली स्थित एक गैर-लाभकारी, ऊर्जा पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) ने पाया कि 35 गीगावाट में से केवल 1.5 गीगावाट उत्सर्जन मानदंडों का पालन कर रहे हैं. इसमें ग्रिप गैस डिसल्फराइज़र सिस्टम स्थापित किया गया है. एसओएक्स (सल्फर ऑक्साइड सहित अन्य गैस) उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए 14,300 करोड़ रुपये खर्च का अनुमान है.
सेंटर फॉर साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (सी-एसटीईपी) के एक अन्य अध्ययन में बताया गया है कि उत्सर्जन मानकों का पालन करने के लिए, “बिजली उत्पादकों को 2030 तक लगभग 80% के लिए प्रति मेगावाट 0.5-1 करोड़ का निवेश करना होगा.” इसका अर्थ है अगले 15 वर्षों में प्रदूषण नियंत्रण उपकरण के लिए लगभग 2,50,000 करोड़ की लागत आएगी.
सी-एसटीईपी अध्ययन से यह भी पता चलता है कि भारत में अब से 2030 के बीच उत्सर्जन मानदंडों का पालन न करने से 300,000-320,000 अकाल मृत्यु और 5.1 करोड़ लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ सकता है.
कुट्टीपुरथ का कहना है कि भारत को जलवायु कार्रवाई लक्ष्य यानी ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए पेरिस समझौता का पालन करना है. इसके लिए ऊर्जा के लिए कोयले पर निर्भरता को कम करना जरूरी है. इससे सल्फर डाइऑक्साइड के उत्सर्जन पर अंकुश लगेगा.
राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान के अनुसार, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी के लिए भारत 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 45 प्रतिशत तक कम करेगा. इसके लिए 2030 तक बिजली की जरूरत का 50 फीसदी हिस्सा गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संयंत्रों (नवीकरणीय ऊर्जा) से आएगा.
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: साबरमती नदी किनारे स्थित थर्मल पावर स्टेशन. तस्वीर – कोशी/विकिमीडिया कॉमन्स