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रोक-टोक की परवाह किये बिना अपनी कला से सैकड़ों ग़रीब बच्चों की ज़िंदगी संवार रही हैं शारदा सिंह

पेंटिंग के ज़रिए ग़रीब बच्चों की कला को निखारने की कर रही हैं कोशिश... ग़रीब बच्चों की पेंटिंग को दे रही हैं नया प्लेटफॉर्म

रोक-टोक की परवाह किये बिना अपनी कला से सैकड़ों ग़रीब बच्चों की ज़िंदगी संवार रही हैं शारदा सिंह

Wednesday March 23, 2016 , 6 min Read

देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) से उन्होंने दर्शनशास्त्र से पीएचडी की। गोल्ड मेडल हासिल किया। नौकरी मिली। अच्छा पति मिला। सुसराल में सब चाहने वाले मिले। जिंदगी ने हर खुशी दीं, लेकिन उनके मन में हमेशा एक टीस थी। ये टीस थी उनके अंदर की छुपी कला, जिसे उन्होंने सालों से अपने अंदर दबा कर रखा था। आज इसी कला की बदौलत वो ग़रीब बच्चों की जिंदगी संवार रही है। बच्चों के हुनर को हौसला दे रही हैं। इनकी कोशिशों का ही नतीजा है कि बनारस के आधा दर्जन से अधिक गांवों की तस्वीर आज बदल गई है। कल तक गांव की गलियों में जो बच्चे बिना मतलब घूमा करते थे वो आज कामयाबी की नई इबारत लिख रहे हैं। गांव के इन बच्चों को नई पहचान दे रही हैं बनारस के आदित्य नगर की रहने वाली शारदा सिंह। 

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दरअसल बनारस का संस्कृति और कला से गहरा नाता रहा है। सदियों से यहां की कला का डंका पूरी दुनिया में बजता रहा है। इसकी छाप शारदा सिंह पर भी पड़ी। जब वो आठ साल की थी तभी उनका मन कला की तरह खिंचा चला आया। कुछ ही दिनों में कोरे कागज पर कूंची के जरिए रंग भरते भरते उनके हाथ कुछ ऐसे सध गए जैसे पेंटिंग से उनका बरसों से नाता रहा हो। धीरे धीरे पेंटिंग शारदा सिंह की पहचान बन गई, लेकिन दुभार्ग्यवश उनकी इस कला को उनके परिवार वाले नहीं समझ सके। परिवार बड़ा था। घर में लड़कों को तरजीह दी जाती थी। लड़कियों पर कई तरह की बंदिशें थी। आजादी के नाम पर बस स्कूल जाना और परंपरागत किताबी पढ़ाई। इंटर के बाद की पढ़ाई शारदा फाइन आर्ट्स में करना चाहती थी। वो बीएचयू में एडमिशन लेना चाहती थी, लेकिन घरवालों को शायद ये मंजूर नहीं थी। पापा ने इसके लिए साफ मना कर दिया।


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उस वाक्ये को याद करते हुए शारदा सिंह बताती हैं,

"ऐसा नहीं था कि मेरे पापा मेरी पढ़ाई के लिए समर्थ नहीं थे। वो हर तरह से सक्षम थे। इसके लिए कोई जिम्मेदार था तो वो थी समाज में बरसों से चली आ रही रवायत। उस दौर में कला और संगीत की शिक्षा लेने की आजादी लड़कियों को नहीं थी। उसका असर मेरे परिवार पर भी पड़ा।"

शारदा सिंह ने भले ही फाइन आर्ट्स में एडमिशन नहीं लिया, लेकिन उन्होंने अपने अंदर कला के जुनून को हमेशा जिंदा रखा। पढ़ाई के साथ साथ पेंटिंग दौर जारी रहा। पीएचडी करने के बाद उन्होंने जॉब भी किया लेकिन उनका मन एक साल के अंदर ही इससे भर गया। पति का साथ मिला तो उन्होंने कला को अपना करियर बनाने की ठानी। बीएचयू फाइन आर्ट्स डिपार्टमेंट के प्रोफेसर एस प्रणाम सिंह की प्रेरणा से उन्होंने पहली बार अपनी पेंटिंग को रविंद्रपुरी स्थित एक आर्ट गैलरी में दुनिया के सामने रखा। लोगों ने शारदा की इस प्रतिभा की खूब सराहना की। उस दौर में उनकी तीन पेंटिंग एक लाख रुपए में बिकी। इसके बाद कामयाबी का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अब तक जारी है।

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अपनी कला को दुनिया के सामने रखने के बाद शारदा सिंह ने गरीब बच्चों को इससे जोड़ा। कुछ साथियों की बदौलत उन्होंने बनारस के आधा दर्जन से अधिक गांवों के गरीब बच्चों को इससे जोड़ा। शारदा सिंह आज अपने घर में गरीब बच्चों को पेंटिंग की बारीकियां समझाती हैं। गरीब बच्चों को कला के लिए प्रेरित करती हैं। उनकी कोशिशों का ही नतीजा है कि आज ये बच्चें कला के क्षेत्र में अपना झंडा बुलंद कर रहे है। बड़े बड़े मंचों पर इन गरीब बच्चों की पेंटिंग को लोग हाथों हाथ ले रहे है। चाहे सुबह-ए-बनारस का मंच हो या फिर स्वदेशी मेला। ये बच्चे जहां भी गए। अपने हुनर से सबको कायल कर दिया।

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शारदा सिंह इन बच्चों को विशेष रुप से बनारस की लुप्त होती भित्ती चित्र सिखाती है। ये एक ऐसी कला है जो बनारस और उसके आसपास के इलाकों में सदियों से चली आ रही है। लेकिन पिछले कुछ सालों से ये परंपरा टूटती जा रही है। शारदा सिंह की कोशिशों का ही नतीजा है कि पूर्वांचल की ये बेशकीमती कला एक बार फिर से जिंदा हो उठी है। इसके साथ ही गरीब बच्चों को रोजी रोटी का नया जरिया मिल गया है। शारदा अब बच्चों की इस कला को मार्केटिंग के नए नए ट्रेंड से जोड़ रही हैं ताकि ये बच्चे स्टार्टअप कर सकें। दिल्ली की मेहता आर्ट गैलरी के साथ शारदा ने एक टाईअप किया है। इसके तरह बच्चों की इन पेंटिंग्स का ऑनलाइन एग्जिविशन लगाया जाएगा। इसके साथ शारदा खुद एक साइट खोलने जा रही हैं। ताकि इन बच्चों की पेंटिंग्स को सेल किया जा सके। शारदा बताती है कि पिछले दिनों जब सुबह-ए-बनारस के मंच पर इन बच्चों की पेंटिंग की नुमाईश हुई तो अस्सी घाट पर आने वाले विदेशी सैलानी भी हैरान रह गए। इन सैलानियों ने बच्चों की पेंटिंग को हाथों हाथ लिया।

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योर स्टोरी से बात करते हुए शारदा बताती हैं,

"अगर इन बच्चों को बाजार से जोड़ दिया जाए तो हालात सुधर जाएंगे। इन बच्चों के अंदर कला तो है लेकिन उनको पहचान दिलाने वाला कोई नहीं है। मेरी कोशिश है कि ये बच्चें गांव की गलियों से निकलकर दुनिया के फलक पर अपनी जगह बनाएं।"

शारदा लखनऊ स्थित ललित कला अकादमी में इन बच्चों की पेंटिंग लगाने जा रही है, ताकि राज्य सरकार इन बच्चों की प्रतिभा को समझ सकें। शारदा खुद भी एक बेहतरीन चित्रकार हैं। दिल्ली, मुंबई, जयपुर सहित कई शहरों में उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लग चुकी हैं। आने वाले दिनों में शारदा के चित्रों की एक प्रदर्शनी फ्रांस में लगने वाली हैं। 

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कला के क्षेत्र में बच्चों की भागीदारी को बढ़ाने के लिए उन्होंने एक संस्था भी बनाई है। अभ्युदय नाम की ये संस्था बच्चों को कला की बारीकियां समझाने के साथ पढ़ाई के लिए भी जागरुक करती हैं। शारदा गांव गांव घूमती हैं। गरीब बच्चों को अपनी संस्था से जोड़ती हैं। इस काम में उनके पति और इलाके के मशहूर कॉर्डियोलॉजिस्ट डॉ शमशेर सिंह भी बखूबी साथ देते हैं। शारदा की बस यही तमन्ना है कि समाज की बंदिशों की वजह से फिर किसी के अंदर की कला मर ना जाए। यकीनन शारदा सिंह की छोटी सी लेकिन मजबूत पहल आज समाज को बदलने में मददगार साबित हो रही है।