राजकमल चौधरी के कथा-संसार में स्त्री केंद्रीय पात्र
सिर्फ 38 वर्ष की आयु में उपन्यास, कहानी, और कविता में विपुल कृतियां लिखने वाले साहित्यकार...
हिन्दी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि-कहानीकार राजकमल चौधरी का आज (13 दिसंबर) जन्मदिन है। चौधरी के रचना संसार पर हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय कहते हैं कि वह विद्रोही व्यक्ति थे। उनका विद्रोह उनके साहित्य में भी प्रकट होता है। उन्होंने जो रचनाएं रचीं, वैसी सिर्फ वही रच सकते थे। अपनी कविताओं में तो उन्होंने दुर्लभ प्रयोग किए। वह अपने समय के सर्वाधिक बहुपठित लेखकों में एक थे।
हिंदी में राजकमल चौधरी की लेखनी, मैथिली से कई मायनों में भिन्न थी। यह भिन्नता रचना में केन्द्रित समस्या, संबोधित वर्ग एवं रचना की बुनियादी संरचना में थी। वह हिंदी एवं मैथिली की रचनाओं में स्त्री पात्रों के माध्यम से सामजिक-आर्थिक समस्याओं पर ठोस प्रहार करते थे।
राजकमल चौधरी का जन्म उत्तरी बिहार में मुरलीगंज के समीपवर्ती गाँव रामपुर हवेली में हुआ था। उनका वास्तविक नाम मणीन्द्र नारायण चौधरी था लेकिन स्नेह से लोग उन्हें फूलबाबू कह कर पुकारा करते थे। वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग कहती हैं कि राजकमल चौधरी ने मात्र 38 वर्ष की आयु में उपन्यास, कहानी, और कविता में विपुल कृतियां रचीं और हर कृति अपने समय से आगे विशिष्ट और मौलिक थीं। वह पहले आदमी थे जिन्होंने हमारे अर्थतंत्र और परमिट राज में व्याप्त भ्रष्टाचार और उससे उत्पन्न नवधनाढ्य वर्ग के अनाचार के महत्व को पहचाना। स्वयं उन्होंने इन्हीं विषयों पर केन्द्रित अनेक रचनाएं रचीं।
दुर्भाग्य से उनका सबसे चर्चित उपन्यास 'मछली मरी हुई' मशहूर हुआ स्त्री समलैंगिकता पर होने के कारण। लेखक ने स्वयं भूमिका में यह दावा किया और यहीं पर मेरी उनके नज़रिए पर घोर आपत्ति है। स्त्री समलैंगिकता को उन्होंने एक रोग माना है और स्त्री को 'स्वस्थ' बनाने का जो तरीका इस्तेमाल किया गया, वह है 'राक्षसी बलात्कार'। समलैंगिक न रहना उनके हिसाब से 'स्वस्थ' होना है। इस आपत्ति को छोड़ दें तो उपन्यास इतना पठनीय है कि जब मेरे पास आया तो खड़े-खड़े ही डेढ़ घंटे में मैंने उसे पढ़ डाला।
राजकमल चौधरी ने यद्यपि हिंदी की तुलना में मैथिली में ज्यादा समय तक लिखा, लेकिन हिंदी में उन्होंने आठ उपन्यास, करीब 250 कविताएं, 92 कहानियाँ, 55 निबंध और तीन नाटक लिखे। उनका हिंदी में कविता लेखन उन्नीस सौ पचास के दशक में शुरू हुआ। उनकी पहली प्रकाशित कविता का शीर्षक था - बरसात: रात: प्रभात। हिंदी में उनकी लेखनी, मैथिली से कई मायनों में भिन्न थी। यह भिन्नता रचना में केन्द्रित समस्या, संबोधित वर्ग एवं रचना की बुनियादी संरचना में थी। वह हिंदी एवं मैथिली की रचनाओं में स्त्री पात्रों के माध्यम से सामजिक-आर्थिक समस्याओं पर ठोस प्रहार करते थे। उनके रचनात्मक लेखन का काफी भाग कलकत्ता में गुज़रा। इसीलिए उनके लेखन में कलकत्ता, वहाँ के जीवन-संघर्षों का प्रचुरता से चित्रण मिलता है।
वह अपने महिला मित्रों को सहजता से आकर्षित कर लेते थे। यही पर शोभना नाम की एक छात्रा से उनका परिचय हुआ जिसकी तरफ वो आकर्षित हो गए। इसी बीच शोभना के पिता का स्थानांतरण भागलपुर हो गया। पिता के साथ शोभना भी चली गयी। शोभना के नजदीक होने के लिए राजकमल भी भागलपुर चले गए और वहां 1948 में उन्होंने मारवारी कॉलेज में दाखिला ले लिया लेकिन विपरीत हालत में पढ़ाई पूरी नहीं कर सके और पढ़ाई जारी रखने के लिए गया चले गए। चौधरी ने नौकरी को कभी अपने जीवन का लक्ष्य नहीं माना। उनके लिए नौकरी का मतलब महज दो वक़्त की रोटी का ज़रिया भर था।
राजकमल चौधरी के सृजन में ऐसे विषय रहे हैं, जो उस वक्त साहित्यकारों के लिए त्याज्य कोटि के माने जाते थे। बहुत लम्बे समय तक भारतीय साहित्य में स्त्री से संबंधित विषय तथा उनकी समस्याएं, समाज में शालीनता की ओट में छुपी अश्लीलता और धर्म एवं संस्कृति के नाम स्त्रियों का यौनिक दमन ऐसे विषय रहे हैं, जिनसे कई महान लेखकों ने अपना वास्ता दूर रखा। जिन लेखकों ने उन समस्याओं पर लिखना चाहा, उनपर वैचारिक विकृति और सस्ते साहित्य लेखन के आरोप लगे। राजकमल चौधरी ऐसे विषयों पर निर्भीकता से कलम चलाते रहे। मैथिली, हिंदी, बंगाली, अंग्रेजी में उनकी रचनात्मकता कवि, उपन्यासकार, कहानी लेखक, नाटककार आदि कई रूपों में सामने आई।
कहा जाता है कि नवादा उच्च विद्यालय के अपने एक शिक्षक से प्रभावित होकर उन्होंने लयबद्ध कविताएं लिखीं। बाद में उन्हें लगा कि वह भी कविताएं लिख सकते हैं। उनकी कुछ शुरुआती पंक्तियाँ स्कूली पुस्तिकाओं पर पढ़ने को मिलीं। उनकी पहली मैथिली कहानी अपराजिता 1954 में वैदेही पत्रिका में प्रकशित हुई थी। मैथिली में उन्होंने करीब 100 कवितायें, तीन उपन्यास, 37 कहानियाँ, तीन एकांकी और चार आलोचनात्मक निबंध लिखे। उनके वृहत साहित्यिक लेखन का अधिकांश हिस्सा उनके जीवनकाल में अप्रकाशित रहा। उनकी मृत्यु के लगभग दस महीने के बाद बी आई टी सिन्दरी स्थित मित्रों ने उनकी मैथिली कहानियों का प्रथम संग्रह ललका पाग का प्रकाशन किया। उसके पश्चात निर्मोही बालम हमर और एक अनार एक रोगाह का प्रकाशन हुआ।
राजकमल चौधरी का अपने त्याज्य लेखन के बारे में तर्क होता था कि हमारे पौराणिक आख्यानों में भी ऋषि कण्व, ऋषि पराशर आदि की तपस्या को भंग करने के लिए स्वर्ग की अप्सराओं- मेनका, उर्वशी, रम्भा आदि का सविस्तार चित्रण हुआ है। कालान्तर में स्री-क्रियाओं को राजनीति, सत्ता, खरीद-ब्रिकी, भोग-विलास और जीविका के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। अपने साहित्य में उन्होंने तमाम स्त्री-क्रियाओं की व्यापक स्तर पर पड़ताल की। स्त्री को उन्होंने श्लीलता-अश्लीलता के चश्मे से नहीं देखते, बल्कि उसके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की तलाश करते रहे। वह परिस्थितियों की विसंगति, विडंबना और विद्रूपता को ही दर्शाने को लक्ष्य मानकर सृजनरत रहे। उनके उपन्यासों - 'बीस रानियों के बाइस्कोप', 'एक अनार: एक बीमार', 'मछली मरी हुई', 'देहगाथा', 'अग्निस्नान', 'ताश के पत्तों का शहर', 'आदिकथा', 'पाथर-फूल' आदि में स्त्री-क्रियाओं का चित्रण किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है।
एक तरह से देखा जाए वह दौर ही 'अकविता' और 'अकहानी' के साथ 'दिगंबरी पीढ़ी' की कविताओं का समय माना जाता था, जिसमें स्त्री-संदर्भों, बिम्बों और प्रतीकों का बहुतायत से प्रयोग किया गया। चौधरी ने अपने उपन्यासों में महानगरीय जीवन के अनेक चित्र खींचे जिनमें सबसे प्रभावी चित्रण उस महानगरीय आधुनिकता का रहा, जिसमें सुख-सुविधा, भोग-विलास, इच्छा-आकांक्षा की पूर्ति और लिप्सा आदि के लिए स्त्री को केंद्र में रखकर सब कुछ रचा गया। उनके कथा पात्रों में ऐसी ही स्त्रियां थीं झरना, माया, कांति, लेडी नूर मुहम्मद आदि जो 'शहर था शहर नहीं था' की पूरी पृष्ठभूमि बनती हैं। चौधरी लिखते हैं कि साहित्य में अश्लीलता आरोपित करने वाले 'पुलिस-मनोवृत्ति' के लोग उनको न पढ़ें, उनकी सेहत के लिए यही अच्छा रहेगा। सीता और ईश्वर के माध्यम से वह जीवन की सड़ांध, जीवन-शैली, क्रिया-व्यापार आदि का यथार्थ चित्रण करते हैं। किसी से भागने या छुपाने का कही कोई प्रयास नहीं है। राजकमल चौधरी ने 1947 में नवादा उच्च विद्यालय, बिहार से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की। फिर पटना के बी. एन. कॉलेज के इंटरमीडिएट (कला) में उन्होंने दाखिला लिया। वह बी. एन. कॉलेज के छात्रावास में कुछ दिन रहे, जहाँ वह साहित्य एवं चित्रकला की ओर उन्मुख हुए। वह मित्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे एवं बहुत शीघ्रता से दोस्त बना लेते थे।
वह अपने महिला मित्रों को सहजता से आकर्षित कर लेते थे। यही पर शोभना नाम की एक छात्रा से उनका परिचय हुआ जिसकी तरफ वो आकर्षित हो गए। इसी बीच शोभना के पिता का स्थानांतरण भागलपुर हो गया। पिता के साथ शोभना भी चली गयी। शोभना के नजदीक होने के लिए राजकमल भी भागलपुर चले गए और वहां 1948 में उन्होंने मारवारी कॉलेज में दाखिला ले लिया लेकिन विपरीत हालत में पढ़ाई पूरी नहीं कर सके और पढ़ाई जारी रखने के लिए गया चले गए। चौधरी ने नौकरी को कभी अपने जीवन का लक्ष्य नहीं माना। उनके लिए नौकरी का मतलब महज दो वक़्त की रोटी का ज़रिया भर था। राजकमल को कॉलेज के दिनों में शोभना नाम की जिस लड़की से प्रेम हुआ था, उससे आजीवन संबंध के लिए शादी नहीं रचा सके। पारिवारिक दबाव में उनकी पहली शादी चानपुरा, दरभंगा की शशिकांता से हुई थी। उथल-पुथल भरे अपने उन्हीं दिनो में उन्होंने मसूरी की सावित्री शर्मा से शादी रचा ली। सावित्री काफी धनी परिवार की थीं लेकिन उनका रिश्ता एक वर्ष भी नहीं चला। मसूरी में रहते हुए उन्हें संतोष नाम की एक और महिला से लगाव हो गया था। संतोष, सावित्री की भतीजी थी। इन सबंधों के बावजूद राजकमल का गहरा लगाव उनकी प्रथम पत्नी शशिकांता से रहा। वह पत्रकार और लेखक के रूप में मृत्युपर्यंत तक कलकत्ता में रहे। राजकमल चौधरी के घनिष्ठ मित्र डीएन झा उनके साथ की अपनी पुरानी यादों को साझा करते हुए कहते हैं कि वह अंतर्विरोधों की पोटली थे।
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