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डीएनए टेक्नोलॉजी रेगुलेशन बिल से नागरिक संगठनों में इतनी बेचैनी क्यों!

डीएनए टेक्नोलॉजी रेगुलेशन बिल से नागरिक संगठनों में इतनी बेचैनी क्यों!

Wednesday June 26, 2019 , 4 min Read

'डीएनए टेक्नोलॉजी रेगुलेशन बिल-2018' को केंद्रीय मंत्रिपरिषद से मंजूरी मिल चुकी है। यह लोकसभा में पहले ही पारित हो चुका है। अब राज्यसभा में पास होने की दरकार है। नागरिक संगठन चाहते हैं कि इस बिल पर व्यापक बहस हो ताकि यह पूरी तरह से पारदर्शी और त्रुटिहीन रूप में भारतीय कानून का हिस्सा बन सके।


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सांकेतिक तस्वीर

केंद्रीय मंत्रिपरिषद से मंजूरी मिलने के साथ ही डीएनए टेक्नोलॉजी रेगुलेशन बिल-2018 के अब राज्यसभा में पारित होने की दरकार है। लोकसभा में ये बिल मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में ही पास हो चुका है। पहली बार इस बिल की संकल्पना वाजपेयी सरकार के समय सार्वजनिक हुई थी। इस बिल को लेकर देश के तमाम नागरिक संगठनों में हचल मच गई है। 'डीएनए टेक्नोलॉजी रेगुलेशन बिल' में लंबे समय से संदिग्ध अपराधियों और लापता लोगों की पहचान सुनिश्चित करने के लिए डीएनए लाबोरेटरी बैंक एवं डीएनए डेटा बैंक स्थापित करने का प्रावधान है।


इस बिल के अंतर्गत डीएनए टेस्टिंग की अनुमति केवल बिल की अनुसूची में उल्लिखित मामलों के लिए दी जाएगी, जैसे भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत अपराधों, पेटरनिटी से संबंधित मुकदमों या असहाय बच्चों की पहचान के लिए। यह तकनीक संदिग्ध अपराधियों और लापता लोगों की पहचान करने में काफी उपयोगी मानी गई है। कई अपराधों को सुलझाने के लिए फोरेंसिक टेक्नोलॉजी का प्रयोग डीएनए पर आधारित किया जा सकता है। यह तकनीक लापता लोगों, बिना पहचान वाले मृतकों, बड़ी संख्या में हुई मृतकों की पहचान में भी सहायक होगा।

 

इस बिल का प्रयोग सिविल केस सुलझाने के लिए भी किया जा सकता है, जिनमें बच्चे के जैविक माता-पिता की पहचान, इमीग्रेशन केस और मानव अंगों के ट्रांसप्लांट इत्यादि भी शामिल हैं। हमारे देश में इस तकनीक की जरूरत मुख्य तौर पर इसलिए है क्योंकि डीएनए डाटा बैंक नहीं है। डीएनए प्रोफाइलिंग के लगभग तीन हजार केस हैं और डीएनए डाटा बैंक लेबोरेटरी न होने के कारण इन्हें स्टोर करने की कोई सुविधा नहीं है। बिल के अंतर्गत डीएनए रेगुलेटरी बोर्ड से यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा की जाती है कि डीएनए बैंकों, लेबोरेट्रीज़ और अन्य व्यक्तियों के डीएनए प्रोफाइल्स से संबंधित सूचनाओं को गोपनीय रखा जाएगा।





सरकार का कहना है कि डीएनए आधारित फोरेंसिक प्रौद्योगिकियों के जरिए देश की न्यायिक प्रणाली सुदृढ़ बनाने के लिए यह बिल लाया जा रहा है। नागरिक संगठनों को आशंका है कि ये बिल डीएनए प्रोफाइलिंग के माध्यम से निजता के अधिकार को बाधित कर सकता है। ऐसी आशंकाओं को सरकार ने निराधार बता रही है। सरकार का कहना है कि इस बिल से बड़े अपराधों के खिलाफ व्यापक नेटवर्क तैयार करने में मदद मिलेगी।


संगठन कर्ताओं का कहना है कि सुरक्षा एजेंसियां इसकी आड़ में मानवाधिकारों का उल्लंघन कर सकती हैं। आशंका जताई जा रही है कि जुटाए गए साक्ष्यों के गलत इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे में डीएनए डाटा मामला सुलझाने के बजाय उसे और उलझा सकता है, जिससे न्याय प्रक्रिया सवालों के घेरे में आ सकती है। डीएनए प्रोफाइलिंग पर्याप्त अभ्यास, परिश्रम, पारदर्शिता और प्रशिक्षण की मांग करती है। इस बिल में व्यवस्था दी गई है कि देश में एक राष्ट्रीय डीएनए डाटा बैंक, क्षेत्रीय बैंक और एक डीएनए रेगुलेटरी बोर्ड गठित किया जाएगा। किसी की पहचान के लिए डीएनए नमूनों की जांच करने वाली देश की प्रत्येक लेबोरेटरी को बोर्ड से मान्यता लेनी होगी।


बिल के मुताबिक हर डाटा बैंक को घटनास्थल, संदिग्ध और विचाराधीन कैदियों, अपराधियों, गुमशुदा लोगों और अज्ञात मृतकों के सूचकांक अनिवार्य रूप से रखने होंगे। बिल में ये प्रावधान किया गया है कि बगैर लिखित सहमति के किसी व्यक्ति का डीएनए सैंपल नहीं लिया जा सकता है लेकिन सात साल से अधिक की जेल की सजा भुगत रहे कैदियों या मृतकों के डीएनए सैंपल लेने पर कोई रोक नहीं होगी। एक बार पुलिस रिपोर्ट दर्ज हो जाने अथवा कोर्ट से आदेश मिल जाने पर संदिग्ध या विचाराधीन कैदी का डीएनए प्रोफाइल हटा दिया जाएगा।


यद्यपि विधेयक में इस बात का भरोसा दिलाया गया है कि डीएनए परीक्षण परिणाम भरोसेमंद होंगे और नागरिकों के गोपनीयता अधिकारों के लिहाज़ से डाटा का दुरुपयोग नहीं हो सकेगा लेकिन विशेषज्ञों एवं नागरिक संगठनों का कहना है कि निर्दोष लोगों के सैंपल मिटा देने का प्रावधान है लेकिन ये कब साबित होगा कि वे निर्दोष हैं, और ये कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि उनका डीएनए सैंपल किसी अन्य देसी या विदेशी एजेंसी के साथ साझा नहीं हुआ है। इसलिए सरकार को बताना चाहिए कि आखिर इस बिल की देश को क्या और कितनी जरूरत है।


और जब तक इस तरह की बहुत सारी आशंकाओं, संदेहों और सवालों के जवाब नहीं मिल जाते या उनके निस्तारण के उपाय नहीं कर लिए जाते, तब तक इस तरह के बिल को कानूनी जामा पहनाने की हड़बड़ी से सरकार को बचना चाहिए। सरकार भी शायद यही चाहेगी कि इस महत्वाकांक्षी बिल पर व्यापक बहस हो ताकि ये पूरी तरह से पारदर्शी और त्रुटिहीन रूप में भारतीय कानून व्यवस्था का स्थायी हिस्सा बने।