मोटे अनाज की खेती से बदल रही ओडिशा की आदिवासी महिलाओं की जिंदगी
ओडिशा राज्य में ओडिशा मिलेट मिशन के तहत बड़े पैमाने पर मोटे अनाज को पुनर्जीवित किया जा रहा है. मिलेट शुष्क क्षेत्रों में वर्षा आधारित कम कीमत वाली फसल के रूप में जाना जाता है.
30 साल की कल्पना सेठी अपनी दो एकड़ जमीन को उत्साह से दिखाती हैं, यह जमीन कभी एक बंजर भूमि थी लेकिन अब यह जमीन उनके बच्चों की शिक्षा में मदद कर रही है. ओडिशा में मयूरभंज जिले के बिसोई गांव में ढलान पर स्थित इस जमीन का इस्तेमाल दो साल पहले तक मवेशियों के चरने के लिए किया जाता था. सेठी अब एक मोटे अनाज की खेती करने की तैयारी कर रही हैं. मोटा अनाज राज्य की पारंपरिक देसी फसल का हिस्सा रहा है जिसे एक लंबे अरसे तक भुला दिया गया था. अब राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में, प्रमुख कार्यक्रम ‘ओडिशा मिलेट्स मिशन (ओएमएम)’ के तहत 2017 इसे पुनर्जीवित किया जा रहा है. इस मोटे अनाज में विभिन्न किस्मों की खेती की जा रही है जिनमें रागी, फॉक्सटेल, ज्वार, कोदो और कई अनाज शामिल हैं. इन किस्मों में कुल खेती का 86 प्रतिशत से अधिक रागी की खेती होती है.
अब तक, 19 जिलों में 1.2 लाख से अधिक किसानों के 52,000 हेक्टेयर पर मोटे अनाज को पुनर्जीवित किया जा रहा है. इन जिलों में मयुरभंज भी एक जिला है. 2011 की जनगणना के अनुसार, यह ओडिशा का तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला जिला है. इस जिले के 58 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र पर ओडिशा की सबसे अधिक जनजातीय आबादी है.
पिछले तीन सालों के दौरान मयूरभंज में मिलेट की खेती का क्षेत्र 771.98 हेक्टेयर से बढ़कर 2022 में 1,690.5 हेक्टेयर हो गया है. साल 2021-22 में राज्य सरकार ने 3,415 क्विंटल मिलेट की खरीद की, जिससे मयूरभंज में किसानों को एक करोड़ पंद्रह लाख रुपये की आमदनी हुई.
मोटे अनाज की खेती महिला किसानों के लिए वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करती है.
हर साल, मोटे अनाज की खेती अपनाने वाली महिला किसानों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. मयूरभंज में 2019 से 2022 के बीच इसकी खेती में महिला किसानों की बढ़ी हुई भागीदारी 104 प्रतिशत तक दर्ज की गई है.
जबकि अधिकांश महिलाएं अपने पुरुष समकक्षों के साथ धान की खेती करती हैं, ज़्यादातर जगहों पर बाजरे की खेती पूरी तरह से महिलाएं कर रही हैं. इससे उन्हें एक स्वतंत्र आय और अपनी जोत को लेकर वित्तीय रूप से जागरूक होने में मदद मिलती है.
बिना किसी भी अन्य आर्थिक आधार के केवल इस अतिरिक्त आय से 30 वर्षीय सुनीता सेठी अपने 10 वर्षीय बेटे की शिक्षा के अलावा, खुद को शिक्षित कर रही हैं. इस विधवा महिला ने नए हुनर सीखने के लिए बैचलर ऑफ कंप्यूटर एप्लीकेशन (बीसीए) में एडमिशन लिया है. सुनीता कहती हैं, “यह दो कारणों से संभव हुआ, एक तो मेरे पास फीस देने के लिए अतिरिक्त पैसे थे, और दूसरा, चूंकि मोटे अनाज की खेती में अन्य फसलों की तरह समय नहीं लगता है, इसलिए मेरे पास नई चीजें सीखने के लिए बहुत खाली समय है. कंप्यूटर एप्लिकेशन सीखने से मुझे भविष्य में कई नौकरी के अवसर मिल सकते हैं.”
सुनीता अपनी 1.5 एकड़ जमीन पर तीन अलग-अलग किस्म की फसल उगाती हैं. पिछले सीजन में उसने चार क्विंटल उपज लगभग 3,579 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब बेचा था. दूसरी तरफ साथ-साथ वह धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य लगभग 2,068 रुपये लेती हैं. 2020 में, उन्होंने 250 ग्राम बीज से खेती की शुरुआत की और अब एक साल में 10 क्विंटल मिलेट का उत्पादन करती हैं.
महिलाएं अपनी उपज का एक हिस्सा स्थानीय बाजारों में भी बेचती हैं, जिससे उन्हें और भी अधिक कीमत, 50 रूपए प्रति किलोग्राम मिलता है.
कुदरसाही गांव में 32 वर्षीया सुमित्रा सेठी अपनी दो एकड़ जमीन पर बाजरे की खेती करती हैं, जिससे एक सीजन में पांच क्विंटल उत्पादन होता है. वह कहती हैं, “हम इसे न केवल बाज़ार में बेचते हैं, बल्कि सेहत के लिए तमाम फायदे को देखते हुए घर पर भी इसका सेवन करते हैं.” सुमित्रा ने बताया, “हम खेती से जो पैसा कमाते हैं, उसका प्रबंधन मेरे पति करते हैं. लेकिन चूंकि मैं स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) के अन्य सदस्यों के साथ रागी की खेती करती हूं, इसलिए मैं अपने पैसे का प्रबंधन खुद करती हूं. इससे मैं आर्थिक रूप से खुद को स्वतंत्रत महसूस करती हूं.”
महिला समूहों की मजबूती
मयूरभंज के जसीपुर प्रखंड के बडासियालिनी गांव में कभी निष्क्रिय पड़े महिलाओं के समूह स्वयं सहायता समूह को एक मकसद मिल गया है. 12 सदस्यीय समूह ने गांव में किराए की साझी जमीन पर बाजरे की खेती शुरू की. एसएचजी यानि सहायता समूह की शुरुआत 2001 में की गई थी. उन्होंने सामूहिक ऋण लिया और आंगनवाड़ी केंद्रों में भोजन उपलब्ध कराया, लेकिन किसी भी लाभकारी गतिविधियों में शामिल नहीं हुईं.
अब, वे अपनी उपज को पाउडर के रूप में प्रोसेस करके पैक करके इसे विभिन्न स्थानों पर बेचती हैं, जिससे उन्हें आय होती है.
40 वर्षीय रानी नायक कहती हैं, “हमने रागी के पाउडर के लिए एक छोटी प्रसंस्करण इकाई स्थापित की है, हम उन्हें पैक करते हैं और स्थानीय बाज़ार में बेचते हैं. अब कुकीज़ और अन्य व्यंजनों को जिन्हें तैयार करके पैक किया जा सकता है और बेचा जा सकता है, उनके बारे में हम लोग प्रशिक्षण ले रहे हैं.”
शुरूआती जुड़ाव और आवश्यक मशीनरी मिलने से स्वयं सहायता समूह खुद संचालित हो रहे हैं.
जिला प्रशासन भी उन्हें अधिकतम मुनाफ़ा सुनिश्चित करने में मदद करने के लिए कई रास्ते निकाल रहा है. मयूरभंज के योजना अधिकारी ओएमएम, नीलामाधब दास, ने घोषणा की, “मिलेट और मिलेट आधारित उत्पादों को लोकप्रिय बनाने के लिए हमारे पास एक खाद्य ट्रक था. हम जल्द ही ऐसे दो और ट्रक रखेंगे. हम सभी महिलाओं का मिलेट कैफे शुरू करने की भी योजना बना रहे हैं.”
जलवायु अनुकूल कम लागत की फसल
रागी छोटे बीज वाला पौधा है. इसे शुष्क क्षेत्रों में वर्षा आधारित कम कीमत वाली फसल के रूप में जाना जाता है.
ओडिशा के कृषि और किसान अधिकारिता निदेशक प्रेम चौधरी बताते हैं, “मिलेट की खेती में न्यूनतम लागत के साथ बहुत कम इनपुट की आवश्यकता होती है. और यहां के अधिकांश इलाकों में इसकी खेती प्राकृतिक आधारित तकनीकों पर की जाती है, जिसमें कोई अतिरिक्त लागत नहीं लगती.”
बाजरे में कम सिंचाई की आवश्यकता होती है और 70-100 दिनों के भीतर कटाई की जा सकती है. वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटी नेटवर्क के अभिजीत मोहंती का कहना है कि मोटे अनाज में अन्य फसलों की तुलना में कम से कम 70 प्रतिशत कम पानी की खपत होती है, और इसकी गर्मी सहन करने की क्षमता जलवायु के अनुकूल है. इन सभी कारणों से अन्य फसलों की तुलना में मोटे अनाज की खेती की लागत कम है. कल्पना सेठी का यह भी कहना है कि इसके खेती में कुल खर्च बेहद कम है और मुनाफा ज़्यादा है. “हम किसी भी तरह के रसायनों का उपयोग करने से बचते हैं और प्राकृतिक खाद का उपयोग करते हैं. शुरू में, सरकार ने बीज दिया था फिर हमने बीजों का संरक्षण किया, जिससे हमारे लिए बीज की लागत ज़ीरो हो गई.”
किसानों का दावा है कि कृषि क्षेत्र से मोटे अनाज के गायब होने की एक अहम वजह कम कीमत मिलना, ग्रामीण स्तर पर प्राथमिक प्रसंस्करण की कमी और पर्याप्त खरीद का अभाव और उत्पाद का लागत का बढ़ना था. हालांकि, इस मुद्दे का समाधान निकाला गया है.
हांडीपाना गांव के बसंती महंत का कहना है कि उनकी उपज हमेशा बिकती है. “भंडारण या खरीदारों की तलाश का कोई मुद्दा नहीं है. सरकार इसे हमारे गांव से खरीदती है, इसलिए मंडियों (बाजारों) तक ले जाने का कोई सवाल ही नहीं है. इससे पूरी प्रक्रिया हमारे लिए बेहद किफायती और लाभदायक हो जाती है.” इसके अलावा, चारागाह की जमीन पर मिलेट की खेती की जा रही है, जिस जमीन से कोई आय नहीं होती है. जिले के एक स्थानीय एनजीओ क्रेफ्टा के वैद्यनाथ महंत का कहना है कि धान और सब्जियों सहित उनकी मौजूदा खेती में कोई बाधा नहीं है. वे चरागाहों पर बाजरे की खेती करते हैं, जहां इससे पहले इसका कोई उपयोग नहीं था. इसका मतलब है कि वे शून्य आय वाली भूमि से मुनाफ़ा पैदा कर रहे हैं.”
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: बडासियालिनी गांव के स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) की एक महिला दो किस्म के मोटे अनाज दिखाती हुई, रागी (बाएं) और ज्वार (दाएं). तस्वीर: ऐश्वर्या मोहंती
वन्यजीवों के साथ इंसानी गतिविधियों को लंबे वक़्त से कैमरे में कैद करने वाले फोटोग्राफर से एक बातचीत