पुराने कपड़ों से आदिवासी महिलाओं को सैनिटरी पैड्स बनाने की ट्रेनिंग दे रहा ये नौजवान
पुणे में युवा एडवोकेट सचिन ने गांव की गरीब आदिवासी महिलाओं को पुराने कपड़ों से सैनिटरी पैड्स बनाना सिखा रहे हैं। वे महिलाओं को उनके स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दों पर जागरूक भी कर रहे हैं।
भारत के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों की स्थिति ऐसी है कि न तो वहां सैनिटरी पैड्स की पहुंच है और न ही इसे लेकर कोई जागरूकता। आज भी महिलाएं पीरियड्स के दिनों में गंदे कपड़े का इस्तेमाल करती हैं जिसकी वजह से उन्हें तमाम प्रकार की बीमारियां होती हैं।
कहते हैं कि अगर कोई इंसान कुछ कर गुजरने की ठान ले तो लाख मुसीबतें भी उसका रास्ता नहीं रोक सकतीं। पुणे में पीरियड्स से जु़ड़ी चुनौतियों को हल करने वाले सचिन इसकी मिसाल हैं। सचिन गरीब आदिवासी महिलाओं के स्वास्थ्य की दिशा में काफी सराहनीय काम कर रहे हैं। भारत लगातार तरक्की के नए प्रतिमान भले ही गढ़ रहा हो लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में हम अभी भी काफी पीछे हैं। इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय आबादी का एक बड़ा तबका अभी भी सैनिटरी पैड्स से अनभिज्ञ है। देश के गांवों में 48 फीसदी महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिन प्रयोग करती हैं, जबकि शहरों में यह आंकड़ा 78 फीसदी का है।
इसके पीछे हमारे समाज की पिछड़ी मानसिकता और गरीबी जिम्मेदार है। हम अक्सर सोचते हैं कि अभी भी स्थिति ऐसी क्यों है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो न केवल सोचते हैं बल्कि इस सामाजिक स्थिति को दूर करने का प्रयास भी कर रहे हैं। पुणे में युवा एडवोकेट सचिन ने गांव की गरीब आदिवासी महिलाओं को पुराने कपड़ों से सैनिटरी पैड्स बनाना सिखा रहे हैं। वे महिलाओं को उनके स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दों पर जागरूक भी कर रहे हैं।
महाराष्ट्र के शोलापुर जिले के करमार गांव के रहने वाले सचिन का पूरा नाम सचिन आशा सुभाष है। उनके इस नाम के साथ उनकी मां और पिता का भी नाम जुड़ा है। किसान के घर में पैदा हुए सचिन की पढ़ाई जवाहर नवोदय विद्यालय में हुई। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने पुणे का रुख किया जहां से उन्होंने लॉ की पढ़ाई की। कॉलेज के दौरान ही उनके मन में गरीबों को देखकर उनकी मदद करने का ख्याल आता था। इसलिए उन्होंने एक छोटा सा ग्रुप बनाया जो पुराने कपड़ों को एकत्र करता था और फिर उसे गरीबों में वितरित करता था।
इसी दौरान सचिन को देश में सैनिटरी पैड्स के इस्तेमाल और पीरियड्स से जुड़ी गलतफहमियों के बारे में जानकारी हुई। उन्हें लगा कि इस पर भी कुछ काम करना चाहिए। उन्होंने 'समझबंध' नाम से एक संगठन बनाया जिसमें अपने साथी छात्रों को भी जोड़ा। इसके माध्यम से वे पुराने कपड़े इकट्ठे करते और फिर उन कपड़ों से सैनिटरी पैड्स तैयार कर आदिवासी इलाकों की महिलाओं को दे आते।
सचिन बताते हैं, 'भारत के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों की स्थिति ऐसी है कि न तो वहां सैनिटरी पैड्स की पहुंच है और न ही इसे लेकर कोई जागरूकता। आज भी महिलाएं पीरियड्स के दिनों में गंदे कपड़े का इस्तेमाल करती हैं जिसकी वजह से उन्हें तमाम प्रकार की बीमारियां होती हैं।' सचिन ने बताया कि उनकी मां भी इस वजह से बीमारी का शिकार हो चुकी हैं। उन्होंने बताया, 'काफी कम उम्र में ही मेरी मां को गर्भाशय से जुड़ी बीमारी हो गई थी इसलिए फिर गर्भाशय को ऑपरेशन करके निकालना पड़ा।' इसीलिए उन्होंने इन सैनिटरी पैड्स का नाम 'आशापैड' रखा है।
सचिन अब नहीं चाहते हैं कि ये बीमारी किसी और महिला को हो। इसलिए वे इस काम में लगे हुए हैं। वे अपने ग्रुप के साथ पुणे के पास इलाकों में जाते हैं और वहां महिलाओं और लड़कियों को पीरियड्स से जुड़े भ्रम के बारे में खुलकर बताते हैं। वे पुणे की वेल्ला, पुरंदर, मावल और हवेली तहसीलों के 50 से अधिक गांवों में जा चुके हैं। उन्होंने बताया कि अब तक 2,000 से अधिक महिलाओं को वे इस मुहिम से जोड़ चुके हैं। सचिन और उनकी टीम ग्रामीण महिलाओं को न केवल सैनिटरी पैड्स बांटती है बल्कि उन्हें पुराने कपड़ों से सैनिटरी पैड्स बनाने की ट्रेनिंग भी देती है।
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