मिलिये भारत के सर्वश्रेष्ठ व्हीलचेयर टेनिस खिलाड़ी शेखर वीरास्वामी से
भारत के नम्बर वन व्हीलचेयर टेनिस खिलाड़ी शेखर वीरास्वामी की प्रेरक कहानी...
जिनके पास सारी सहूलियतें होती हैं, सब कुछ भरा-पूरा होता है लेकिन दृढ़ निश्चय नहीं होता, अपना मकाम हासिल करने की ललक नहीं होती, वो वहीं के वहीं रह जाते हैं और मजबूत इरादे वाले अपनी टूटी-फूटी हालत में भी कमाल कर जाते हैं। ऐसी ही एक प्रेरक कहानी है भारत के नम्बर वन व्हीलचेयर टेनिस खिलाड़ी, शेखर वीरास्वामी की।
शेखर ने अपने खिताबों की फेहरिस्त में एक और ट्रॉफी बढ़ा ली है। ताबेबुया ओपन 2017 मे खेलते हुए एआईटीए रैंकिंग को अपने नाम कर लिया।
वीरास्वामी के लिये यहां तक का सफर कभी आसान नहीं था। छोटी उम्र में मां पिता की गरीबी ने ट्रेनिंग लेने का मौका नहीं दिया।
एक पंक्ति है, या यूं कह लीजिए दिव्य वाक्य है; पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है। ये बात सही है बिल्कुल यथार्थ है। जिनके पास सारी सहूलियतें होती हैं, सब कुछ भरा-पूरा होता है लेकिन दृढ़ निश्चय नहीं होता, अपना मकाम हासिल करने की ललक नहीं होती, वो वहीं के वहीं रह जाते हैं और मजबूत इरादे वाले अपनी टूटी-फूटी हालत में भी कमाल कर जाते हैं। ऐसी ही एक प्रेरक कहानी है भारत के नम्बर वन व्हीलचेयर टेनिस खिलाड़ी, शेखर वीरास्वामी की।
शेखर ने अपने खिताबों की फेहरिस्त में एक और ट्रॉफी बढ़ा ली है। ताबेबुया ओपन 2017 मे खेलते हुए एआईटीए रैंकिंग को अपने नाम कर लिया। उनत्तीस साल के इस खिलाड़ी ने तमिलनाडु के बालचंद्र सुब्रमण्यन को 7-6(11), 6-4 से मेन्स सिंगल्स टाइटल के लिये 17 दिसंबर को 2017 को हरा दिया। वीरास्वामी के लिये यहां तक का सफर कभी आसान नहीं था। छोटी उम्र में मां पिता की गरीबी ने ट्रेनिंग लेने का मौका नहीं दिया।
पिता हर दिन कमा कर खाने वाले मज़दूरों में से एक, और मां घर चलाती थीं। पैसों की तंगी की वजह से उनकी पढ़ाई तक पूरी नहीं हो सकी। पर वीरास्वामी के ख्वाब हमेशा से लियेंडर पेस और पेटे स्मप्रास की तरह स्टार टेनिस खिलाड़ी बनने की थी। लिहाजा शेखर ने केएसएलटीए स्टेडियम में बॉल बॉय की छोटी सी नौकरी पकड़ ली। धीरे-धीरे उनको मौके मिलने लगे और वो मार्कर बन गए और फिर चीफ कोट निरंजन रमेश के असिस्टेंट। साल 2005 के एक मनहूस घड़ी में वीरास्वामी एक बड़ी दुर्घटना के शिकार हो गए। सर्जरी में उनका बायां पैर काटना पड़ा। इसी के साथ टेनिस खिलाड़ी बनने के उनका सपना लगभग टूट गया।
2010 में उन्होंने एक फिर अपनी चाहतों में रंग भरने की कोशिश की व्हीलचेयर टेनिस के जरिये। हादसे से पहले खेले गए टेनिस का तरीका तो उनको मालूम था, पर व्हीलचेयर में सरपट भाग ना पाने की वजह से वो निराश हो गए। फिर भी 3 दिनों की ट्रेनिंग के बाद उन्होंने एक टूर्नामेंट मे हिस्सा लिया। पहले ही राउंड में हालांकि वो आउट हो गए।
निराशा हुई पर टेनिस के लिये उनका प्यार कम नहीं हुआ, और अगले ही साल एक नेश्नल लेवल टूर्नामेंट में उन्होंने एक बार फिर हिस्सा लिया, वो भी सिर्फ 2 दिन की ही ट्रेनिंग के बाद। इस बार उन्हें जीत मिली और हौंसला भी कि वो आगे भी व्हीलचेयर टेनिस खेल सकते हैं। प्राइज़ मनी के तौर पर उन्हें इस बार 50,000 रुपए भी मिले। और यहीं से शुरू हुआ उनका टेनिस का करियर। इसके बाद शेखर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। कुछ ही सालों में उनके नाम 4 नेशनल टाइटल सिंगल्स और डबल्स हो गए।
इसके बाद उन्होंने साउथ अफ्रीका में अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय मुकाबला खेला, और कॉन्सोलेशन प्राइज़ लेकर लौटे। फिर उन्हें मौका मिला थाइलैंड में होनेवाले बैंगकॉक कप में खेलने का। पूरी तैयारी के साथ शेखर ने बेहतरीनयकेल के प्रदर्शन किया और इस बार डबल्स की श्रेणी में टॉप प्राइज़ लेकर लौटे। इतने अवार्ड और ट्रॉफी अपने नाम होने के बावजूद शेखर को आज महज़ 10000 रुपए की महीने सैलेरी मिलती है। इन पैसों से पूरा घर चलाना और खुद के बेहतर डाइट, खेल के सामान और दूसरी ज़रूरी चीजें पूरी नहीं हो पाती। इन परेशानियों के बावजूद शेखर ने उम्मीद नहीं छोड़ी है, और आगे भी खेलते रहने की बात करते हैं। शेखर एक ऐसे मिसाल हैं, जो हमें अपने सपनों को पूरा करने का हौंसला देते हैं।
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