राष्ट्रकवि दिनकर जन्मदिन विशेष: दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
दिनकरजी ने बेगूसराय (बिहार) में अपने लिखने-पढ़ने के लिए बड़े शौक़ से एक दालान बनवाया था। वह जब भी पटना अथवा दिल्ली से यहां लौटते, उस दालान में ही बैठकी जमाकर अपने प्रियजनों, परिजनों को अपनी रचनाएं सुनाते थे।
वह बारह वर्षों तक संसद-सदस्य रहे, बाद में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार की ओर से हिन्दी सलाहकार नियुक्त होकर पुनः दिल्ली आ गए।
वह कवि सम्मेलन के मंचों पर भी काफी लोकप्रिय रहे। जब तक रहे, दिल्ली में लाल किला पर हर वर्ष आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में ललकारते रहे।
आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्मदिन है। राष्ट्रकवि दिनकर आधुनिक युग के शीर्ष कवियों में रहे हैं। वर्ष 1952 में जब भारत की प्रथम संसद बनी, दिनकर जी उसमें राज्यसभा सदस्य होकर दिल्ली आ गए। वह बारह वर्षों तक संसद-सदस्य रहे, बाद में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार की ओर से हिन्दी सलाहकार नियुक्त होकर पुनः दिल्ली आ गए। फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंदगीत रचे गए। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अंग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष के भीतर उनको बाईस बार इधर से उधर किया गया।
शुरुआती दौर में दिनकर जी ने छायावादी कविताएँ लिखीं लेकिन बाद उनका वीर रस में राष्ट्रीय स्वर मुखर हुआ। वह स्वयं अपने को द्विवेदी युगीन और छायावादी काव्य पद्धतियों का वारिस मानते थे। वह कवि सम्मेलन के मंचों पर भी काफी लोकप्रिय रहे। जब तक रहे, दिल्ली में लाल किला पर हर वर्ष आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में ललकारते रहे। कई बार पंडित जवाहर लाल नेहरू भी उनके साथ मंच पर उपस्थित होते थे। उनका हिन्दी प्रेम दूसरों की अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा और प्रेम का विरोधी नहीं, बल्कि प्रेरक था। रामवृक्ष बेनीपुरी के शब्दों में- 'हमारे क्रान्ति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है। क्रान्तिवादी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उनकी सच्ची तस्वीर रखती है।'
शीर्ष आलोचक नामवर सिंह लिखते हैं- 'दिनकर जी सचमुच ही अपने समय के सूर्य की तरह तपे। मैंने स्वयं उस सूर्य का मध्याह्न भी देखा है और अस्ताचल भी। वे सौन्दर्य के उपासक और प्रेम के पुजारी भी थे। उन्होंने 'संस्कृति के चार अध्याय' नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है, जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने उसकी भूमिका लिखकर गौरवन्वित किया था। दिनकर बीसवीं शताब्दी के मध्य की एक तेजस्वी विभूति थे।
दिनकरजी ने बेगूसराय (बिहार) में अपने लिखने-पढ़ने के लिए बड़े शौक़ से एक दालान बनवाया था। वह जब भी पटना अथवा दिल्ली से यहां लौटते, उस दालान में ही बैठकी जमाकर अपने प्रियजनों, परिजनों को अपनी रचनाएं सुनाते थे। वर्ष 2009-10 में मुख्यमंत्री विकास योजना से इसके जीर्णोद्धार के लिए पांच लाख रुपए जारी हुए, जो सरकारी खजाने में वापस लौट गए। जनकवि दीनानाथ सुमित्र कहते हैं, यह तो राष्ट्र का दालान है। यह हिंदी का दालान है। उनके परिजनों को यह समाज-सरकार को सौंप देना चाहिए।
दिनकर जी के पुत्र केदार सिंह कहते हैं कि 'पिताजी ने हमारे चचेरे भाई आदित्य नारायण सिंह के विवाह के अवसर पर इसे बनाया था। इसके जीर्णोद्धार को लेकर पांच लाख रुपये आये थे, यह हमारी नोटिस में नहीं है। यह अब मेरे भतीजे अरविंद बाबू की देखरेख में है।' दिनकर जी की प्रकाशित कृतियाँ हैं - उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, संचयिता, संस्कृति के चार अध्याय, सपनों का धुआँ, कविता और शुद्ध कविता, कवि और कविता, भग्न वीणा, स्मरणांजलि, समानांतर, चिंतन के आयाम, रश्मिमाला, व्यक्तिगत निबंध और डायरी, पंडित नेहरू और अन्य महापुरुष, संस्कृति भाषा और राष्ट्र, श्री अरविंद मेरी दृष्टि में, साहित्य और समाज, अमृत मंथन, कुरुक्षेत्र, बापू, मिट्टी की ओर, काव्य की भूमिका, धूपछाँह, नील कुसुम, नये सुभाषित, रश्मिरथी आदि। 'संस्कृति के चार अध्याय' के लिये साहित्य अकादमी तथा उर्वशी के लिये उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। उनकी ये पंक्तियां आज भी हर देशभक्त की जुबान से गूंज उठती हैं -
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।
जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे, तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हां, लंबी – बड़ी जीभ की वही कसम, जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।
सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है? है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?
मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख, मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
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