जापानी विधि से राजस्थान के मरुस्थल में तैयार हो रहा वन
पश्चिमी राजस्थान का मारवाड़ इलाका मरुस्थल, भूजल के खारेपन और मिट्टी के पोषक तत्वों में होने वाली कमी के लिए मशहूर है. जोधपुर के पास देसी पेड़-पौधों को फिर से उगाने की कोशिश हो रही है. इसके लिए जापानी मियावाकी रोपण तकनीक आजमाई जा रही है.
जंगली पेड़ों के जानकार गौरव गुर्जर जोधपुर में पले-बढ़े हैं. पढ़ाई और रोजगार के लिए वे अपने घर से दूर जाने वाले गौरव गुर्जर को इसका अंदाजा यह नहीं था कि जंगल बसाने के लिए उन्हें अपने क्षेत्र में वापस लौटना पड़ेगा.
गुर्जर एफ़ॉरेस्ट के साथ जंगल विशेषज्ञ के रूप में काम करते हैं. वह संस्थानों और लोगों को कारखानों के आसपास, फार्म हाउस और उनके घर के आस-पास देसी पेड़ पौधों को उगाने में मदद करते हैं.
मरुवन के लिए जगह
जब गौरव गुर्जर ने पहली बार जोधपुर के बाहर लगभग 18 एकड़ भूमि के बड़े हिस्से पर नजर पड़ी तो उन्हें एहसास हुआ कि वनस्पति के मामले में यह जगह पूरी तरह से तबाह हो गयी है. वैसे तो परंपरा से यह खारा क्षेत्र है. पर नमक कभी-कभी यहां सतह पर दिख रहा था. यहां कुछ भी उगाना एक चुनौती भरा काम था. पर विदेशी मूल की तेजी से फैलने वाले पौधे (प्रोसोपिस जूलिफ्लोरा) के विस्तार ने भी उनके हौसले को नहीं तोड़ पाया.
गुर्जर ने बताया, “जिस दिन मेरे बॉस शुभेंदु शर्मा जमीन के इस हिस्से को देखने आए, हमने देखा, दो लोमड़ियां हमारे पीछे से अपनी छोटी सी मांद में भागीं. इन्हें देखकर हमने तय किया कि यही वह जगह है जहां हम मरुवन स्थापित करना चाहते हैं. बॉस के आने के पहले मैंने इस जगह को परियोजना के लिए तय की थी.” मरुवन का अर्थ है रेगिस्तान में जंगल. उन्हें (टीम) यह सोचकर अच्छा लगा कि अगर मरुवन खड़ा होता है तो लोमड़ी, हिरण और कुछ अन्य जानवरों को फायदा होगा. ये जीव पहले से ही यहां रहते हैं. ज़मीन का यह टुकड़ा उनकी प्रयोगशाला बनने जा रहा था. ऐसा स्थान जहां उन्हें असफल होने की छूट होती. अपनी असफलताओं से सीखने का मौका होता.
एफ़ॉरेस्ट के निदेशक शुभेंदु शर्मा इस बात पर जोर देते हैं कि उपजाऊ भूमि पर पेड़ उगाना आसान है. पर असल में बंजर भूमि ही सीखने और नवाचार करने का अवसर देती हैं. स्थानीय पेड़ों का नुकसान, अनियमित मानसून, सूखे की लंबी अवधि में बढ़ोतरी, अचानक बाढ़ और शहरों में बड़े पैमाने पर निर्माण के लिए रेत खनन- बड़ी समस्याएं हैं जिनका रेगिस्तानी क्षेत्रों को सामना करना पड़ता है. शुष्क मरुस्थलीय भूमि को सूखा माना जाता है और इसलिए जंगल लगाने की कोशिश हाल के सालों तक सीमित रही हैं. लेकिन इस टीम को विश्वास है कि इस इलाके की जलवायु को देखते हुए यहां बहुत कुछ है जिसकी खेती की जा सकती है.
सही जगह पर सही पौधे का चुनाव
गुर्जर बताते हैं, “जंगल के लिए हमारी परियोजनाएं मौजूदा देसी वनों और क्षेत्र की संभावित प्राकृतिक वनस्पतियों के विस्तृत सर्वेक्षण के साथ शुरू होती हैं. इस सर्वेक्षण में हम भूमि क्षेत्र, वातावरण और वनों के विभिन्न परत का दस्तावेजीकरण करते हैं.” वह जोड़ते हैं, “जंगल में गैर-स्थानीय हरे पेड़ लगाना पूरी तरह से गैर-टिकाऊ और अनुत्पादक है. ऐसा भी हो सकता है कि वे साल भर से ज्यादा टिके भी नहीं.”
परियोजना का शुरुआती बिंदु इस इलाके को बेहतर समझना है. इसके लिए गांव के बुजुर्गों के साथ बातचीत की गयी, राजस्थान के ओरण या छोटे पवित्र जंगलों को को समझा गया, स्थानीय साहित्य को अध्ययन पढ़कर और क्षेत्र के पुराने किलों से प्राचीन चित्रों का विश्लेषण करके समझ विकसित की गयी. उन्होंने देखा कि कुछ पुराने चित्रों में मजबूत लकड़ी वाले खेजड़ी के पेड़ बहुतायत में दिखाई देते हैं. ऐसे पेड़ जो अब इस क्षेत्र में नहीं दिखते हैं. लेकिन इतना स्पष्ट हो गया कि वे अतीत में यहां सफलतापूर्वक उगाए गए थे.” जब आप बाघों और तेंदुओं को हिरण और जंगली सूअर का शिकार करने वाले चित्र देखते हैं, तो आपको पता चलता है कि इस तरह के वन्यजीवों को मदद करने वाली वनस्पतियां यहां मौजूद थी.”
इस अध्ययन का इस्तेमाल करते हुए पेड़ों और झाड़ियों की एक सूची बनाई गई. स्थानीय वातावरण के हिसाब से कुछ प्रजातियों को चुना गया. ये प्रजातियां हैं- खेजड़ी, पीलू, खबर, हिंगोट, कांकेरा, मुरेली, कुम्मत, दाबी, रोहेड़ा, अर्ना और खैर. ये वनस्पतियां मरुस्थलीकरण के विस्तार और थार रेगिस्तान में जलवायु प्रभाव के संबंधित हानिकारक प्रभाव को रोकने में मददगार भी हैं.
लंबे समय से मरुस्थलीय क्षेत्र को लेकर कई भ्रांतियां हैं- अधिकांश लोगों ने यह मान लिया है कि मरुस्थलीय क्षेत्र शुष्क और सूखा होता है और यहां जंगल नहीं उगाए जा सकते हैं.
लेकिन सभी जंगलों को घना और हरा-भरा दिखने की जरूरत नहीं है. रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र शुष्क होता है, जिसमें झरने वाले भूरे रंग के पत्तों वाला पेड़ , कांटेदार झाड़ियां और लंबी घास होती है.
गुर्जर की टीम ने पेड़ लगाने के लिए जापानी वनस्पतिशास्त्री अकीरा मियावाकी की प्रसिद्ध मियावाकी तकनीक का इस्तेमाल किया. इस तकनीक में पौधों की देसी किस्मों के आधार पर खराब हो चुकी भूमि पर वनस्पति उगाना शामिल है जो परंपरागत रूप से ज़मीन पर कुदरती तरीके से उगते हैं और उन्हें मूल अनुपात और सीरीज में लगाया जाता है.
मियावाकी कई परतों वाले जंगल उगाने और जैव-विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से जीवंत करने को प्रोत्साहित कर्ता है. इस मरुवन को उगाने के लिए सीवन और दमन जैसी झाड़ियों और घास पर विशेष ध्यान दिया गया. ये सब इस क्षेत्र से संबंधित हैं.
हालांकि एडिबल रूट्स फ़ाउंडेशन से जुड़े गार्डनर फ़ज़ल रशीद जो इस परियोजना से संबंधित नहीं है इसको लेकर आश्वस्त नहीं है कि कैसे एक फार्मूलाबद्ध प्रणाली रेगिस्तानी पारिस्थितिक तंत्र की जटिलता और विविधता सुनिश्चित की जा सकती है. वे कहते हैं, “हमारे रेगिस्तान में विभिन्न प्रकार के विविध पारिस्थितिक तंत्र हैं. यह विशेष रूप से झाड़ियों, घास और मौसमी जंगली फूलों में समृद्ध है और ये पौधे रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं.”
ज़मीन से सीखना
जब परियोजना शुरू हुई, तब मरुवन में पौधों की कुल 44 प्रजातियां उगाई जा रही थीं. दो सालों के दौरान इनकी संख्या 25 प्रजातियों तक सिमट गई. ऐसा एफ़ॉरेस्ट टीम के प्रयोगों के चलते हुआ. समय के साथ, इस क्षेत्र में पहले की तुलना में खारापन बहुत अधिक बढ़ गया है. इसकी वजह इलाके में मानव गतिविधि में हुई अत्यधिक बढ़ोतरी को माना जा सकता है, न कि सीधे जलवायु परिवर्तन को. उगने वाली बहुत सारी प्रजातियां पहले इस तरह के खारेपन की अभ्यस्त नहीं थीं. बाढ़ के मैदानों में उनके स्थान को ध्यान में रखते हुए, पेड़ों की संख्या को कम कर दिया गया और मौजूदा परिस्थितियों के अनुकूल प्रजातियों को ही रखा गया. इसके परिणामस्वरूप, जंगल के स्वास्थ्य, विकास दर और घनेपन में भारी सुधार देखा गया. जंगल के लिए पानी की जरूरत भी काफी कम हो गई. परियोजना के प्रमुख का कहना है, “उत्तरी ध्रुव में क्रायोजेनिक रूप से बीजों को स्टोर करने के बजाय हम स्थानीय प्रजातियों को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाना चाहते हैं.”
मौसम की पहेली
जब हम जलवायु परिवर्तन से पार पाने के वैश्विक समाधानों के बारे में बात करते हैं, तो वनीकरण को कार्बन सोखने के सर्वोत्तम तरीकों में गिनती होती है. हालांकि, गुर्जर और उनकी टीम ने जोर देकर कहा कि उनका उद्देश्य जंगल को मानव आवास से जोड़ना है, एक ऐसा स्थान जहां मानव और प्राकृतिक जंगल, एक साथ रह सकते हैं. वे दृढ़ता से महसूस करते हैं कि यह आगे बढ़ने का बेहतर प्राकृतिक तरीका है. जैसे-जैसे प्राकृतिक क्षेत्र फिर से जीवित होंगे, जंगल खुद की देखभाल करना शुरू कर देंगे. जैसे-जैसे मरुवन में पेड़ बढ़े हैं, क्षेत्र में लोमड़ी, हिरण और जंगली सूअर की आबादी भी बढ़ी है. गुर्जर विस्तार से बताते हैं, “हम ध्यान स्थानीय परिवर्तन पर है. हम यह दावा नहीं करते कि ऐसा करने से इस क्षेत्र में मौसम में बदलाव तुरंत रुक जाएगा. हमें विश्वास है कि समय के साथ रेगिस्तान का तापमान 10 या 15 डिग्री तक कम हो सकता है.”
जंगल उगाने के अलावा, मरुवन में कई अन्य पद्धतियों का पालन किया जाता है जो परियोजना की दीर्घकालिक विजन में योगदान करते हैं. इस जगह पर देसी पौधों के अलावा, एक बढ़ता हुआ बीज बैंक और एक नर्सरी भी है. ये मारवाड़ क्षेत्र में जंगल उगाने में मदद करेंगे.
एएफआरआई के साथ 30 सालों से क्षेत्र में काम कर रहे जोधपुर के स्थानीय निवासी सादुल राम को अब विश्वास है कि इस तरह के प्रयासों का स्थानीय लोगों के जीवन पर भी दीर्घकालिक सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. वे भरोसे के साथ कहते हैं, ” वर्तमान में निर्माण कामों में उपयोग की जाने वाली बहुत महंगी सागौन और शीशम की लकड़ी का इस्तेमाल होता है. लोग इसके बजाय रोहेड़ा का इस्तेमाल करने में सक्षम होंगे. यह भी उतना ही टिकाऊ है और सस्ता भी.”
मिट्टी में पोषक तत्वों के मिश्रण को जोड़ने के लिए टिकाऊ चूना पत्थर की प्लास्टर की हुई संरचनाओं के निर्माण के प्रयास से, मिट्टी के कुओं के माध्यम से पानी को बचाने से लेकर जौ-बाजरा उगाने तक, मरुवन टीम धीरज के साथ अपने प्रयासों को जारी रखे हुए है.
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: कुएं की खुदाई में मरुवन टीम की मदद करते स्थानीय लोग. तस्वीर - गौरव गुर्जर.