जलवायु संरक्षण- 4: दुनिया भर की महिलाएं और छात्राएं क्लाइमेंट चेंज के खिलाफ जारी जंग में कूदीं
जलवायु आपदा ने पूरी दुनिया को नाजुक मोड़ पर पहुंचा दिया है। धधकते जंगलों की राख सूरज की किरणें सोखकर ग्लेशियरों को आग का गोला बना रही है। दिल्ली में वायु प्रदूषण एक साल में आठ लोगों की जान ले चुका है। अब भारत समेत दुनिया भर की महिलाएं और छात्राएं भी क्लाइमेंट चेंज के खिलाफ जारी जंग में कूद पड़ी हैं।
जलवायु आपदा तेजी से दुनिया को घेर रही है। अकेले दिल्ली में तीन साल पहले वायु प्रदूषण से आठ लाख लोगों की मौत हो चुकी है। क्लाइमेंट चेंज के खिलाफ जारी जंग में इस समय पूरे विश्व की जागरूक महिलाएं बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं। सिएटल के रिसर्च लैब द एलन इंस्टीट्यूट फॉर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के शोधकर्ताओं के मुताबिक, कम्प्यूटर साइंस के क्षेत्र में पुरुषों के बराबर रिसर्च पेपर्स प्रकाशित कराने में महिलाओं को भले एक सदी का वक्त लगे लेकिन जलवायु आपदा से मुठभेड़ में वे किसी से पीछे नहीं हैं। तभी तो यूएन में ग्रेटा ने पूरे विश्व समुदाय को खुलेआम ललकारा है, तभी तो न्यू जर्सी की अरुषि अग्रवाल को संयुक्त राष्ट्र के यूथ क्लाइमेट समिट में हिस्सा लेने के लिए चुना गया।
महिला किसान अधिकार मंच की सदस्य डॉ. सोमा किशोर पार्थसारथी कहती हैं कि विश्व में बढ़ रहे मरुस्थलीकरण के पीछे की एक वजह लैंगिक असमानता भी है, तभी तो ब्रिटेन में महिलाओं के एक ग्रुप ने अब बच्चे पैदा नहीं करने का फैसला लिया है, तभी तो पुणे के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटिरोलॉजी की वैज्ञानिक अस्मिता देव अपने रिसर्च में बता रही हैं कि जलवायु परिवर्तन महिलाओं के नेतृत्व वाले घरों को असमान रूप से प्रभावित कर रहा है, और तभी तो क्लीन ऐंड स्मार्ट पलवल असोसिएशन की अध्यक्ष एवं इंटीरियर डिजाइनर नमिता तायल पर्यावरण जागरूकता के लिए रोजाना साइकिल से घूम-घूमकर लोगों को पेपर और कपड़े के थैले बांट रही हैं।
इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्ट की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के सर्वाधिक वायु प्रदूषित शहरों में राजधानी दिल्ली छठवें नंबर पर, चीन का गुआंगझो पहले नंबर पर, टोक्यो दूसरे, शंघाई तीसरे, मैक्सिको चौथे, काहिरा (मिस्र) पाँचवें, मास्को सातवें, बीजिंग आठवें, लंदन नौवें और लॉस एंजेल्स दसवें नंबर पर है।
याद करिए कि तीन साल पहले तक दिल्ली में प्रदूषण से आठ लाख लोगों की मौत हो चुकी है, जिनमें 74 हजार मौतें वाहनों के प्रदूषण से हुईं। तरह तरह की जलवायु आपदा के बीच विश्व के करीब 20 देशों में 80 फीसदी मौतें, जबकि चीन, भारत, यूरोपियन यूनियन और ब्रिटेन में 70 प्रतिशत मौतें वाहन प्रदूषण से हो रही हैं।
डॉ. सोमा कहती हैं कि भूक्षरण, मरुस्थलीकरण, सूखे आदि के लिए योजनाएं तैयार करने में महिलाओं की भी भूमिका बढ़नी चाहिए। किसी भी जगह अगर अकाल पड़ता है तो उसकी सबसे अधिक मार महिलाओं पर पड़ती है। इसलिए जलवायु आपदा से निपटने के लिए कमेटियां बनाकर उनमें महिलाओं की सहभागिता बढ़ानी होगी। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के यूथ क्लाइमेटसमिट में न्यू जर्सी की डब्ल्यूडब्ल्यूपी एचएसएस की द्वितीय वर्ष की छात्रा, रोबोटिक्स टीम की निदेशक एवं अननोन16डॉट कॉम की संस्थापिका अरुषि अग्रवाल जलवायु संकट से मुकाबले के लिए युवा शक्ति को जोड़ने में जुटी हैं।
आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के महत्व को ध्यान में रखते हुए लंदन (ब्रिटेन) की महिलाओं के 'बर्थस्ट्राइक' ग्रुप की सदस्य संगीतकार ब्लाइथे पेपीनो कहती हैं कि सूखा, अकाल, बाढ़, ग्लोबल वार्मिंग के डर और यूनाइटेड नेशंस इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की चेतावनी के बाद से वह बच्चे नहीं, अपने पार्टनर से परिवार चाहती हैं क्योंकि यह दुनिया अब बच्चों के रहने लायक नहीं रह गई है। यह वक़्त किसी के जीवन से खिलवाड़ करने की इजाजत नहीं देता है। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए 11 साल बचे हैं। आबादी बढ़ने से कार्बन उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है। एक व्यक्ति एक साल में औसत पांच टन कार्बन-डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कर रहा है। इस तरह तो आने वाले समय में लोगों को चार से छह पृथ्वी की जरूरत पड़ेगी।
पुणे की वैज्ञानिक अस्मिता देव अपने एक रिसर्च में इस इस निष्कर्ष पर पहुंची हैं कि उत्तर भारतीय महासागर में चक्रवाती गतिविधियां बढ़ रही हैं। जलवायु परिवर्तन से उनकी आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि के साथ ही पानी, फसल, भूमि, लवणता, नदी कटाव आदि में भी लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। उनकी रिसर्च की सबसे खास बात यह है कि यह जलवायु परिवर्तन महिलाओं के नेतृत्व वाले घरों को असमान रूप से प्रभावित कर रहा है। इस दौरान मुंगेर (बिहार) में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ा चुकीं 21,116 'जीविका दीदियां' अपने घरों के आगे एक-एक पौधा लगा रही हैं। गांवों में घूम-घूम कर अन्य महिलाओं को भी पौधारोपण के लिए प्रेरित कर रही हैं। वे अब तक दो हजार पौधे लगा चुकी हैं।
उल्लेखनीय है कि आज से 289 साल पहले अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से 21 सितम्बर 1730 को जोधपुर (राजस्थान) के एक किसान परिवार की सामान्य महिला अमृता देवी विश्नोई ने यह कहकर अपने दरवाजे के सामने खड़े खेजडली का पेड़ काटने से राजा के मंत्री को रोक दिया था कि 'पेड़ को हम राखी बांधते हैं, ये हमारे घर के सदस्य हैं, इसे नहीं काटने देंगे। पेड़ के बदले अगर सिर कटाना पड़े तो मंजूर है।'
पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से एक और ऐसा ही सुखद वाकया उत्तराखंड की प्रकृति प्रेमी महिलाओं का है। विश्व प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी ने अपने गांव की महिलाओं की पलटन (महिला मंगलदल) बनाकर वन निगम के ठेकेदारों को पहाड़ों के पेड़ काटने से, यह कहकर रोक दिया था कि 'हमारे पेड़ हमारे भगवान हैं। जंगल हमारे मैत (मायका) हैं।' उससे पहले गौरादेवी ने ही वनों को बचाने के लिए 1974 में विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन की शुरुआत की थी।
इन दिनो दिल्ली से सटे पलवल (हरियाणा) की इंटीरियर डिजाइनर नमिता तायल हर सुबह साइकिल से लोगों को जलवायु आपदा के प्रति जागरूक करने निकल पड़ती हैं। वह रोजाना 15 किलोमीटर सफर करती हैं। इस दौरान लोगों को पर्यावरण संरक्षण की सीख देने के साथ ही लोगों को कागज-कपड़े के थैले बांटती हैं। वह महिलाओं को कागज-कपड़े के थैलों के रोजगार के साथ भी जोड़ रही हैं। उनके 'क्लीन ऐंड स्मार्ट पलवल असोसिएशन' में अब तक सैकड़ों महिलाएं और पुरुष जुड़ चुके हैं। वह चंदे के पैसे से जूट, कपड़े, कागज आदि कच्चे माल जुटाकर गरीब महिलाओं को बैग बनाने के लिए दे देती हैं। इससे अब तक पचास महिलाओं को रोजगार मिल चुका है। इसके साथ ही वह पर्यावरण, स्वच्छता, पौधरोपण के लिए भी लोगों को अपने इलाके में साइकिल से घूम-घूमकर जगा रही हैं।