तेरी चिता की कोख से अब सूरज निकले
निर्भया कांड में जाग्रत हुई भारतीय चेतना भले ही अल्पकालिक रही हो किंतु स्वस्फूर्ति थी। किसी सियासी एजेंडे का परिणाम न हो कर पूरे भारतवर्ष के जन मानस की समेकित भावनात्मक अभिव्यक्ति थी। तो क्या वह भावानात्मक ज्वार सिर्फ दोषियों की फांसी की फरमाईश तक ही महदूद था। क्या फांसी की भूखी भीड़ को कुछ लाशें ही चाहिए थीं, जिससे उसकी क्षुधा कुछ देर को शांत हो सके और फिर उन्माद का कोई और मुद्दा आ जायेगा?
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मात्र फांसी की सजा दे देने से बलात्कार रुक जायेगा? बलात्कारी के शिश्नोच्छेद की मांग को मान लेने से परिणाम प्राप्त हो जायेगा?
इंसाफ के इतिहास में चंद मौके ऐसे आये होंगे जब अदालत ने फांसी की सजा का ऐलान किया हो और जनमानस ने ताली बजा कर फैसले का खैरमकदम और अपने फैसले की मुहर लगाई हो। देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में कुछ ऐसा ही मंजर पेश आया, जब सर्वोच्च अदालत ने निर्भया कांड के तमाम दोषियों की फांसी की सजा को उचित ठहराते हुये कहा कि इस फैसले में अपराध की जघन्यता को तरजीह देते हुए इन दोषियों की फांसी की सजा बरकरार रखी जाती है। इस मामले में इन दोषियों की पृष्ठभूमि कोई मायने नहीं रखती।
फैसले का ऐलान होते ही निर्भया के माता-पिता की आखों से झरते हुये आंसुओं की एक-एक बूंद में, उम्र भर के लिये बेटी को खो देने की पीड़ा, वो तड़पन और दर्द जो निर्भया के साथ पूरे हिंदोस्तान ने दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में महसूस किया था, वो करवट-करवट तड़प जो निर्भया ने चेतन और अवचेतन स्थिति में झेली थी, का अक्स साफ दिखाई पड़ रहा था। लेकिन जनता की तालियों की गड़गड़ाहट ने दर्द पर दवा का काम किया।
यहां एक बात काबिल-ए-गौर है कि निर्भया कांड में जाग्रत हुई भारतीय चेतना भले ही अल्पकालिक रही हो किंतु स्वस्फूर्ति थी। किसी सियासी एजेंडे का परिणाम न होकर पूरे भारतवर्ष के जन मानस की समेकित भावनात्मक अभिव्यक्ति थी। तो क्या वह भावानात्मक ज्वार सिर्फ दोषियों की फांसी की फरमाईश तक ही महदूद था? क्या फांसी की भूखी भीड़ को कुछ लाशें ही चाहिए थीं जिससे उसकी क्षुधा कुछ देर को शांत हो सके और फिर उन्माद का कोई और मुद्दा आ जायेगा? बिल्कुल नहीं। तो फिर? दरअसल वह दुराचार मुक्त व्यवस्था की चाह में उठा आंदोलन था। लिहाजा यहां सवाल उत्पन्न होता है कि क्या मात्र फांसी की सजा दे देने से बलात्कार रुक जाएगा? बलात्कारी के शिश्नोच्छेद की मांग को मान लेने से परिणाम प्राप्त हो जायेगा?
दरअसल बलात्कारी मानता है कि शील भंग के बाद पीडिता किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं बची, अब तो उसका जीना मरने से भी बदतर है। इन्हीं मूल्यों के कारण पुरुष बदला लेने के लिए भी बलात्कार को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हैं। बलात्कारी को मृत्युदंड या शिश्नोच्छेद की मांग करने वालों के भी मूल्य यही हैं कि अब स्त्री के पास बचा ही क्या?
दीगर है कि बलात्कार और छेडख़ानी का संबंध शराब, अश्लील फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों से लेकर पूरी एक सामाजिक संरचना से है, लेकिन तमाम स्थितियों पर कोई सवाल खड़े नहीं हो रहे हैं। लोकतंत्र में सामाजिक सुरक्षा चक्र और सामाजिक चेतना ही वास्तविक कानून होता है। व्यवस्थागत कानून की भूमिका महज सहायक की होती है। अगर सचमुच देश में इतनी बड़ी आबादी महिला उत्पीडऩ के विरोध में हो जाये तो वहां ऐसी घटनाएं अतीत की बात हो जानी चाहिए। अगर सिर्फ कानूनों को कठोर बना कर समाज को अपराध मुक्त किया जा सकता तो मृत्युदंड के भय के कारण समाज में हत्या जैसे जघन्य अपराध न होते। फांसी से अधिक, यौन अपराध क्यों बढ़ रहे हैं, इस पर समाजशास्त्रियों और जागरूक नागरिकों को मंथन करने की जरूरत है।
सरकार को पहले से मालूम है कि उसे महिलाओं की सुरक्षा के लिए कितने व्यापक स्तर पर उपाय करने हैं। मामला छोटे-मोटे सुधारों से हल होने वाला नहीं है, क्योंकि समस्या ने विकराल रूप ले लिया है। समस्या की व्यापकता और विकरालता का कारण यह भी है कि हमेशा इसे सतही रूप से संबोधित किया गया, जिसमें तात्कालिकता हावी रहती थी और इसीलिए दूरगामी असर वाले उपायों पर ध्यान नहीं दिया गया है।
मानव की मनोविकृतियों के कारण नारी की अस्मत और अस्मिता दोनों मनु युग में भी संकट में न होती, तो संभवत: मनु महाराज को मनुस्मृति में नारी की रक्षा को लेकर व्यवस्था न करनी पड़ती।
बलात्कार केवल यौन लिप्सा मिटाने का मामला नहीं है, यह एक महिला पर अपना प्रभुत्व जमाने का भी मामला है। 16 दिसंबर के सामूहिक बलात्कार के मुख्य आरोपी ड्राइवर रामसिंह ने कहा था कि उसे सबसे अधिक गुस्सा तब आया जब पीड़िता ने उसका खुला विरोध किया।
नारी की अस्मिता को प्रतिष्ठापित करने के लिए मनु के सोच का विकास तीन श्लोकों में स्पष्ट परिलक्षित है। पहला श्लोक 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता' तो सर्वविदित है। लेकिन मनु समझ गए थे कि इतना भर कह देने से काम नहीं चलेगा। इसलिए उन्होंने दूसरे श्लोक की रचना की 'जामियो यानि गेहानि शपंतय प्रतिपूजिताध्तानिकृत्या हतानीव विनष्यंति समंतत:।' इसका स्पष्ट भाव है कि यदि नारी के सम्मान की रक्षा नहीं होगी, तो उनके शाप से भारी विनाश हो जाएगा। लेकिन इससे भी काम नहीं चला तो उन्होंने तीसरे श्लोक की रचना की जो नितांत प्रासंगिक है,'अरक्षिता गृहेरूद्धा: पुरूषैराप्त कारिभिरूध्आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ता: सुरक्षिता:', अर्थात पुरुष स्त्रियों को घर में बंद करके उनकी रक्षा नहीं कर सकते। परंतु जो स्वयं अपनी रक्षा करती हैं, वे ही सुरक्षित हैं। यह बात भी समझने की है कि बलात्कार केवल यौन लिप्सा मिटाने का मामला नहीं है, यह एक महिला पर अपना प्रभुत्व जमाने का भी मामला है।
16 दिसंबर के सामूहिक बलात्कार के मुख्य आरोपी ड्राइवर रामसिंह ने कहा था कि उसे सबसे अधिक गुस्सा तब आया जब पीड़िता ने उसका खुला विरोध किया। जब जेल में बंद आसाराम कहते हैं, कि लड़की को बलात्कारियों के पैरों में पड़ जाना चाहिए था, तो वह एक तरह से ड्राइवर रामसिंह के सोच का ही समर्थन कर रहे होते हैं। यह सोच, केवल आसाराम की नहीं है, हमारे अधिकतर राजनीतिकों की भी है, वे मर्द हों या औरत, मुलायम हों या ममता बनर्जी। वक्त के गर्भ में अनंतकाल से बंद पड़ी चीजें ही जीवाश्म में नहीं बदल जाती हैं, आदमी और उसके सोच के साथ भी ऐसा ही होता है।
पाषाणीकरण बहुत खतरनाक हो जाता है जब ये लोगों को भी अपने साथ लेने की स्थिति में पहुंच जाता है। लेकिन निर्भया के दाह के बाद से यह पाषाणीकरण अब पिघलने लगा है, लोकप्रिय गीतकार गुलजार के शब्दों में कहें तो,
"आग लगे तो शायद अंधेरा पिघले
तेरी चिता की कोख से अब सूरज निकले।"