मां का काता सूत बेचता बच्चा एक दिन बना देश के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार

स्कूल की फीस देने के लिए जिसके पास नहीं होते थे पैसे वो बने देश के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार.... 

मां का काता सूत बेचता बच्चा एक दिन बना देश के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार

Wednesday May 09, 2018,

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प्रसिद्ध व्यंग्यकार रवींद्रनाथ त्यागी का बचपन बहुत ही कष्टसाध्य रहा। उनके पास स्कूल की फीस तो दूर, खाने-पीने तक के पैसे नहीं होते थे। वह अंग्रेजी स्कूल में पढ़ना चाहते थे। गरीबी में संभव नहीं रहा। वह मां का काता हुआ सूत साप्ताहिक पैठ में बेचा करते। एक शिक्षक के सहयोग से पढ़ा-लिखा, फर्स्ट क्लास पास हुए, वजीफा मिला और एक दिन इंडियन डिफेंस एकाउंट्स सर्विस में उन्हें नौकरी मिल गई। जिंदगी चल पड़ी।

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 सफलता के सोपान चढ़ते हुए वह वर्ष 1954 में सिविल सर्विस परीक्षा पास कर इंडियन डिफेंस एकाउंट्स सर्विस में नियुक्त हुए। वर्ष 1989 में वह कंट्रोलर ऑफ डिफेंस एकाउंट्स के पद से देहरादून से सेवानिवृत हुए। इसके बाद उन्होंने वहीं अपना स्थाई निवास बना लिया। 

हिंदी साहित्य के अतिप्रतिष्ठित व्यंग्यधर्मी रवींद्रनाथ त्यागी का आज (9 मई) जन्मदिन है। बिजनौर (उ.प्र.) के छोटे से कस्बे नहटौर के रहने वाले इस जाने-माने लेखक का 4 सितम्बर, 2004 को निधन हो गया था। बिजनौर साहित्यिक हस्तियों की दृष्टि से अत्यंत उर्वर रहा है। इसी जनपद ने हिंदी साहित्य को दुष्यंत कुमार जैसा शीर्ष ग़ज़लकार दिया। उनका बचपन अत्यंत कष्टसाध्य रहा। उनके पास स्कूल की फीस तो दूर, खाने-पीने तक के पैसे नहीं होते थे। वह अंग्रेजी स्कूल में पढ़ना चाहते थे, लेकिन हालात खराब थे। वह मां का काता हुआ सूत साप्ताहिक पैठ में बेचा करते थे। मोहल्ले के ही एक अंग्रेजी स्कूल के शिक्षक के सहयोग से उन्होंने आठवीं कक्षा में प्रवेश लिया और फर्स्ट क्लास पास होने से उन्हें वजीफा मिलने लगा। सफलता के सोपान चढ़ते हुए वह वर्ष 1954 में सिविल सर्विस परीक्षा पास कर इंडियन डिफेंस एकाउंट्स सर्विस में नियुक्त हुए। वर्ष 1989 में वह कंट्रोलर ऑफ डिफेंस एकाउंट्स के पद से देहरादून से सेवानिवृत हुए। इसके बाद उन्होंने वहीं अपना स्थाई निवास बना लिया। नहटौर (बिजनौर) का मकान उन्होंने योगेन्द्र अग्रवाल को बेच दिया। उन्होंने मकान को पक्का बनवा दिया। त्यागी जब तक रहे, प्रतिवर्ष मई-जून महीने में नहटौर जरूर जाया करते थे।

उन्होंने मित्रों के बीच एक बार कहा था कि 'मैं मूलत: कवि हूं, लेकिन मेरे व्यंग्यकार ने मुझसे धोखा किया और वह मेरे काव्यकर्म पर भारी पड़ गया और मेरी पहचान व्यंग्यकार के रूप में हो गई। मेरा कवि भटक गया। व्यंग्य, उपन्यास, कविता, बालकथा आदि उनकी प्रमुख रचनात्मक विधाएँ रही हैं, जिनमें उनकी वसन्त से पतझर तक, भाद्रपद की साँझ, एक फाइल का सफर, पूरब खिले पलाश, कबूतर, कौए और तोते आदि कृतियां चर्चित रही हैं। उन्होंने उर्दू हिंदी हास्य-व्यंग्य का संपादन भी किया। अपनी लोकप्रिय कृतियों पर वह सरस्वती सम्मान, चकल्लस पुरस्कार, टेपा पुरस्कार, व्यंग्यश्री पुरस्कार, शरद जोशी पुरस्कार, हरिशंकर परसाई पुरस्कार आदि से समादृत किए गए।

अपनी एक व्यंग्य रचना में रवीन्द्रनाथ त्यागी लिखते हैं- 'मैं हिन्‍दी का लेखक हूँ। लेखक की सबसे बड़ी पूँजी उसकी भाषा होती है। नितान्‍त गरीबी की स्थिति में भी उर्दू के महान कवि मीर तकी मीर ने एक सेठ जी से, जिनकी गाड़ी में वे बिना टिकट यात्रा कर रहे थे, सिर्फ इस कारण बातचीत करने से इनकार कर दिया था कि उन्‍हें वैसा करने से अपनी जबान खराब हो जाने का खतरा था। मगर दु:ख की बात यह है कि ऐसा लगता है जैसे कि सारी सरकारी और गैर-सरकारी संस्‍थाओं ने इस बात का निश्‍चय कर लिया है कि मेरी भाषा खराब हो जाए। इन प्रयत्‍नों को देखकर मेरा रक्‍त खौलने लगता है और समझ में नहीं आता कि क्‍या करूँ। क्‍या मुद्रण और क्‍या अनुवाद और क्‍या उच्‍चारण और क्‍या व्‍याकरण - हिंदी जो है, वह सारे क्षेत्रों में वीरगति प्राप्‍त करती जा रही है। मेरा निश्चित मत है कि मेरी भाँति हिन्‍दी के शेष पाठक भी यही महसूस करते होंगे। जैसा कि जाहिर है, पाठक से मेरा अभिप्राय पढ़नेवाले से है, न कि सर्वश्री श्रीधर पाठक, वाचस्‍पति पाठक या उपराष्‍ट्रपति गोपालस्‍वरूप पाठक इत्‍यादि से। इस प्रकार के भ्रमों को शुरू में ही मिटा देना सदा से जरूरी होता आया। मैं गाड़ी पकड़ने स्‍टेशन जाता हूँ और खिड़की पर देखता हूँ कि टीकट लेने के बाद रेजगारी गिनना जरूरी है। तबीयत होती है कि खिड़की के उधर बैठे टिकट बाबू की हत्‍या कर दूँ मगर वैसा मैं कर नहीं पाता। उसके और मेरे बीच में लोहे के सींखचे लगे हैं और सिवाय एक छोटे से गोल छेद के, जिसमें हाथ डालकर मैं टिकट खरीदता हूँ, आवागमन का और कोई साधन नजर नहीं आता। जहाँ तक उस छोटे से गोलाकार छेद का प्रश्‍न है, स्थिति इतनी नाजुक है कि उसमें मेरा हाथ ही मुश्किल से जाता है और इस कारण उस गवाक्ष मार्ग से जहाँ तक अपने स्‍वयं जाने का प्रश्‍न उठता है, अपनी सेहत को ध्‍यान में रखते हुए वह कुछ कठिन-सा प्रतीत होता है। कम-से-कम फिलहाल। बस में चढ़ता हूँ तो वहाँ लिखा है कि ‘धम्रपान न करें।’ क्‍योंकि मना तो ‘धम्रपान’ के लिए है न कि ‘धूम्रपान’ के लिए है। नतीजा यह रहता है कि बस का ड्राइवर और कण्‍डक्‍टर, दोनों बीड़ी पीते हैं और एक सिगरेट मैं भी सुलगा लेता हूँ। जो सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होती हैं, वहाँ प्राय: ‘महिलाएँ’ के स्‍थान पर ‘हिलाएँ’ लिखा रहता है जिसका कि सही अर्थ मेरी पकड़ में कभी नहीं आया। किसे ‘हिलाएँ’? महिला को या कि सीट को? पार्क में जाता हूँ तो तख्‍ती लगी देखता हूँ कि – बिना आज्ञा के फुल तोड़ना मना है’। तमन्‍ना तो यह होती है कि पार्क के सारे फूल आज ही तोड़ डालूँ पर क्‍योंकि यह पार्क कॉरपोरेशन का है, इसमें कोई फूल कभी होता ही नहीं। वसन्‍त हो या वर्षा, यहाँ सिर्फ घास ही खिलती है।'

आगे वह लिखते हैं - 'मैं आपको कीमती कागज पर छपी एक नयी पोथी दिखाना चाहता हूँ जो हिन्‍दी के एक प्रतिष्ठित विद्वान ने लिखी है। पुस्‍तक का हास्‍य रस से कोई संबंध नहीं है पर फिर भी हालत यह है कि आप चाहें तो रो लें और चाहें तो कलेजा खोलकर हँस लें। ‘सूत्रधार’ की जगह ‘मूत्रधार’ छपा है जो कहीं ज्‍यादा प्रवाह रखता है। दो कवयित्रियों के काव्‍य के स्‍तर की तुलना करते हुए लिखा गया है कि "कुल मिलाकर अमुक कवयित्री का स्‍तन (मुराद स्‍तर से है) अमुक कवयित्री के स्‍तन से ऊँचा ठहरता है।" वैसे यह भी हो सकता है कि जो स्थिति मुद्रित की गयी है वह वाकई सच्‍ची हो पर फिर भी आलोचक की इच्‍छा इतना अंतरंग होने की कदापि नहीं रही होगी। यह मेरा विश्‍वास है जो गलत भी हो सकता है। ये ऐसे ही कम्‍पोजीटर और प्रूफरीडर हैं जो अपने पेशे को कला के स्‍तर पर स्‍थापित करते हैं। भवभूति के शब्‍दों में कभी इनका भी कोई पारखी पैदा होगा। बोलचाल में जो गलतियाँ होती हैं वे भी काफी शानदार होती हैं। एक तो हमारा व्‍याकरण ही कुछ गलत है। अब यह कोई बात हुई कि ‘घड़ी’ का ‘पुंल्लिंग ‘घड़ा’ होता है और ‘संतरी’ का ‘संतरा’। यूँ कभी-कभी संतरी भी पु‍ल्लिंग होता है पर कुछ कम। छोटी-सी ‘शंका’ हो तो जान-बूझकर भी आप उसे ‘लघुशंका’ नहीं कह सकते। मैं एक ग्रामीण नेता को जानता हूँ जिनका कि कोई भाषण कभी खलास नहीं गया। अपनी इस सफलता का रहस्‍य ये स्‍वयं भी नहीं जानते। बात यह है कि अपने भाषण में तत्‍सम शब्‍दों का और संस्‍कृत की उक्तियों का प्रयोग ये जरूर करेंगे हालाँकि इन्‍हें यह पता नहीं कि ‘पाणिनि’ और ‘अष्‍टाध्‍यायी’ में से लेखक कौन था और पुस्‍तक कौन थी। एक बार गंगास्‍नान के पवित्र अवसर पर काफी बड़ी भीड़ के सामने बोलने जो खड़े हुए तो पहले ही वाक्‍य से प्‍लासी की लड़ाई खत्‍म हो गयी। बजाय यह कहने के कि ‘मैं आपके साथ इस विषय पर बातचीत करना चाहता हूँ’ इन्‍होंने जो कुछ कहा वह यह था कि ‘देवियो, माताओ और बहिनो, मैं आपके साथ विषय करना चाहता हूँ।’ मैं तो पण्‍डाल छोड़कर ऐसा भागा कि डेरे पर आकर ही रुका। वहाँ मुझे सहसा यह महसूस हुआ कि गलती मेरी थी, वे शायद सच ही बोल रहे थे।'

आज के वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य लेखकों में रवीन्द्रनाथ त्यागी का लेखन अपने अलग ढंग का रहा है। उस पर पूर्ववर्ती तथा समकालीन लेखकों का कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं होता है। उन्होंने लगभग स्वतन्त्र रूप में अपना सृजन-लोकतन्त्र विकसित किया। उनकी कलात्मक अभिरुचियाँ परिष्कृत और साहित्य का अध्ययन गहन है। वह उनके लेखन में उसे सम्पन्न बनाते हुए बोझिल होने से बचाते हुए सहज रूप में प्रतिबिम्बित होता है। त्यागी का एक व्यंग्य है- 'हमारा प्राचीन साहित्य', जिसमें वह साहित्य की रूढ़ियों और समाज की कड़वी सच्चाइयों पर साध-साध कर खूब गहरे तंज करते हैं - 'स्‍त्री को हर प्रकार से निचला स्‍थान देने के बाद, हमारे शास्‍त्रकार कहा करते थे कि जहाँ-जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ-वहाँ देवता निवास करते हैं। नार्यस्‍तु यत्र पूज्‍यन्‍ते, रमन्‍ते तत्र देवता:। जहाँ तक प्राकृत या पालि भाषा का प्रश्‍न है, वे तो मात्र शिलालेखों पर उत्‍कीर्ण करने के लिए ही प्रयुक्‍त होती हैं, वैसे कभी नहीं। मेरा विचार है कि पुराने जमाने में यदि कोई व्‍यक्ति पालि या प्राकृत में बात करना चाहता था तो आचार्य उससे यही कहते थे कि 'जाओ, एक अदद शिला या स्‍तूप ले आओ, बा‍की बात बाद में करेंगे। अपने इस प्राचीन साहित्‍य में जो बात मुझे सबसे पहले आकृष्‍ट करती है वह यह है कि जो भी प्रसंग आपके मतानुसार न हो, उसे आप 'क्षेपक' कहकर आसानी से टाल सकते हैं। इस पुराने साहित्‍य में 'क्षेपक साहित्‍य' जो है वह 'मूल साहित्‍य' से कहीं ज्‍यादा है। हमारे एक संस्‍कृत के प्रोफेसर थे जो जरूरत से ज्‍यादा चतुर थे। उन्‍हें जो भी स्‍थल ऐसा मिलता था जिसका कि वे अर्थ नहीं जानते थे, उसे वे हमेशा यह कहकर टाल जाते थे कि यह 'अश्‍लील' है, लड़कियों के सामने इसका अर्थ नहीं बताया जा सकता। उनकी क्‍लास समाप्‍त होने के बाद, सबसे पहले हम उन्‍हीं स्‍थलों का अनुवाद खोजते थे और इस दिशा में लड़कियाँ जो थीं, वे भी कम उत्‍सुक नहीं रहती थीं। हम लोग प्राय: निराश ही होते थे क्‍योंकि उस तथाकथित अश्‍लील प्रसंग में हमें ऐसा कोई भाग पढ़ने को कभी नहीं मिला जिसे हम पहले से ही न जानते हों। इस सबके अतिरिक्‍त एक और बात जो परेशान करती थी वह यह थी कि यदि वह प्रसंग इतना अशोभनीय था तो फिर पाठ्यक्रम में रखा ही क्‍यों गया था?'

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