घरेलू हिंसा ने सुमित्रा देवी को लौह महिला बना दिया
"कभी नोबल पुरस्कार के लिए नामित की जा चुकी सहारनपुर (उ.प्र.) के गांव डिगोली की सुमित्रा देवी को ससुरालियों की घरेलू हिंसा ने लौह महिला बना दिया। दशकों से वह बहत्तर साल की उम्र में आज भी सरकारी, गैरसरकारी मंचों के माध्यम से अपने इलाके की पीड़ित, परेशान हजारों महिलाओं के लिए संघर्षरत हैं।"
सहारनपुर (उ.प्र.) के गांव डिगोली की सुमित्रा देवी को बाल विवाह के बाद ससुरालियों के अत्याचार ने लौह महिला बना दिया। अनपढ़ होने के बावजूद लगभग 72 की उम्र में भी आज वह अपने इलाके के अलावा दूर-दराज तक की उत्पीड़ित महिलाओं को पिछले कई दशकों से स्वयं ग्राम पंचायत, थाना-कचहरियों तक न्याय दिलाने में जुटी हुई हैं। वह 1990 के दशक से 'महिला समाख्या' की राहों पर चलती हुई हजारों महिलाओं के शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बंधी कार्यों में भी मदद कर चुकी हैं। महिला समाख्या के संयोजन में अभी पिछले महीने लखनऊ में जब 'नई पहचान' नाम से घरेलू हिंसा पीड़ित महिलाओं का राज्य स्तरीय सम्मेलन हुआ तो उसमें राज्य के 19 जनपदों की लगभग सात सौ महिलाओं में एक नाम नेतृत्व के तौर पर सुमित्रा देवी का भी रहा।
गौरतलब है कि नीदरलडैं सरकार के समर्थन से भारत सरकार ने 1989 में पहले चरण में तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक में महिला समाख्या कार्यक्रम शुरू किया था। वर्तमान में महिला समाख्या योजना 11 राज्यों आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, केरल, गुजरात, उत्तर प्रदेश उत्तराखंड, छत्तीसगढ और तेलांगाना के 126 जिलों के शैक्षिक रूप से पिछ्ड़े 630 विकास खंडों के 44,706 गांवों में चलाई जा रही है। वर्ष 1917 से उत्तर प्रदेश के 19 जिलों के 17, 206 गांवों में इसे सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग की राज्य परियोजना के रूप में संचालित किया जा रहा है। इस समय दो लाख से अधिक महिलाएं इससे जुड़ी हैं।
आज, जबकि यूपी में औसतन रोजाना 30 महिलाओं का अपहरण हो जाता है, ऐसे में सुमित्रा देवी जैसी जागरूक और अनुभव संपन्न महिलाओं की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। अन्य राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश में महिलाओं से जुड़े आपराधिक मामलों का अनुपात 14.5 प्रतिशत अधिक हो। महिला समाख्या से जुड़ी सुमित्रा जैसी जो महिलाएं पहले आरोपित पुरुषों की ओर देखे बिना ही बात करती थीं, आज वे दोषियों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने से लेकर कानूनी बहस तक करने में नहीं हिचकती हैं। उल्लेखनीय है कि महिला समाख्या की नारी अदालत में 1997 से दिसंबर 2018 तक दर्ज कुल 21,429 मामलों में से 15,958 का निस्तारण कराया जा चुका है। इस संगठन के संजीवनी केंद्र 1998 से इस साल फरवरी 2019 तक 1,13,514 पीड़ित महिलाओं का इलाज भी करा चुके हैं।
बचपन में ही पिता गुजर जाने के बाद सुमित्रा देवी मात्र पंद्रह साल की उम्र में ब्याह दी गई थीं। ससुराल में वह शुरू से ही आए दिन पति के हाथों पिटते रहने की त्रासदी झेलने लगीं। पिता थे नहीं कि उनकी मदद करने आते, मां भी मजदूरी से घर चलाती थीं तो उनसे भी किसी तरह के सहयोग की उम्मीद नहीं थी। ससुराल में उनकी पिटाई की एक ही वजह होती कि वह दहेज में कुछ लेकर नहीं आई थीं।
ससुरालियों का अत्याचार बर्दाश्त करते-करते सुमित्रा देवी में प्रतिरोध की शक्ति आने लगी। वह भले पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन अब अपनी जिंदगी सुरक्षित रखने के लिए उन्हे क्या रुख अख्तियार करना चाहिए, अनुभवों से सीख गईं। अपनी तरह की पीड़ित महिलाओं से उनकी निकटता होने लगी। धीरे-धीरे वह उनके दुख-दर्द, घरेलू हिंसा को लेकर मुखर हो चलीं। ऐसे घरों में उनका सरोकार और हस्तक्षेप बढ़ा तो महिलाओं की सामूहिक बैठकों में जाने लगीं। अपने स्तर पर उनकी सुनवाई, पूरे वाकये की जानकारी जुटाने के बाद उनको न्याय दिलाने के लिए थाना-कचहरी जाने लगीं। इस तरह कुछ साल बाद पुलिस अधिकारी उनके प्रतिरोध को जायज मानते हुए मामले निपटाने में उनसे मदद लेने लगे। दशकों पहले जब वह सहारनपुर में महिला समाख्या की ओर से आयोजित 'नारी अदालत' से जुड़ीं, वह एक बड़ी शख्सियत के रूप में पहचानी जाने लगी थीं।
वर्ष 2005 में सुमित्रा देवी को नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया था। वह आज भी खास कर अपने इलाके की पीड़ित-परेशान तमाम महिलाओं को लेकर थाना, कचहरी, स्वास्थ्य और शिक्षा विभाग, ग्राम पंचायतों के चक्कर लगाती रहती हैं। वह बताती हैं कि 'समाख्या' ने 1990 में जब महिला सशक्तीकरण की सहारनपुर में पहल शुरू की, उन दिनो खासकर नारी अदालत की गतिविधियों ने उन्हे आकर्षित किया क्योंकि उससे महिलाओं को अभिव्यक्ति का मंच मिल गया।
सुमित्रा देवी अब हजारों महिलाओं के न्याय की लड़ाई लड़ती हुई जिले के पांच ब्लॉक में पांच नारी अदालतों में होने वाली सुनवाई में भाग लेकर खुद को गौरवान्वितमहसूस करती हैं। 'समाख्या' के उद्देश्य हैं- महिलाओं की आत्मछवि तथा आत्मविश्वास का विकास, उनके लिए ज्ञान और सूचना उपलब्ध कराने में पहले, प्रबंधन की विकेंद्रीकृत तथा सहभागी पद्घति तैयार करना, महिला संघों को गांवों में शैक्षिक कार्यकलापों की सुविधा, उनके लिए शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना और औपचारिक-अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रमों में महिलाओं तथा लड़कियों की अधिकाधिक सहभागिता।