लोक कलाकारों की आजीविका के लिए काल बन गया ये कोरोना
कोरोना वायरस के चलते लोक कलाकारों के काम पर बुरा असर पड़ा है। इस समय लॉकडाउन के चलते उन्हे आजीविका के लिए बेहद परेशान होना पड़ रहा है।
नयी दिल्ली, माटी से जुड़े लोक कलाकारों पर कोरोना वायरस महामारी की दोहरी गाज गिरी है जिसकी चपेट में आने से उनकी कला के कद्रदान तो छिने ही, साथ ही अपने फन के दम पर पेट पालने वाले इन कलाकारों के सामने उदर पोषण का संकट भी गहरा गया है ।
दुनिया भर में लोगों को घरों की चारदीवारी में कैद करने वाली कोरोना वायरस महामारी ने जीवन से गीत, संगीत, खेलकूद सभी कुछ मानों छीन लिया है । ऐसे में मानवीय संवेदनाओं के संवाहक की भूमिका निभा रहे खाटी लोक कलाकारों की व्यथा और भी गहरी है क्योंकि इनमें से अधिकतर ज्यादा पढे़ लिखे नहीं होने के कारण सोशल मीडिया की शरण भी नहीं ले सकते।
पद्मश्री से नवाजे गए झारखंड के लोकगायक मधु मंसूरी को लगातार लोक कलाकार अपनी समस्याओं को लेकर फोन कर रहे हैं लेकिन उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि किस तरह से उनकी मदद करें।
उन्होंने ‘भाषा’ से फोन पर कहा ,‘‘ आप बताओ कहां चिट्ठी लिखनी होगी या बोलना होगा इनकी मदद के लिये। हम लिख देंगे। यहां के संस्कृतिकर्मी लोक संगीत से जुड़े लोग हमें बड़ा सम्मान देते हैं । वे लगातार फोन करके समस्यायें बता रहे हैं कि घर में सामान खत्म हो गया है।’’
उन्होंने कहा कि उनके साथ 20 . 22 लोगों का ग्रुप है जिनमें पांच वादक और कोरस गायक हैं जो ज्यादातर गरीब और भूमिहीन हैं। उन्होंने कहा कि ये लोक कलाकार कार्यक्रमों से ही पेट पालते हैं और जो खेती भी करते हैं तो उनकी खरीफ की फसल सिंचाई के बिना नहीं के बराबर हुई है।
फरवरी में आखिरी दो कार्यक्रम करने वाले मंसूरी ने कहा,‘‘सरकार को लोक कलाकारों के भविष्य के लिये कोई कदम उठाना चाहिये । यहां के भोले भाले आदिवासी कलाकार तो अपनी बात रख नहीं सकते।’’
वहीं लोक शैली में कबीर के भजन गाने वाले मालवा अंचल के नामी कलाकार पद्मश्री प्रहलाद टिपाणिया का कहना है कि बड़े शहरों में तो लॉकडाउन के दौर में ऑनलाइन कन्सर्ट वगैरह हो रहे हैं लेकिन दूर दराज गांवों में रहने वाले ये कलाकार उसमें कैसे भाग ले सकते हैं ?
उन्होंने कहा, ‘‘निश्चित तौर पर इस समय परेशानी तो है लेकिन क्या करेंगे ? हम तो छोटे से गांव में रहते हैं और इंटरनेट वगैरह के बारे में उतना जानते नहीं है । लाइव कन्सर्ट वगैरह चल रहा है ऑनलाइन और पिछले कुछ दिन से मैं भी जुड़ रहा हूं । लेकिन हर कलाकार के लिये तो यह संभव नहीं है।’’
टिपाणिया के इस दौरान फीजी और मॉरीशस में कार्यक्रम थे जो रद्द हो गए । उन्होंने बताया कि उनके दल के साथी चूंकि खेती भी करते हैं तो उनको इतनी दिक्कत नहीं है । लेकिन जो कलाकार सिर्फ कला पर निर्भर करते हैं , उनके सामने उदर पोषण का संकट है।
उन्होंने कहा,‘‘ सरकार को विचार करना चाहिये कि लोक कलाकारों के लिये कोई प्रबंध किया जाये क्योंकि वे कहां जाकर किससे मांगेंगे।’’
सिर पर रंग बिरंगा फेटा, धोती और हाथ में ढोल लेकर महाराष्ट्र की लोककला गीत नृत्य के रूप में पेश करने वाले सांगली के ‘धनगरी गज आर्टिस्ट समूह’ के लिये यह साल भर की कमाई का दौर होता है लेकिन उसके कलाकार हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं।
वर्ष 2009 में रूस, 2002 में लंदन और 2010 राष्ट्रमंडल खेलों के उद्घाटन समारोह समेत कई अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग ले चुके इस दल के प्रमुख अनिल कोलीकर ने कहा ,‘‘हम एक महीने में पांच से दस स्थानीय कार्यक्रम और बाहर दो या तीन कार्यक्रम करते हैं। मार्च -अप्रैल में सीजन होता है क्योंकि यह समय शादी और मेलों का है। जून से दीवाली तक ऑफ सीजन रहता है। उस समय हम पार्ट टाइम खेती करते हैं।’’
इनके दल में 50 लोग हैं और वे इन दो महीनों में दस से 50,000 रूपये तक कमा लेते हैं लेकिन अभी हाथ में बिल्कुल पैसा नहीं है।
कोलीकर ने कहा,‘‘ हमें सांस्कृतिक विभाग से भी कोई मदद नहीं आई । लावणी, तमाशा, भारोड़ जैसे दूसरे लोक कलाकारों से भी फोन आ रहे हैं जो समझते हैं कि हम अंतरराष्ट्रीय कलाकार हैं तो उनकी बात आगे रख सकते हैं । हमारे ग्रुप में कई बुजुर्ग कलाकार हैं जो बैठकर बजाते हैं । वे कोई और काम नहीं कर सकते । वे राशन कार्ड पर मिलने वाले अनाज पर गुजारा कर रहे हैं।’’
उन्होंने कहा,‘‘ अपनी बात रखने के लिये ये सोशल मीडिया भी इस्तेमाल नहीं कर सकते क्योंकि ज्यादातर अनपढ़ और गरीब हैं।’’