भूखे पेट रहकर भी जिंदगी में कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा
पढ़-लिखकर बड़ा बनने के लिए अमेरिका में भूखे पेट सो रहे तमाम छात्र और हमारे देश में गरीबी से लड़ते हुए कामयाबी की मिसाल बन रहे तमाम युवाओं की दास्तान से डॉ शंभुनाथ सिंह की पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं - 'समय की शिला पर मधुर चित्र कितने, किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए, किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी, किस
दिव्यांगता के बावजूद शासकीय सेवा में चयनित हरसूद (म.प्र.) के गांव चारखेड़ा की दिव्यांग पुनई मंडराई, औरंगाबाद (बिहार) के गांव बुढ़वा महादेव के सत्यप्रकाश , समस्तीपुर (बिहार) के राजेश कुमार सुमन, जमशेदपुर के मोहम्मद अकरम आदि कुछ ऐसे नाम हैं, जो घर-परिवार की फटेहाली से लड़ते हुए अपनी जिंदगी में तो सफल हो ही रहे हैं, आम लोगों के बीच कठिन संघर्ष करते हुए औरों के भी प्रेरणा स्रोत बन गए हैं। पढ़ाई पूरी करने के लिए हमारे देश में ही नहीं, दुनिया के सबसे अमीर देश अमेरिका तक में तमाम छात्रों को भूखे पेट सोना पड़ रहा है।
एक ताजा आंकड़े के मुताबिक, अमेरिका के सामुदायिक और सरकारी कॉलेजों में लगभग पचास फीसद छात्र अक्सर भूखे पेट सो जा रहे हैं।
टेंपल यूनिवर्सिटी के कॉलेज होप सेंटर के एक सर्वे में बताया गया है कि सौ से अधिक कॉलेजों के लगभग पैंतालीस प्रतिशत छात्रों को भरपेट खाना नसीब नहीं हो पा रहा है। न्यूयॉर्क में ऐसी ही स्थितियों का लगभग अड़तालीस फीसद छात्र सामना कर रहे हैं। ऐसी कठिनाई से दो-चार हो रहे छात्र भारत के हों या अमेरिका के, उनके अरमान दांव पर लगे हुए हैं।
शासकीय सेवा हासिल करने में कामयाब हरसूद (खंडवा) की दिव्यांग पुनई मंडराई के साथ तो ऐसा दिलचस्प वाकया गुजरा है कि वह बताती हैं- अपने गांव वालों के ताने ही उनकी तरक्की का सबब बन गए। अपनों के तानों से ही तंग आकर उन्होंने जिंदगी में कुछ ऐसा कर गुजरने का संकल्प लिया, जिसके पूरा होने पर आज सबकी बोलती बंद हो गई है। जिन दिनो वह अपने गांव से खंडवा पढ़ने जाया करती थीं, लोग कहते थे, तफरीह करने शहर जाती है लेकिन वह अपने पथ से डिगी नहीं। मैथमेटिक्स से बीएससी, फिर हिंदी से एमए तक पढ़ाई के बाद पटवारी पद पर चयनित होकर उन्होंने तीन महीने प्रशिक्षण लिया। अब खालवा (खंडवा) में सरकारी नौकरी कर रही हैं। उनके माता-पिता मजदूरी करते हैं। खंडवा के कलेक्टर उनको अपने जिले में रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करना चाहते हैं।
औरंगाबाद (बिहार) के गांव बुढ़वा महादेव निवासी राजू प्रसाद ने अपनी अनपढ़ होने का प्रतिशोध अपनी संतानों को बेहतर पढ़ाई-लिखाई कराकर कुछ इस तरह लिया कि सबसे बड़े बेटे सत्यप्रकाश इस समय इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आइआइटी) गुवाहाटी में कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई पूरी कर रहे हैं। उनके बाकी भाई-बहन भी दिन-रात पढ़ाई में जुटे हुए हैं। इसके लिए उनके पिता राजू प्रसाद को ठेले पर चना बेचकर बड़ी मशक्कत से पैसे जुटाने पड़ रहे हैं। संतानों की कामयाबी देखकर अब उन्हे खुद पर गर्व होने लगा है। उन्हे इस बात का जुनून रहा है कि खुद नहीं पढ़ सके तो क्या हुआ, बच्चों को इतना काबिल बना दें कि दुनिया देखे।
हर गरीब बाप चाहता है कि उसकी संतान पढ़-लिखकर कामयाब इंसान बने। गसलाई (जमशेदपुर) के इफ्तेखार अली ने इस रमजान में जकात से 45 हजार रुपये जुटाए हैं। वह शहर के ही मानगो के इंजीनियरिंग छात्र मोहम्मद अकरम को यह रकम भेजेंगे। अकरम के पिता गरीब होने के बावजूद अपने बेटे को इंजीनियरिंग बनाने का सपना देख रहे हैं। अकरम की मदद पहले से कई संस्थाएं कर रही हैं।
समस्तीपुर (बिहार) के राजेश कुमार सुमन को शुरू से ही गरीब बच्चों को पढ़ाने का जुनून रहा है। स्नातकोत्तर करने के बाद उनको विदेश मंत्रालय में नौकरी मिल गई लेकिन उनका मन गरीब छात्रों के भविष्य को लेकर हमेशा द्वंद्व में उलझा रहा। वह खुली आंखों देख चुके थे कि किस तरह उनके पिछड़े इलाके में सही मार्गदर्शन न मिलने के कारण तमाम गरीब होनहार छात्र छोटा-मोटा काम करने को मजबूर हैं। वर्ष 2008 में वह नौकरी छोड़कर समस्तीपुर लौट आए और एक इंस्टीट्यूट खोलकर ऐसे छात्रों को कंपटीशन की तैयारियां कराने लगे।
उनकी कोचिंग फीस तो मिसाल ही बन गई है। वह उन गरीब छात्रों से कोचिंग फीस के बदले 18 पौधे लगवाने का संकल्प लेते हैं। सम्बंधित छात्र को ही तीन साल तक उन पौधों की देखभाल करनी होती है। अब तक वह ऐसे चार हजार गरीब छात्रों को तैयार कर चुके हैं। उनमें से दरभंगा, खगड़िया और बेगूसराय के लगभग साढ़े तीन सौ वे गरीब छात्र तो सरकारी नौकरियां भी करने लगे हैं।