बेटी कुंवारी हो या शादीशुदा, वह पिता की संपत्ति में बेटों की तरह हिस्सेदार
हमारी समाज व्यवस्था में एक बड़ा खोट है कि 'हंसबि ठठाई' लेकिन 'फुलाइब गालू' यानी हंसेंगे ठहाका मार के, लेकिन गुस्से में गाल भी फुलाए हुए, लेकिन बेटियों के हक-हिस्से के मामले में अब ऐसा कत्तई नहीं चलने वाला। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक बेटी कुंवारी हो विवाहित, पिता की संपत्ति पर उसका भी बेटों जितना ही अधिकार।
भारतीय समाज में वैसे तो रोजाना ही बेटियों पर ममत्व, वात्सल्य, स्त्री-शक्ति, करुणा, देवी-दुर्गा-चंडी जैसी ढेर सारी, तरह-तरह की भावुक बातें होती रहती हैं लेकिन जैसे ही उनके हक-हिस्से की बात आती है, पूरी सोसाइटी के मुंह पर ताला लटक जाता है। वही बात कि 'हंसबि ठठाई' लेकिन 'फुलाइब गालू' यानी हंसेंगे ठहाका मार के, लेकिन गुस्से में गाल भी फुलाए हुए। हमारे देश में इस सामाजिक दोहरेपन की मुद्दत से चीर-फाड़ चल रही है, बार-बार न्यायालय और सरकारों की ओर से भी पहल होती आ रही है लेकिन बात आज तक बनी नहीं। हठी-स्वार्थी समाज के मायके वालों को आज भी भीख जैसा चुटकी भर चढ़ावा (दहेज) लेकर बेटी के बस चौखट से बाहर चले जाने का इंतजार रहता है। और गई नहीं कि पराई हुईं नहीं।
लगता है, अब तो ऐसा कत्तई नहीं चलने वाला। सामाजिक वर्जनाएं भले कुंडली मार कर फन फैलाए रहें, अब ऐसा कोई कार्यक्षेत्र नहीं, जहां बेटियां सिरहाने न बैठने लगी हों। हमारी न्याय पालिका की नज़र में तो वह नंबर वन हैं ही। अभी कल ही यूपी सरकार ने घोषणा की है कि वह अविवाहित बेटियों को उत्तराधिकार में हर स्तर पर बेटों के बराबर हक देने का कानून बनाने जा रही है। प्रदेश कैबिनेट की बैठक में बेटियों के हक वाले राजस्व संहिता संशोधन अध्यादेश-2019 को राज्य संहिता संशोधन विधेयक-2019 के रूप में पारित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई है लेकिन यहां भी गौरतलब है कि सिर्फ 'अविवाहित बेटियों को'।
चलिए, कोई बात नहीं, 9 सितंबर 2005 को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005, जो हिंदुओं के बीच संपत्ति का बंटवारा करता है, उसमें तो संशोधन किया जा चुका है कि लड़की चाहे कुंवारी हो या शादीशुदा, वह पिता की संपत्ति में हिस्सेदार मानी जाएगी। इतना ही नहीं, उसे पिता की संपत्ति का प्रबंधक भी बनाया जा सकता है। इस संशोधन के तहत बेटियों को वही अधिकार मिल चुके हैं, जो पहले बेटों तक सीमित थे। हालांकि, बेटियों को इस संशोधन का लाभ तभी मिलेगा, जब उनके पिता का निधन 9 सितंबर 2005 के बाद हुआ हो। इसके अलावा बेटी सहभागीदार तभी बन सकती है, जब पिता और बेटी दोनों 9 सितंबर 2005 को जीवित हों। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में इस पर बेटियों के हक में फैसला सुनाया है।
रूढ़ भारतीय परिवारों में भले आज भी कुल का चिराग बेटा अव्वल बना रहे, बाप-दादाओं की सारी कमाई, जमीन-जायदाद पर पालथी मारे रहे, न्याय के सबसे बड़े मंदिर सुप्रीम कोर्ट में, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 के मुताबिक, विरासत की प्रॉपर्टी के मामले में अब बेटी का भी जन्म से हिस्सा बन चुका है। इसका शादीशुदा होने से कोई लेनादेना नहीं है। यहां तक कि पिता की खुद द्वा खरीदी गई प्रॉपर्टी भी वसीयत के हिसाब से बंटेगी। ऐसा न होने पर बतौर कानूनी वारिस बेटियां प्रॉपर्टी में अपने हक के लिए कोर्ट में मुकदमा दाखिल कर सकती हैं।
अभी हाल ही में बरेली (उ.प्र.) के विधायक राजेश मिश्रा की बेटी साक्षी मिश्रा ने दलित लड़के से शादी कर ली है। ऐसे में सवाल उठे कि क्या साक्षी को अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा मिल सकता है? कानूनी जवाब है कि चूंकि साक्षी ने अजितेश कुमार से हिंदू मैरिज एक्ट 1956 के तहत शादी की है, इसलिए हिंदू सक्सेशन एक्ट (अमेंडमेंट) 2005 के तहत वह अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा पाने की पूरी तरह अधिकारी हैं।
हमारे समाज में इस रिश्तागोई के झमेले वाला एक और मामला बेटे या माता-पिता की भी बेदखली का है कि क्या घरेलू खटास में माता-पिता अपनी संतान को घर बदर कर सकते हैं अथवा जब तक चाहें, उनके घर में रह सकते हैं? तो दिल्ली हाई कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक, जवाब है कि माता-पिता जब तक चाहेंगे, तभी तक उनकी बालिग संतान, शादीशुदा हो या अविवाहित, उनके साथ घर में रह सकती है। ये बात बेटी-दामाद के मामले में भी लागू होती होगी। जिन बुजुर्गों की संतानें उनसे खराब व्यवहार करती हैं, वे किसी भी तरह की प्रॉपर्टी से उनको बेदखल कर सकते हैं, भले ही वह प्रॉपर्टी किराए की भी क्यों न हो।