हिन्दी की 6 बेहतरीन कविताएं

विश्व कविता दिवस पर यहां पढ़ें हिन्दी की वे प्रसिद्ध कविताएं, जिन्हें पढ़ना ज़रूरी है...

हिन्दी की 6 बेहतरीन कविताएं

Tuesday March 21, 2017,

5 min Read

विश्व कविता दिवस हर साल 21 मार्च को मनाया जाता है। कवियों और कविता की सृजनात्मक महिमा को सम्मान देने के लिए यूनेस्को ने 1999 में इस दिन को मनाने का निर्णय लिया था। इस मौके पर भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय और साहित्य अकादमी की ओर से सबद-विश्व कविता उत्सव का आयोजन किया जाता है। आप भी पढ़ें हिन्दी की वो 6 बेहतरीन कविताएं, जिन्हें पढ़ना बेहद ज़रूरी है...

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उसाँस / विष्णु खरे

कभी-कभी

जब उसे मालूम नहीं रहता कि

कोई उसे सुन रहा है

तो वह हौले से उसाँस में सिर्फ़

हे भगवन हे भगवन कहती है

वह नास्तिक नहीं लेकिन

तब वह ईश्वर को नहीं पुकार रही होती

उसके उस कहने में कोई शिक़वा नहीं होता

ज़िन्दगी भर उसके साथ जो हुआ

उसने जो सहा

ये दुहराए गए शब्द फ़क़त उसका खुलासा हैं

योगफल/अज्ञेय

सुख मिला :

उसे हम कह न सके।

दुख हुआ:

उसे हम सह न सके।

संस्पर्श बृहत का उतरा सुरसरि-सा :

हम बह न सके ।

यों बीत गया सब : हम मरे नहीं, पर हाय ! कदाचित

जीवित भी हम रह न सके।

राजे ने अपनी रखवाली की / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

राजे ने अपनी रखवाली की;

किला बनाकर रहा;

बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं ।

चापलूस कितने सामन्त आए ।

मतलब की लकड़ी पकड़े हुए ।

कितने ब्राह्मण आए

पोथियों में जनता को बाँधे हुए ।

कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए,

लेखकों ने लेख लिखे,

ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे,

नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे

रंगमंच पर खेले ।

जनता पर जादू चला राजे के समाज का ।

लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं ।

धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ ।

लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर ।

ख़ून की नदी बही ।

आँख-कान मूंदकर जनता ने डुबकियाँ लीं ।

आँख खुली-- राजे ने अपनी रखवाली की ।

गुलाबी चूड़ियाँ / नागार्जुन

प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,

सात साल की बच्ची का पिता तो है!

सामने गियर से उपर

हुक से लटका रक्खी हैं

काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी

बस की रफ़्तार के मुताबिक

हिलती रहती हैं…

झुककर मैंने पूछ लिया

खा गया मानो झटका

अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा

आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब

लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया

टाँगे हुए है कई दिनों से

अपनी अमानत

यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने

मैं भी सोचता हूँ

क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ

किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?

और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा

और मैंने एक नज़र उसे देखा

छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में

तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर

और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर

और मैंने झुककर कहा -

हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ

वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे

वरना किसे नहीं भाँएगी?

नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!

समर शेष है / रामधारी सिंह "दिनकर"

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,

किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?

किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,

भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?

तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !

ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!

सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,

दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,

ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है

जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है

देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है

माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज

सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?

तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?

सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?

उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा

और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा

जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा

धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं

गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे

अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो

शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो

पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे

समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर

खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं

गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं

समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है

वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल

विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना

सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना

बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे

मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

हमारे लहू को आदत है / पाश

हमारे लहू को आदत है

मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता

ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है

सूली के गीत छेड़ लेता है

शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं

लहू है की तब भी गाता है

ज़रा सोचें की रूठी सर्द रातों को कौन मनाए ?

निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए ?

लहू ही है जो रोज़ धाराओं के होंठ चूमता है

लहू तारीख़ की दीवारों को उलांघ आता है

यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं --

जो कल तक हमारे लहू की ख़ामोश नदी में

तैरने का अभ्यास करते थे ।