“हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है”... शायरी के शहंशाह ग़ालिब के कैसे थे आखिरी दिन
कायनात की महफ़िल में जब भी ‘यूं,’ ‘क्या’ की जूस्तजू या जिज्ञासा पैदा होगी तो ग़ालिब याद आयेंगे.
आज भी कहीं शायरी की बात हो रही हो और आप वहां जाकर किसी शायर का नाम पूछ लें, तो नामों की ये फेहरिस्त मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम के साथ ही शुरू होगी.
ग़ालिब ने बहुत पहले ही आने वाली पीढ़ियों के लिए अपनी शख़्सयित बयां कर दिया था, "हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयां और''. और क्या खूब बयां किया था. एक शायर के रूप में यह भी कहा था, “वो पूछता है कि ग़ालिब कौन था, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या.”
ग़ालिब मुगलकाल के आखिरी महान कवि और शायर थे. आज ही के दिन, 15 फरवरी, साल 1869 में उन्होंने अपनी अंतिम सांस दिल्ली के बल्लीमारान, चांदनी चौक की कासिम जान गली में स्थित एक छोटे से घर में ली. जिंदगी भर किराए के मकान में रहे. उनका अपना कुछ नहीं था. जो अपना था उसकी वजह से शाही दरबार से लेकर आम लोगों और रईसों को अपना फैन बनाया, और अरसे बाद भी अपने चाहने वालों के दिल व दिमाग में घर किए हुए हैं.
ग़ालिब को दिल्ली के निजामुद्दीन बस्ती में दफनाया गया. उनकी कब्रगाह को मजार-ए-गालिब के नाम से जाना जाता है और चांदनी चौक स्थित उनके घर को ग़ालिब की हवेली (ग़ालिब का घर) कहा जाता है. सफ़ेद संगमरमर से बनी ग़ालिब की मज़ार पर उनका लिखा शेर इस बात की गवाही देता है कि उनके फलसफा (दर्शन) का कोई सानी नहीं है:
“न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता.”
दिल्ली में रहते हुए ग़ालिब को कई तरह की उपाधी मिलीं. 1850 में बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र से "दबीर-उल-मुल्क" की उपाधि मिली. इन्हें बादशाह से "नज्म-उद-दौला" की उपाधि भी मिली. इन उपाधियों से नवाजे जाने के बाद मिर्जा गालिब दिल्ली के रईसों का हिस्सा बने. बादशाह से 'मिर्जा नोशा' की उपाधि प्राप्त करने के परिणामस्वरूप उन्हें मिर्जा नाम मिला. सम्राट के शासन काल में वह एक प्रमुख दरबारी भी रहे. चूंकि बादशाह खुद एक कवि थे, इसलिए गालिब 1854 में उनके कवि शिक्षक बन गए. उन्हें मुगल दरबार के शाही इतिहासकार और बहादुर शाह द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र राजकुमार फखर-उद दीन मिर्जा के शिक्षक के रूप में भी नियुक्त किए गए.
गालिब का असली नाम असदुल्लाह बेग खां था और पिता का नाम अब्दुल्लाह बेग था. जन्म मुगल साम्राज्य के दौरान आगरा (अकबरअबाद) में 27 दिसंबर 1797 को हुआ. बचपन में पांच बरस की उम्र में बाप रूखसत हो गया, नौ बरस का हुआ तो जिस चाचा ने पाला वो चल बसे, एक भाई बचा था वो पागल हो गया. 13 साल की उम्र में शादी कर दी गई. ग़ालिब ने बढ़ते कर्ज के चलते आगरा छोड़ दिया और दिल्ली में बसने का फैसला किया. लेकिन, ग़ालिब दिल्ली आए तो उनके कर्ज का बोझ और ज्यादा बढ़ गया.
अपनी ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव के अलावा ग़ालिब ने अफरातफरी का वो दौर भी देखा, जब एक तरफ मुगल सल्तनत आखिरी सांसें ले रही थी तो दूसरी ओर, नए ‘हाकिम’ अंग्रेज देश में सब कुछ ही बदल रहे थे. और इस बदलते परिवेश के साथ ग़ालिब के हालात भी बदल रहे थे.
पुराने के टूटने और नए के बनने में संघर्ष छिपा होता है. यह संघर्ष ग़ालिब के शायरी में बार-बार आता है कि जीवन एक अंतहीन संघर्ष है जो तभी समाप्त होता है जब जीवन स्वयं समाप्त हो जाता है. “क़ैदे-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं, मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों,” लिखने वाले ग़ालिब इस नश्वर दुनिया के फलसफे से बखूबी परिचित थे.
ग़ालिब की शायरी में मौत एक प्रमुख चिंता बनकर उभरती है. ग़ालिब जिस तरह से मौत के बारे में बात करते हैं, “मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद रात भर क्यों नहीं आती,” या "हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया, न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता," कि लगता है कि मौत उनके काव्य में एक पात्र का दर्जा प्राप्त कर लेता है.
अपने आखिरी दिनों में बीमारी, अकेलेपन और ग़रीबी ने ग़ालिब को अपनी अधूरी ख्वाहिशों पर एहतियात बरतने पर मजबूर कर दिया था. ग़ालिब का शेर “हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले” इसकी मिसाल है.
अपनी तमाम गरीबी और माली मुश्किलातों की फलसफे के साथ की भिडंत ने ही ग़ालिब को एक महान शायर में बदला था.
ग़ालिब ने अपनी शायरी में ने मज़हब से भी सवाल पूछा, ज़िन्दगी से भी सवाल पूछा और खुद से भी सवाल पूछा. अपनी खुद्दारी, अपनी अना, अपने अंदाज़ के साथ जिंदा रहे. ज़िन्दगी से अकेले टकराते हुए इस शख्स ने उर्दू ग़ज़ल में वो चांद-सितारे टांके कि आज भी उसकी जगमगाहट उनके पैदाइशी शहर आगरे के ताजमहल में नज़र आती है.