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शिक्षा व्यवस्था के सुधार के लिये आवश्यक है धन से अधिक धुन

आज की शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालती लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एस.पी.सिंह से योरस्टोरी की खास बातचीत...

शिक्षा व्यवस्था  के सुधार के लिये आवश्यक है धन से अधिक धुन

Wednesday November 15, 2017 , 12 min Read

नालंदा और तक्षशिला की विरासत को समेटने वाले भारत में उच्च शिक्षा व्यवस्था अनवरत रूप से अधोगति को प्राप्त हो रही है। हालात यह हैं कि देश के सबसे बड़े सूबे से मेधावी छात्रों का पलायन जारी है। विश्वविद्यालय सुव्यवस्थित दुर्व्यवस्था के केंद्र बन गए हैं। किन्तु इस घोर तिमिर का अन्त प्रात: की एक किरण ही कर सकती है...

लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एस.पी. सिंह

लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एस.पी. सिंह


 "उच्च शिक्षा के लिए भारत में संसाधनों की उतनी कमी नहीं है जितनी की अच्छे प्रबन्धन की है। अनुभव बताता है कि महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों के पास संसाधन होने पर भी अपेक्षित परिमाम नहीं प्राप्त हुये हैं। सुधार हेतु अच्छे प्रबन्धन पर जोर देना आवश्यक है।"

योरस्टोरी: उच्च शिक्षा में शोध कार्य की हालत यूपी में सबसे खराब है। कैसे बदलेंगे यह हालात ?

वीसी: शोध कार्य की हालत तो समूचे मुल्क में कमोबेश एक जैसी है, स्थिति विचारणीय है। किंतु वर्तमान जड़वत स्थिति को तोडऩे हेतु लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रबंधन ने शोध कार्य को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से कुछ नये कार्यक्रम प्रारम्भ किये हैं। जैसे शोध पत्रों के प्रकाशन पर शोधार्थी (अध्यापक-विद्यार्थी) को प्रत्यक्ष पुरस्कार। पुस्तक प्रकाशन के लिये 11 हजार का नगद पुरस्कार व किसी प्रोजेक्ट पर कार्य करने हेतु 10 हजार का नगद सहयोग। किंतु इस हेतु विश्वविद्यालय प्रबंधन ने कुछ मापदंड भी तय किये हैं जिसके लिये कमेटी भी गठित की गई है, उसकी संस्तुति के बाद ही वर्णित व्यवस्था का लाभ मिल पायेगा।

दूसरा यह कि हमारे विश्वविद्यालयों में जो शोध कार्य हो रहे हैं, उनके बारे में समाज को कुछ पता नहीं रहता। कुछ शोधकार्य अवश्य समाज से प्रत्यक्षत: जुड़े होते हैं। विश्वविद्यालयों में आपस में भी शोधकार्यों को लेकर तालमेल का अभाव है। जबकि होना यह चाहिए कि सभी विश्वविद्यालयों में परस्पर सम्वाद बना रहना चाहिए। शोधकार्यों को लेकर विशेष रूप से। साथ ही विशिष्ट विषयों के लिए कुछ विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों को राष्ट्रीय स्तर पर विशिष्टीकृत शोधकेन्द्र के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए, ताकि उस विशेष विषय में शोध कार्य करने वाले शोधार्थी उस विश्वविद्यालय या शोध संस्थान पर रह कर अपना शोधकार्य कर सके, बेशक वे देश के किसी भी विश्वविद्यालय के शोधार्थी क्यों न हों। हमें ऐसे कम से कम 100 उच्च स्तरीय शोध केन्द्र विभिन्न विषयों में स्थापित करने चाहिए।

योरस्टोरी: प्रदेश के विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के 40 प्रतिशत से अधिक पद लम्बे अर्से से खाली पड़े हैं। क्या कारण हो सकता है?

वीसी: लखनऊ विश्वविद्यालय में ही 265 शिक्षकों के पद रिक्त हैं। पदों का रिक्त पड़े रहना राज्यों और केन्द्र द्वारा समय-समय पर भर्तियों पर रोक लगा देने के कारण ही है। कई बार आरक्षण की नीतियों में परिवर्तन भी होते रहे और प्राय: सभी विश्वविद्यालयों में नियुक्ति विषयक प्रकरण माननीय न्यायालयों में लम्बित रहे। ऐसे में यही स्थिति आनी थी। विश्वविद्यालय में खाली पदों पर नियुक्ति विश्वविद्यालय स्वयं करता है अत: वह भर जाते हैं परन्तु महाविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति का अधिकार प्रदेश के उच्च शिक्षा आयोग को होता है, तो रिक्त पदों पर कई-कई वर्षों तक नियुक्ति नहीं हो पाती। शिक्षा धन्धा बन कर रह गई है, यह एक सरलीकृत कथन है। स्थितियां सचमुच गम्भीर हैं। कठोर नियंत्रण के बिना इसका निदान नहीं हो सकता। नयी शिक्षा नीति में सम्भवत: इस समस्या पर भी सुझाव होंगे।

योरस्टोरी: राजकीय महाविद्यालयों के पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण क्या है?

वीसी: राजकीय महाविद्यालयों के पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण इनकी स्थिति है। इसके अलावा शिक्षक संख्या का उचित अनुपात में न होना भी है। सरकार द्वारा अनेक महाविद्यालयों की स्थापना से उच्च शिक्षा क्षेत्र की विसंगतियों का अंत नहीं होगा क्योंकि सत्य यह है कि प्रदेश के अधिकांश राजकीय महाविद्यालयों में छात्र संख्या अति न्यून है। यातायात के साधन सुलभ न होने के कारण न तो छात्र और न ही शिक्षक इन महाविद्यालयों में आना चाहते हैं। केवल स्थानीय छात्र ही इन महाविद्यालयों मे दाखिला लेते हैं और वर्षपर्यन्त महाविद्यालय भी नहीं आते।

नवीन महाविद्यालयों के खोलने और नये शिक्षकों की भर्ती में धन व्यय करने की अपेक्षा सरकार को शहर के नजदीक या मुख्यालय के नजदीक महाविद्यालय खोलने चाहिए एवं निकटस्थ ग्रामीण क्षेत्र के छात्रों, शिक्षकों संसाधनों को वहां समायोजित करना चाहिए। शहर के नजदीक होने पर छात्रों की भी संख्या बढ़ेगी एवं शिक्षकों के मन में भी वहां पर काम करने की प्रवृत्ति जाग्रत होगी। ऐसी स्थिति में यह भी समझना आवश्यक है कि उपर्युक्त समस्याओं को दूर करने के साथ ही साथ उच्च शिक्षा में सुधार हेतु जहां एक ओर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे शोध गतिविधियों में पारदर्शिता लाने, छात्रों के हित हेतु, उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के लिए नियमित शिक्षकों के चयन की योग्यता नेट आवश्यकता होनी चाहिए। योग्य शिक्षकों के आने से ही, प्रबुद्ध छात्र स्वयं ही कक्षाओं में उपस्थित बढ़ायेंगे।

योरस्टोरी: उच्च शिक्षा की निरंतर क्षय होती गुणवत्ता के बुनियादी कारण क्या हैं?

वीसी: वर्तमान समय में भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था का सही रूप से मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की कमी को आर्थिक मजबूतियों के मत्थे जड़ दिया जाता है। उच्च शिक्षा के लिए भारत में संसाधनों की उतनी कमी नहीं है जितनी की अच्छे प्रबन्धन की है। अनुभव बताता है कि महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों के पास संसाधन होने पर भी अपेक्षित परिमाम नहीं प्राप्त हुये हैं। सुधार हेतु अच्छे प्रबन्धन पर जोर देना आवश्यक है। अब देखिये न उच्च शिक्षा व्यवस्था में सरकार द्वारा मानदेय की नई व्यवस्था के अन्तर्गत प्रबंधतंत्रों द्वारा जो नियुक्तियां की जाती है उनमें प्रबंधतंत्र योग्य अभ्यर्थियों को छोड़ कर चहेतों को नियुक्त करवा लेते हैं और येन-केन प्रकारेण सरकारों से स्थायी भी करवा लेते हैं।

राजकीय कालेजों के संविदा शिक्षकों की भी यही स्थिति है। शिक्षकों की नियुक्ति में अनेक विसंगतियां हैं। महाविद्यालयों में कई तरह के शिक्षक कार्यरत हैं जिनके नियुक्ति के मानक प्रक्रिया मापदण्ड भी अलग-अलग है। यही नहीं स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में अत्यन्त अव्यवस्था है, इनमें मनमानी फीस वसूल कर छात्रों का शोषण किया जाता है। यहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है और न ही योग्य शिक्षक हैं, अधिकांश महाविद्यालयों में योग्य शिक्षकों का अनुमोदन है परन्तु उनसे पढ़वाया नहीं जाता यहां तक कि अधिकांश महाविद्यालयों में पचास से साठ फीसदी शिक्षकों के अनुमोदन फर्जी हैं। सरकार को शिक्षकों की नियुक्ति में एक समान मानक व प्रक्रिया अपनानी चाहिए व लिखित परीक्षा व मौखिक परीक्षा दोनों प्रक्रियाओं का अनुपालन करके ही नियुक्ति करनी चाहिए। जिससे गुणावत्तापरक शिक्षण कार्य हेतु सक्षम, समर्थ और योग्य शिक्षक संस्थानों को प्राप्त हो सकें।

शिक्षा प्राप्त करना भले ही सभी का मौलिक अधिकार है लेकिन उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इससे अगंभीर छात्रों का बोलबाला ही बढ़ रहा है जो अधिकांश विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में शुल्क कम होने की वजह से कक्षाओं में नहीं आते तथा अनुत्तीर्ण होने पर पुन: पुन: प्रवेश लेते रहते हैं जिससे शिक्षा का स्तर गिरता है। वर्तमान समय में भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था का सही रूप से मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की कमी को आर्थिक मजबूतियों के मत्थे जड़ दिया जाता है। उच्च शिक्षा के लिए भारत में संसाधनों की उतनी कमी नहीं है जितनी की अच्छे प्रबन्धन की है, हम अपने महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में चाहे जितना खर्च कर लें तब तक सुधार सम्भव नहीं होगा जब तक अच्छे प्रबन्धन पर जोर नहीं दिया जाएगा।

योरस्टोरी: क्या कारण है कि उच्च शिक्षा में महिलाओं का प्रतिशत कम है? व्यवस्था उच्च शिक्षा में महिलाओं की भागेदारी बढ़ाने के लिए क्या कुछ विशेष प्रयास कर रही है और क्या करना चाहिए ?

वीसी: नि:संदेह दुर्भाग्य से शिक्षा में, विशेष रूप से उच्च शिक्षा में महिलाओं का प्रतिशत बहुत कम है। यह असमानता ग्रामीण क्षेत्र में और भी अधिक है। जहां तक इसके कारणों की बात है, इनमें मुख्य कारण मैं सामाजिक मानता हूं। इसके बाद आर्थिक कारण हैं। दीगर है कि शिक्षा से सम्बन्धित जो भी योजनाएं बनीं, वे समान रूप से लड़के-लड़कियों दोनों के लिए थीं, किन्तु व्यवहार में उनका लाभ लड़कों को ही मिलता रहा है।

याद आता है कि राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति और राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद का गठन हुआ। वर्ष 1985 में अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम भी शुरू हुआ। किन्तु ये प्रयास, लगता है कि महिलाओं तक पहुंचे नहीं। बेटी बचाओ! बेटी पढ़ाओ! जैसे अभियान प्राथमिक स्तर पर ही नहीं, उच्च स्तर पर भी चलाए जाने की आवश्यकता है। उच्च शिक्षा हेतु महिलाओं के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इधर कुछ और सुविधाएं दिए जाने की घोषणा की है, जो ईमानदारी के साथ लागू हों, तो स्वागत योग्य हैं।

योरस्टोरी: वर्तमान शैक्षणिक वातावरण में शिक्षकों की वह कौन सी आधारभूत समस्याएं हैं जो उनके प्रदर्शन को प्रभावित कर रही हैं।

वीसी: दरअसल उच्च शिक्षा व्यवस्था बदलते समय के साथ कदमताल करने की कोशिश प्रत्येक कालखंड में करती रही है। जड़ता कभी नहीं रही किंतु सहज, नवाचारी गतिशीलता की भी रिक्तता रही है। शिक्षक वर्ग भी ऐसी ही रिक्तता के कारण कुछ समस्याओं से प्रभावित दिखाई पड़ता है। जैसे निर्धारित समय में अगले वेतनमान में प्रोन्नति न मिलना असमान वेतनमान होना, सरकार द्वारा सम्बद्ध महाविद्यालयों में एसोसिएट प्रोफेसर के पर्याप्त पदों का सृजन न करना, मूलभूत सुविधाओं का न मिलना, चयन वेतनमानों की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल होना, निजी कालेजों में प्रबंधतंत्र की मनमानी तथा शिक्षकों का शोषण करना, स्ववित्त पोषित अधिकंाश कॉलेजों में शिक्षकों का मानसिक शोषण, उनसे जबरदस्ती नकल करवाना, कम से कम वेतन देना, महाविद्यालयों में शिक्षकों के पदों का फर्जी अनुमोदन चलाना एवं सेवा शर्तों का अनुरक्षित होना ऐसी समस्याएं हैं जिनसे शिक्षकों को सामना करना पड़ता है और वह शिक्षा की गुणवत्ता से दूर होते चले जाते हैं।

योरस्टोरी: शिक्षाविद् भी मानने लगे हैं कि विश्वविद्यालयों की संख्या भले ही बढ़ गई हो लेकिन कुलपतियों के स्तर में भारी गिरावट आई है, क्या यह सही है?

वीसी: हां, यह सच है। कुलपतियों की चयन प्रक्रिया पारदर्शी, राजनीति से मुक्त और परफार्मेंस के आधार पर होनी चाहिए।

योरस्टोरी: केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालय आपस में प्रभावी समन्वय स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। क्या ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित नहीं हो रही है?

वीसी: यह सचमुच दुर्भाग्य है कि हमारे देश के विश्वविद्यालयों में न परस्पर, सम्वाद है, न सहयोग। प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण भी नहीं बन पा रहा है। आप ठीक कह रहे हैं, निश्चित रूप से इससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।

योरस्टोरी: उच्च शिक्षा की दशा और दिशा कैसे सुधरेगी ?

वीसी: आज की भाषा में कहें तो सर्वत्र विदित है कि उत्पादक और उत्पाद की सबसे बड़ी कसौटी उसके उपभोक्ता हैं। उच्च शिक्षा उत्पाद के उपभोक्ता विद्यार्थी होते है, वे ही उससे लाभान्वित होते हैं। अत: इस कसौटी का उपयोग करने का संकल्प हमारी सरकार, समाज, विश्वविद्यालय/ महाविद्यालय प्रबन्धन को समेकित रूप से लेना होगा, तभी उच्च शिक्षा की दशा को सुधार की एक नयी दिशा प्राप्त होगी और हमारी उच्च शिक्षा भारत की युवा पीढ़ी के अन्दर निहित आन्तरिक शक्तियों का सर्वांगीण प्रकटीकरण हेतु मील का पत्थर साबित होगी। शिक्षा जगत के अनेक अंग हैं और हर अंग को सुधारने एवं इलाज कराने की आवश्यकता है, चाहे विसंगति पाठ्यक्रम स्तर की हो या शिक्षक स्तर की, या महाविद्यालय स्तर की या छात्र स्तर की। सभी को मिल कर इन विसंगतियों का अन्त करना होगा। केवल सरकारी प्रयास से समस्या का निराकरण सम्भव नहीं है। अंततः बदलाव के लिए धन से अधिक धुन की आवश्यकता होती है।

योरस्टोरी: उच्च शिक्षा में परीक्षा प्रणाली में भी क्या किसी सुधार की आवश्यकता महसूस होती है?

वीसी: अवश्य। उच्च शिक्षा में परीक्षा प्रणाली में भी आमूल चूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है जिसके अन्तर्गत वार्षिक परीक्षाओं का मूल्यांकन विश्वविद्यालयों में न होकर राष्ट्रीय/प्रदेशीय स्तर पर होना चाहिए जिससे उच्च शिक्षा गुणवत्ता में आड़े आने वाले फर्जी अंकतालिका, सिफारिश द्वारा उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में अंकों की वृद्धि न की जा सके एवं नकल रोकने हेतु स्वकेन्द्र परीक्षा समाप्त की जाए और इसके लिए आवश्यक कदम उठाये जाएं।

योरस्टोरी: शिक्षा के वैकल्पिक माध्यमों जैसे दूरस्थ शिक्षा, ऑनलाइन कोर्सेज आदि को वर्तमान समय के अनुसार उपयुक्त मानते हैं ?

वीसी: इन वैकल्पिक माध्यमों से हम बच नहीं सकते। अनुमान है कि वर्ष 2025 तक हमारे देश में जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक विद्यार्थी होंगे। इस स्थिति में दूरस्थ शिक्षा तथा ऑनलाइन पाठ्यक्रमों की ओर जाना ही होगा। इग्न तथा अनेक प्रादेशिक मुक्त विश्वविद्यालय हमारे देश में अच्छा काम कर रहे हैं। दूरस्थ शिक्षा एक लचीला माध्यम है और उन लोगों के लिए वरदान है, जो पढऩा चाहते हैं किन्तु उनके पास साधन नहीं हैं, या जिनके आस-पास कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय नहीं हैं या जो नौकरी करते हैं तथा आगे पढऩा चाहते हैं। फिर भी इनकी स्वीकृति में एक हिचक रहती है। हमें यह दृष्टि बदलनी होगी। दुनिया के कई देशों में ऑनलाइन पाठ्यक्रम चल रहे हैं। इनका ध्यान भारत की ओर भी है।

योरस्टोरी: शिक्षा में सुधार के लिए कुछ सुझाव।

वीसी: शिक्षा क्षेत्र की प्रथम विसंगति पाठ्यक्रमों की अतार्किकता एवं परम्परागत संरचना है। विज्ञान विषयों को छोड़ कर अन्य मानविकी, कला एवं वाणिज्य विषयों के पाठ्यक्रम समय-समय पर नवीनीकृत न होने के कारण अपनी प्रासंगिता को खो देते हैं। प्राय: ऐसा देखा जाता है कि एक ही पाठ्यक्रम लगातार 05-10 वर्षों तक दोहराया जाता है जिसका दुष्प्रभाव यह होता है कि न तो शिक्षकों की रुचि उसमें बनी रहती है और न ही छात्रों का मन उनकी ओर आकर्षित होता है। पाठ्यक्रम को सैद्धान्तिक की अपेक्षा व्यावहारिक अधिक बनाया जाना चाहिए। जिससे व्याप्त नीरसता का अन्त हो एवं छात्र घर पर ही अध्ययन करने की अपेक्षा महाविद्यालयों में आकर कुछ नया सीख सकें।

मानविकी जैसे विषय क्षेत्र को भी अधिक व्यावहारिक बनाने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। महाविद्यालय स्तर पर छात्रों द्वारा उनके विषय पर आधारित सेमिनार, संगोष्ठी, विचार विमर्श, बौद्धिक सम्वाद एवं निबन्ध प्रतियोगिता का और अधिक आयोजन कराना। इसके साथ ही छात्रों का साक्षात्कार भी समय-समय पर हो जिससे उनकी क्षमता एवं समस्याओं का ज्ञान हो सके एवं उनमें आत्मविश्वास का विकास हो। सेमिनार एवं संगोष्ठी में प्रत्येक छात्र एवं छात्रा की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए तथा यदि सम्भव हो तो उनके अंक भी निर्धारित होने चाहिए। व्यावहारिकता के साथ शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जाना सबसे अधिक जरूरी है।

यही नहीं उच्च शिक्षा से जुड़े शिक्षकों का प्रति दो या तीन वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर किसी परीक्षा को उत्तीर्ण करने की बाध्यता को लागू कर दिया जाये, जिससे यह पता चलता रहे कि अमुक शिक्षक छात्रों को पढ़ाने के लिए अपने ज्ञान को अपडेट कर पा रहे हैं या नहीं, जो कार्यरत शिक्षक ऐसी योग्यता परीक्षाओं में पांच वर्ष में एक बार भी उत्तीर्ण नहीं होते तो उनको स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दे देनी चाहिए ताकि शिक्षा की गुणवत्ता बनी रहे।

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