Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

गरीबी और अंधेपन को दी मात, मशरूम की खेती से इस शख्स ने बदली किस्मत

गरीबी और अंधेपन को दी मात, मशरूम की खेती से इस शख्स ने बदली किस्मत

Saturday November 17, 2018 , 6 min Read

विनोद का जन्म कर्नाटक के चिकममंगलूर जिले के मच्छागोंडनहल्ली नामक एक छोटे से गांव के बेहद गरीब परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता कॉफी और काली मिर्च के बागानों पर दैनिक मजदूरों के रूप में काम करते थे।

विनोद

विनोद


विनोद के एक स्वतंत्र किसान के रूप में स्वयं को स्थापित करने की कहानी में सबसे महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक बात यह है कि उन्होंने अपने दृष्टिदोष को सफलता के आड़े नहीं आने दिया। 

विनोद राज नामक एक छोटे से किसान अपने घर के भीतर उगाई गई मशरूम की फसल का निरीक्षण करने में व्यस्त हैं। आवश्यक नमी को बनाए रखने के लिये पानी का छिड़काव करते हुए वे कहते हैं, 'घर के भीतर मशरूम को उगाना सीखना पूरी तरह से तापमान और रोशनी जैसी स्थितियों का सावधानीपूर्वक प्रबंधन करने तक सीमित है। अगर आप ऐसा करने में सफल रहते हैं तो आप जमीन के एक छोटे से टुकड़े से भी अच्छी पैदावार पा सकते हैं।'

विनोद का जन्म कर्नाटक के चिकममंगलूर जिले के मच्छागोंडनहल्ली नामक एक छोटे से गांव में एक बेहद गरीब परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता कॉफी और काली मिर्च के बागानों पर दैनिक मजदूरों के रूप में काम करते थे। विनोद ने अपनी मेहनत के बल पर एक स्वतंत्र किसान बनने का रास्ता तय किया और उनके परिवार को उन पर बेहद गर्व है।

असफल होने पर भी उत्साहित रहना

विनोद के एक स्वतंत्र किसान के रूप में स्वयं को स्थापित करने की कहानी में सबसे महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक बात यह है कि उन्होंने अपने दृष्टिदोष को सफलता के आड़े नहीं आने दिया। पहले तो, बचपन में ही उनकी बायीं आंख की रोशनी प्रभावित हुई, जिसके चलते वे आंशिक रूप से दृष्टिहीन हो गए। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें सामान्य स्कूल से एक विशेष विद्यालय में स्थानांतरित कर दिया गया। इसके बावजूद विनोद ने हौसला नहीं खोया और शिक्षा के अलावा खेलों में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन जारी रखा। वे राष्ट्रीय स्तर के एक पैरा-ओलंपिक खिलाड़ी बन गए और गोलाफेंक और शॉट पुट जैसे खेलों में स्वर्ण और रजत पदक जीते।

उनकी माँ कहती हैं, 'चाहे आंशिक रूप से आंखों की रोशनी खोना हो या फिर परिवार की आर्थिक स्थिति, विनोद ने दीन-हीनता दिखाये बिना या फिर किसी भी प्रकार की शिकायत किये बिना उसे गले लगाना जारी रखा।'

मुश्किलों में भी सकारात्मक रहना

लेकिन जिंदगी ने इस युवा के हौसले का इम्तिहान लेना नहीं छोड़ा। समय के साथ उनकी आंखों का अंधेरा बढ़ता रहा और धीरे-धीरे उन्हें दिखाई देना बिल्कुल ही बंद हो गया। विनोद याद करते हुए कहते हैं, 'मैं राष्ट्रीय स्तर के पैरा-ओलंपियन से सिमटकर सिर्फ एक 'दृष्टिहीन व्यक्ति' बनकर रह गया और लोग मेरी स्थिति पर तरस खाने लगे।' पिता के निधन के बाद स्थितियां बद से बदतर हो गईं। विनोद ने गांव के ही बुजुर्गों के होने वाले सरकारी कामों की कागजी कार्रवाई में मदद करने के जरिये कुछ पैसा कमाना शुरू किया।

आप उनसे पूछिये कि ऐसा क्या था जिसने उनका हौसला बनाए रखा तो वे तपाक से जवाब देंगे, 'मैं अपने शिक्षकों और माँ से यह सुनते हुए बड़ा हुआ था कि दुनिया में विभिन्न प्रकार के लोग मौजूद हैं। और इनमें से हर कोई अपने रास्ते बनाता है और उनपर चलते हुए आगे बढ़ता है। इसी विचार ने मुझे ताकत दी क्योंकि इसने मुझे यह विश्वास दिलवाया कि एक दिन मुझे भी अपना रास्ता मिल ही जाएगा।'

जब मौका दरवाजा खटखटाए, तो उसे लपक लो

उनका सपना तक हकीकत में बदला जब विनोद की माँ की मुलाकात आईसीआईसीआई अकादमी ऑफ स्किल्स के एक कम्यूनिटी फेसिलिटेटर से हुई। उन्होंने कहा, 'अकादमी के बारे में जानकर मेरी माँ की उम्मीदें और अधिक बलवती हो गईं। उन्होंने मुझे इस अकादमी के जरिये व्यवसायिक कौशल सीखने के लिये कहा।' आईसीआईसीआई अकादमी ऑफ स्किल्स देश के दिव्यांगों के लिये इस सोच के साथ विभिन्न कार्यक्रम संचालित करती है कि कौशल प्रशिक्षण राष्ट्र के विकास में काफी अहम योगदान निभा सकता है। इनके कार्यक्रम प्रशिक्षुओं को प्रासंगिक व्यवसायिक कौशल प्रदान करते हैं ताकि ने सम्मानजनक आजीविका कमा सकें।

अपनी माँ के सुझाव पर अमल करते हुए विनोद अकादमी के चिकमंगलूर स्थित केंद्र पर काउंसलिंग के लिये पहुंचे और एक नर्सरी को स्थापित और संचालित करने के कोर्स में दाखिला लेने का फैसला किया। पाठ्यक्रम पूरा होने के बाद उन्होंने अपनी नर्सरी शुरू की। जल्द ही विनोद की माँ ने भी मशरूम की खेती के कोर्स में दाखिला लिया और अपने एक बैचमेट के साथ मिलकर छोटे स्तर पर मशरूम की खेती का काम शुरू किया। इसके बाद अकादमी के मार्गदर्शन के तहत विनोद और उनकी माँ, दोनों ने ही पूर्णकालिक रूप से मशरूम की खेती करनी शुरू कर दी।

पहले की अपेक्षा अधिक मजबूती से बढ़ना

दैनिक मजदूर के परेशानियों से भरे जीवन को पीछे छोड़कर विनोद और उनकी माँ अब सफल स्वतंत्र किसान हैं। विनोद कहते हैं, 'मशरूम का बाजार काफी बड़ा है और यह लगातार बढ़ रहा है। हम रोजाना 3 से पांच किलोग्राम के बीच मशरूम बेचते हैं। हमारा उत्पादन हमें प्रतिमाह 15,000 रुपये से अधिक की कमाई करवाता है और यह आंकड़ा निरंतर बढ़ ही रहा है।' विनोद के उपभोक्ताओं में सुपरमार्केट, रेस्टोरेंट और खाद्य-प्रसंस्करण कंपनियां शामिल हैं।

अपनी मां के साथ विनोद

अपनी मां के साथ विनोद


विनोद ने सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाने वाले बुजुर्गों की मदद करने के साथ ही अपने व्यवसाय पर भी ध्यान केंद्रित करना जारी रखा है। इसके अलावा वे मशरूम के स्वास्थ्य संबंधी लाभों के बारे में जानकारी देने के लिये विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में जाते रहते हैं और साथ ही आईसीआईसीआई एकेडमी में मशरूम की खेती के पाठ्यक्रम के प्रशिक्षक के रूप में भी काम कर रहे हैं।

वे कहते हैं, 'पीछे मुड़कर देखूं तो मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता कि अन्य परिस्थितियों में मेरा जीवन कैसा होता। क्या मैं सिर्फ अपने परिवार का समर्थन करने में ही सक्षम रहता या फिर उन्हें गरिमामय जीवन भी दे पाता? हो सता है मुझे इन बातों का कभी कोई जवाब न मिले। लेकिन यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि मैं जो कुछ भी पाने में सफल रहा हूं व कभी सिर्फ एक छोटी सी संभावना भर था। और अगर मैं यहां पर अकादमी के योगदान की चर्चा न करूं तो यह बहुत गलत होगा। इस सबमें अकादमी का बहुत बड़ा योगदन है। प्रशिक्षक के रूप में काम करना मेरा उनका अहसान उतारने का तरीका है। इसके अलावा यह मेरा दूसरों को यह बताने का तरीका है, 'अगर आपका जीवन अच्छा नहीं है, तो आप सदैव उसकी बेहतरी के लिये कदम उठा सकते हैं।'

विनोद की कहानी उन 3.5 कहानियों में से एक है जिन्हें आईसीआईसीआई ने देश भर में फैले प्रशिक्षण केंद्रों के माध्यम से 90 से भी अधिक निःशुल्क कौशल कार्यक्रमों में प्रशिक्षित होने का अवसर देते हुए एक बेहतर जीवन जीने का मौका दिया।

यह भी पढ़ें: इंजीनियरिंग छोड़ कुल्फ़ी बेचने लगे ये चार दोस्त, सिर्फ़ 1 साल में 24 लाख पहुंचा टर्नओवर