खेती के नए-नए मॉडल से किस्मत बदल रहे किसान
महाराष्ट्र के किसान लड़कर जीत रहे तो पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के किसान खेती में नए-नए मॉडल विकसित कर, कांट्रैक्ट फार्मिंग कर, यहां तक कि खेती में काम आने वाली मशीनें स्वयं बनाकर, दूर-दूर तक उनकी बिक्री कर गांवों की किस्मत बदल रहे।
किसान आंदोलन पिछले 20 साल से जो हासिल नहीं कर पा रहे थे, महाराष्ट्र में 10 दिन के किसान संघर्ष ने वह हासिल कर लिया है। आने वाले निकट भविष्य में इसके दूरगामी असर सामने आ सकते हैं। अलग-अलग संगठन अलग-अलग धरने, प्रदर्शन, चक्काजाम की घोषणाएं कर चुके हैं। इसका कारण माना जा रहा है हमारे देश का कृषि विरोधी विकास मॉडल।
कुछ समय से देश में लगातार चर्चाओं के केंद्र में हैं किसान। गांवों से जुड़ी किसान-सुर्खियों को तीन तरह से जानने-समझने की जरूरत है। एक: राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद वैश्विक खाद्य व्यापार में क्रांतिकारी बदलावों को देश के हर खेत और प्रत्येक किसान तक पहुंचाने पर बल दे रहे हैं। दो: महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के पुणतांबे गांव से शुरू हुई हड़ताल सफल अंजाम तक पहुंचने के बाद कई नए तरह के संदेश दे रही है। तीन: देश के अलग-अलग राज्यों के हम युवा और उम्रदराज ऐसे पांच किसान उद्यमियों की सफलता से सीख लेते हैं, जिन्होंने अपनी मेहनत और हुनर से कमाल कर दिखाया है।
हाल ही में सोनीपत (हरियाणा) में एनआईएफटीईएम के दीक्षांत समारोह में राष्ट्रपति ने कहा कि हमारे दृढ़ निश्चियी और प्रतिबद्ध किसानों ने अपने उत्पादों को विश्व स्तर पर प्रस्तुत किया है। भारतीय कृषि उत्पाद चावल, दूध, फल, सब्जियां, मिर्च आदि विश्व की सुपरमार्किट में बिक रहे हैं। अब बड़े पैमाने पर न्यूक्लियर परिवारों के दृष्टिगत भारत में पैक्ड और रेडी-टू-इट खाद्य उत्पादों की मांग बढ़ने वाली है। ऐसे में स्वदेशी उत्पादों की गुणवत्ता हमारी बड़ी चुनौती है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग क्षेत्र के विस्तार की दिशा में 14 अरब डालर के समझौते अब तक किए जा चुके हैं।
इससे देश के लिए एक सुखद भविष्य की बड़ी खुशहाली का संदेश मिलता है लेकिन महाराष्ट्र के किसानों की कामयाब अंगड़ाई ने भारतीय किसानों के दूसरे तरह के हालात की सच्चाइयों की तरफ पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है। वहां के पुणतांबे गांव की हड़ताल से फूटी चिंगारी मध्य प्रदेश के मंदसौर तक छिटककर गोलीकांड के बाद पूरे देश में फैल गई है। अब तक राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में किसान आंदोलन फैलने तेजी से उभरते जा रहे हैं। किसान आंदोलन पिछले 20 साल से जो हासिल नहीं कर पा रहे थे, महाराष्ट्र में 10 दिन के किसान संघर्ष ने वह हासिल कर लिया है। आने वाले निकट भविष्य में इसके दूरगामी असर सामने आ सकते हैं। अलग-अलग संगठन अलग-अलग धरने, प्रदर्शन, चक्काजाम की घोषणाएं कर चुके हैं। इसका कारण माना जा रहा है हमारे देश का कृषि विरोधी विकास मॉडल। एक तो कृषि उपज का वाजिब दाम न मिल पाना और उन पर लदा करोड़ों रुपए का कर्ज, जो उन्हें आत्महत्याओं के लिए विवश करने लगा है। लेकिन इन्ही हालात में आइए, देश के पांच किसान पुरुषार्थियों पर नजर दौड़ाते हैं, जिनकी मेहनत और हुनर से खेत-खलिहान के विकास को चार चांद लग रहे हैं।
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ऐसे ही आंध्र प्रदेश के एक अस्सी वर्षीय किसान नेकांति सुब्बा राव, जिन्होंने एक एकड़ में 10 टन 'आईआर-8' चावल का उत्पादन कर दिल्ली में कृषिमंत्री सुदर्शन भगत को चौंका दिया है। इस असाधारण किस्म के चावल के उत्पादन पर अचरज की एक वजह और है, उसने लाखों लोगों की जिंदगी बचाई है। इंडोनेशिया की पेटा प्रजाति और चीन की डीजीडब्लूजी प्रजातियों की क्रॉस ब्रीडिंग से उपजी धान की आईआर-8 संकर प्रजाति की उत्पादकता हैरतअंगेज हैं। ऐसी ही एक उन्नत प्रजाति है - गोल्डन राइस, जो विटामिन ए की क्षतिपूर्ति करता है। उल्लेखनीय है कि विटामिन ए की कमी से हर वर्ष लाखों बच्चों की मौत हो जाती है। अपनी तमाम खूबियों के कारण आईआर-8 ने लाखों लोगों की जिंदगी को बदलकर रख दिया है।
इसी तरह के पंजाब के गांव धीरा पत्तरा के किसान हैं बूटा सिंह, जो छह साल से तीन तरीकों से केमिकल और पेस्टीसाइड्स रहित खेती कर रहे हैं। साथ ही वह देसी गायों की नस्ल भी सुधार रहे हैं। वह भगत पूर्ण सिंह पिंगलवाड़ा की किताब 'कुदरती खेती कैसे करें' पढ़ने के बाद से पेस्टीसाइड रहित फसलों की खेती में जुट गए। इससे उनके घर के बीमार लोग धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगे। इन दिनो वह गेहूं, गन्ना, सब्जी, फल, लहसुन, आंवला, तुलसी की खेती कर रहे हैं। वह अब अपनी दस साहीवाल गायों, तीन बैलों, दस बछड़ियों से भी अच्छी-खासी कमाई कर रहे हैं। उनकी गायों का दूध सत्तर रुपए लीटर तक और उनका देसी घी दो हजार रुपए किलो तक बिक रहा है।
उन्होंने छावनी में ही आउटलेट खोल रखा है। मूलतः फरीदकोट (पंजाब) के रहनेवाले किसान रेशम सिंह की राजस्थान के हनुमानगढ़ में कृषि उपकरणों का वर्कशॉप है। एक वक्त में घर की माली हालत ठीक न होने से उनकी पढ़ाई छूट गई थी। राजमिस्त्री का काम करने लगे। फिर कविताएं लिखने लगे। इसके साथ ही वह तरह तरह के कृषि उपकरणों के प्रयोग में भी जुटे रहे। फिर कटर और ब्लेंडिंग मशीन ईजाद की। मानसा (पंजाब) के कुलदीप सिंह का तो बचपन से ही पढ़ाई में मन नहीं लगता था। उन्होंने बड़े होने पर मिश्रित कटाई मशीन बनाई। इसके बाद उन्होंने 2005 से 2009 तक लगातार मेहनत कर लैंड लेवलिंग मशीन का आविष्कार कर दिया।
इन दोनों किसानों तक जिन खेतिहरों की पहुंच बन चुकी हैं, उनकी खेती का सबसे टेढ़ा काम चुटकियों में आसान कर दिया गया है। दोनों की मशीनें एक दिन में लगभग पांच एकड़ जमीन समतल कर देती हैं। इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। कुलदीप सिंह की लगभग दो सौ मशीनें अब तक पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात में बिक चुकी हैं, जबकि रेशम सिंह अब तक तीन दर्जन से अधिक मशीनें अपने गृहनगर के क्षेत्र हनुमानगढ़ में बेच चुके हैं। इसी तरह के एक प्रतिभाशाली और उन्नतशील किसान बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के गांव मेधपुर निवासी वसंत राव काले के पौत्र सचिन। वह खेती-किसानी का नया मॉडल, कांट्रेक्ट फार्मिंग की ओर रुझान बढ़ाकर गांवों में खुशहाली ला रहे हैं।
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आरईसी नागपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग, लॉ ग्रेजुएट और एमबीए (फाइनेंस) कर चुके सचिन जब डेवलेपमेंटल इकॉनोमिक्स में पीएचडी की पढ़ाई कर रहे थे, उन्होंने सोचा कि कहीं नौकरी की बजाए वह क्यों न किसानों के लिए कुछ अनोखा ऐसा कर दिखाएं, जिससे गांवों में खुशहाली आ सके। इस बीच दादा वसंत राव उनको खेती पेशे के रूप में अपनाने के लिए उत्साहित करते रहते। इसके बाद वह गुड़गांव की अपनी ठाट-बाट की जिंदगी को हमेशा के लिए नमस्ते बोलकर अपने गांव मेधापुर लौट गए। गुड़गांव (गुरुग्राम) में वह 24 लाख के पैकेज पर मैनेजर की नौकरी कर रहे थे।
वहां से मिले प्रॉविडेंट फंड का सारा पैसा उन्होंने खेती में झोक दिया। वह कांट्रेक्ट फार्मिंग विकसित करने में जुट गए। उन्होंने खुद की इनोवेटिव एग्रीलाइफ सोल्युशंस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाई। कृषि महाविद्यालय, बिलासपुर के विशेषज्ञों की मदद ली। अब उनकी कंपनी कांट्रेक्ट फार्मिंग के जरिए किसानों और व्यापारियों के बीच तालमेल बना देती है। सचिन बताते हैं कि एक समझौते के तहत शर्तों के मुताबिक दोनों पक्षों में कृषि उत्पादन की खरीद-फरोख्त का समझौता होता है। धीरे-धीरे उनका मॉडल चर्चित होने लगा।
अब किसानों के खेत हर मौसम में फसलें उगाने लगे। इस समय उनकी कंपनी के सैकड़ों एकड़ कृषि फार्म से लगभग डेढ़ सौ किसान सक्रिय हैं और उनकी कंपनी का टर्नओवर दो करोड़ तक पहुंच चुका है। वह सिर्फ फसल उत्पाद खरीद कर सीधे व्यापारियों को बेच देते हैं। गांवों को खुशहाल करने में बरेली (उ.प्र.) के प्रतीक बजाज का प्रयोग भी बड़े काम का साबित हुआ है। वह सीए की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वर्मी कंपोस्ट के जरिए किसानों की आमदनी दोगुनी कर रहे हैं। जैव अपशिष्ट प्रबंधन के एक व्याख्यान ने उनके कैरियर की दिशा ही बदल दी। परधोली गांव में सात बीघे जमीन पर वह ‘ये लो खाद’ ब्रांड नाम से वर्मी कंपोस्ट की आपूर्ति करने लगे।
अब उनकी कंपनी सालाना 12 लाख रुपये कमा ले रही है। इससे पहले प्रतीक ने इज्जतनगर स्थित कृषि विज्ञान केंद्र से जैव अपशिष्ट एवं वर्मीन कंपोस्ट के बारे में प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनके भाई का डेयरी उद्योग है। प्रशिक्षण के बाद प्रतीक उस डेयरी गायों के गोबर और मूत्र से कंपोस्ट बनाने लगे। अब वह अपने इस काम में जुनून की हद तक जुटे हुए हैं। वह मंदिरों के बासी फूल, सब्जी बाजारों, चीनी मिल के कचरों से कंपोस्ट तैयार कर रहे हैं। साथ ही रसायन मुक्त कीटनाशकों की मदद से जैविक खेती भी कर रहे हैं। उनके इस उद्यम से तमाम किसान लाभान्वित हो रहे हैं। अब तो नोएडा, गाजियाबाद, बरेली, शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड तक उनके कंपोस्ट की भारी डिमांड है।
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