फ़िल्म रिव्यू: 'पठान' - आख़िर कोई क्यों ना देखे ये फ़िल्म? और देखने की क्या वजहें हो सकती हैं
बेवजह कुछ नहीं होता, ऐसा शाहरुख़ के ही एक किरदार ने एक बड़ी कामयाब फ़िल्म में कहा था. तो आइए समझ लेते हैं देखने और ना देखने की कुछ वाजिब वजहें...
वाह, कमाल, ग़ज़ब, शाबाश, जियो…रंग जमा दिया आपने !! आप ‘पठान’ का रिव्यू पढ़ने आए हैं !! अब भी भरोसा नहीं होता. बाएँ हाथ पर चिकोटी काट के क्लियर कर लिया कि आप असल में हैं. क्योंकि पठान जिसे देखनी है उसे कोई रोक नहीं सकता, और जिसे नहीं देखनी उसे कोई भेज नहीं सकता. माहौल ऐसा है कि मोहल्ले के दो सबसे दबंग परिवार आपस में गुत्थम गुत्था हुए जा रहे हैं और कोने में डेढ़ मंज़िल के मकान वाले, कृषि विभाग से रिटायर काका अपनी छत से कह रहे हैं कि अरे झगड़े से किसको क्या मिला है आज तक. आप दबाव में आकर दबंग बने वो बड़े लड़के हो जिसे काका की बात में भी दम लगता है. तभी तो क्लिक करके आप यहाँ तक आए. नक्कारखाने में तूती की आवाज़.
अब आगे की बात. आपके पास समय ज़्यादा ना हो तो एक लाइन में सुन लीजिए कि पठान बेहद औसत फ़िल्म है. इसे ना देखकर आप कुछ भी ऐसा मिस नहीं करेंगे जो आपको बाद में खले.
अब आते हैं संदर्भ सहित व्याख्या पर. सिद्धार्थ आनंद हैं पठान के डायरेक्टर. और इन्हें स्टार्स के साथ मसाला फ़िल्में बनानी आती हैं. ‘वॉर’ और ‘बैंग बैंग’ इन्होंने ही बनाई थीं.
और क्योंकि फ़िल्म के लिए ज़रूरत होती है एक अदद कहानी और स्क्रीनप्ले की. तो ये ज़िम्मा निभाया है श्रीधर राघवन ने. सिद्धार्थ आनंद की ‘वॉर’ और ‘ख़ाकी’ ये पहले भी लिख चुके हैं. और अगर आपको लगता है कि ये नाम आपने पहले भी सुन रखा है तो आप असल में ‘राघवन’ सरनेम से गच्चा खा रहे हैं. क्योंकि जो नाम आपको याद आ रहा है वो ‘अंधाधुन’ जैसी शानदार फ़िल्म बनाने वाले श्रीराम राघवन का नाम है. श्रीधर राघवन असल में उनके भाई हैं. बहरहाल, कहानी जैसा अगर पठान में कुछ है भी तो उसके ज़िम्मेदार हैं श्रीधर. फ़िल्म देखने के बाद हालांकि उन्हें इस इल्ज़ाम से बाइज़्ज़त बरी किया जा सकता है.
हमेशा की तरह भारत ख़तरे में है. अबकी इसका ज़िम्मा उठाया है जिम ने. जिसका किरदार निभाया है जॉन अब्राहम ने. और इसी ख़तरे से निपटने के लिए कई बरसों से ग़ायब एक अल्फ़ा एजेंट पठान को खोजने निकाल पड़ी हैं डिम्पल कपाड़िया. वो भी प्राइवेट जेट से. उन्हें शायद ही पता हो कि असल में इंटेलिजेंस एजेंसियों में सबसे बड़ी समस्या फ़ील्ड में हुए ख़र्च के री-इम्बरसमेंट की होती है. पांच घंटे की इसी फ़्लाइट में हमेशा की तरह सीनियर अधिकारी एक नए एजेंट को बताती हैं पठान की आधी कहानी. कि वो क्यों ग़ायब हो गया? उसके बारे में क्या अफ़वाहें चलती हैं वग़ैरह वग़ैरह.
और फिर दिखाई देते हैं हेलिकॉप्टर को ज़ेप्टो वाली ई-बाइक की तरह लसेड़ते शाहरुख़ खान. साउंड डिज़ायनिंग पर घना खर्च हुआ है, गोलियों की आवाज़ बेस गिटार और ड्रम को मिलाकर जैसी आवाज़ आती है क़रीबन वैसी सुनाई देती है. जिम अपने ख़तरनाक मंसूबों में कामयाब होने के लिए नई एडटेक कंपनी की तरह बेहिसाब पोचिंग करता है. जिससे दुनिया भर की सीक्रेट एजेंसियों के एजेंट सौ पर्सेंट इनक्रिमेंट देखकर उसे जॉइन भी कर लेते हैं. ऑफ़र पठान के पास भी है लेकिन वो ‘दफ़्तर नहीं परिवार है यार’ टाइप्स बंदा है. फिर ख़तरा, दुश्मन, ट्रिक और बीच पर गाने बजाने का दौर आता है और आधी पिच्चर निकल जाती है. तब तक आप पॉपकॉर्न खाने का इरादा बदल चुके होते हैं. ऑलरेडी टिकट का पैसा डूब चुका होता है.
लेकिन सेकेंड हाफ़ में जब आप सिंटेक्स मलहम इत्यादि के ऐड देखकर ख़ाली होंगे तो फ़िल्म फिर से आपको पकड़ में लेने की कोशिश करेगी. अब वो कोशिश कामयाब होती है कि नहीं, ये देखने के लिए आपको फ़िल्म देखनी पड़ेगी.
कहानी
पहले ही बताया कि कहानी नहीं है कुछ. बस मोबाइल में टाइप किए नोट्स होंगे जिनसे पूरी फ़िल्म बना डाली.
ऐक्टिंग
शाहरुख़ ने ऐक्टिंग करने की कमाल ही ऐक्टिंग कर डाली है. बल्कि ना ना करते हुए भी जॉन ने कुछ जगह ठीक ठाक काम कर दिखाया है. बल्कि ये कहें कि जॉन का होना शाहरुख़ को धार देता है तो शायद ग़लत नहीं होगा. विलेन का किरदार जॉन ने निभाने में काफ़ी कोशिश की है. आशुतोष राणा की बात कोई कर नहीं रहा, क्योंकि बात करने लायक़ उन्हें फ़ुटेज मिली भी नहीं. ऐसे तगड़े खिलाड़ी के हाथ इतने बुरे पत्ते लगे कि साफ़ समझ आता है कि कोई हारने के लिए ही फड़ पर बैठा है आकर. डिम्पल भी बुरे पत्तों के साथ खेलती हैं. अलबत्ता दीपिका पादुकोण ने ऐक्शन सीन्स में काफ़ी हद तक सटीकता बरती है. फिर भी तारीफ़ के क़ाबिल नहीं हैं ये सीन्स.
सिनेमैटोग्राफ़ी
सदचिद पोलूस ने अपनी तरफ़ से फ़्रेम्स को बोझिल होने से रोकने की पूरी कोशिश की है. जो काफ़ी हद तक विज़ुअल अप्रोच के मामले में कामयाब होती भी है. लोकेशन्स बेहद शानदार (खर्चीली) हैं इसलिए आंखें कई फ़्रेम्स पर ठहरती भी हैं. जमी हुई झील पर ऐक्शन सीक्वेंस हो या बर्फीली पहाड़ी पर चेज़िंग सीन, इन्हें देखते हुए कुछ पैसा वसूल टाइप फ़ील आ जाती है.
ग्राफ़िक्स
क्योंकि पठान में ग्राफ़िक्स का काफ़ी इस्तेमाल हुआ है इसलिए अलग से इस पर बात करना ज़रूरी लगता है. हैरानी होती है कि चार साल बाद शाहरुख़ खान की वापसी जिस फ़िल्म से हो रही है उसमें इतने हल्के और लापरवाह ग्राफ़िक्स का काम !! वो भी तब जबकि पूरी फ़िल्म इन्हीं दो चार सीन्स पर टिकी हुई है. पठान और जिम के ट्रक पर भिड़ंत का सीन हो या हवा में एयरो फ़ाइट, इससे कहीं कमाल के ग्राफ़िक्स हो सकते थे. पता नहीं इस पर प्रोडक्शन का ध्यान क्यों नहीं गया.
अब जिस ट्रेन सीक्वेंस की बहुत चर्चा है, जिसमें सलमान खान की वाइल्ड कार्ड एंट्री होती है वो काफ़ी बनावटी लगता है. याद आता है शाहरुख़ का ट्रेन पर डांस करते हुए छैयाँ छैयाँ गाना, जिसे आज भी देखा जाता है. ट्रेन पर शाहरुख़ इससे उम्दा शायद ही कभी परफ़ॉर्म कर सकें.
बहरहाल, बेवजह कुछ नहीं होता, ऐसा शाहरुख़ के ही एक किरदार ने एक बड़ी कामयाब फ़िल्म में कहा था. तो आइए समझ लेते हैं देखने और ना देखने की कुछ वाजिब वजहें -
क्यों देखें?
- अगर शाहरुख़ खान के जबरा वाले फ़ैन हैं और ‘किंग’ खान की फ़िल्में आपके लिए छठ की तरह सिर्फ़ त्यौहार नहीं बल्कि ‘फ़ीलिंग’ है, तो आप देख ही चुके होंगे. हमारे कहने का वेट थोड़ी ना कर रहे होंगे. फिर आप ये पढ़ क्यों रहे हैं?
- अच्छा तो आप जॉन अब्राहम वाले हैं? जैसे 2 अक्टूबर को लाल बहादुर शास्त्री फ़ैन क्लब वाले प्रोफ़ाइल-प्रोफ़ाइल दरवाज़ा खटखटा कर बताते हैं कि हैलो आज सिर्फ़ महात्मा गांधी का ही बड्डे नहीं है, शास्त्री जी का भी है. वैसे ही आप जॉन दी डॉन के बारे में बात करना-सुनना-समझना-समझाना चाहते हैं. ग्रैब दी फ़्लोर. अब तक तो देख आनी चाहिए थी. फिर आप ये पढ़ क्यों रहे हैं?
- ओहो हो हो कहीं आप ‘समझ में नहीं डाइरेक्ट दिल में आने वाले’ ‘भाईजान’ को पर्दे पर देखकर सीटी मारने का शौक़ पाले हुए हैं क्या? मस्त मौक़ा है. पानी पी पीकर सीटी मारिए. शौक़ बड़ी चीज़ है. हालांकि उस सीन में सलमान और शाहरुख़ से कहीं धाँसू ऐक्टिंग एक तीसरे किरदार ने कर डाली है. जिसका आइडिया भाई को ज़रूर डायरेक्टर के ऐक्शन बोलने के बाद आया होगा. और फिर भाई ने आदतन हमेशा की तरह लांच किया ‘डोलो - दी पेनकिलर’ को. चुपचाप मेथड ऐक्टिंग कैसे की जाती है ये उस पेनकिलर के पत्ते से सीखना चाहिए. भाई को नहीं, बाक़ी कलाकारों को. और आप इसके लिए उम्र भर भाई के क़र्ज़दार रहेंगे. टिकट के पूरे पैसे देने के बाद भी. स्वैग, यू नो. तो जाइए ना, फिर आप ये पढ़ क्यों रहे हैं?
- दीपिका पादुकोण के ऐक्शन सीन आपको सिनेमा घर की तरफ़ बुलाते हैं? तो जाइए. मारपीट के एक ‘बेहद ज़रूरी’ सीन में एक सीनियर गुंडे को फ़ाइनल किक मारने से पहले दीपिका ने जैसे ही जर्सी उतारी, मेरे अग़ल-बगल में बैठे दो साथियों ने मेरे दोनों कानों में एक सवाल, एक ही साथ पूछा, ‘वैसे ये किक मारने का जर्सी से क्या रिलेशन था भाई?’ उसके बाद हम तीनों पाँच मिनट का ग़ैर-ज़रूरी चिंतन करके वापिस फ़िल्म पर फ़ोकस हो पाए. बहरहाल, आप अब तक गए क्यों नहीं? आप ये पढ़ क्यों रहे हैं?
- सोशल मीडिया पर चल रही ‘पठान कबड्डी’ में कोई पाला चुन लिया है? और वो वाला चुन लिया है जो मूवी टिकट ख़रीदकर सामने वाले को ‘जवाब’ देना चाहते हैं? ख़ुद ही सोचिए कि जो बात महज़ एक मूवी टिकट पर टिकी है, वो कितनी हल्की होगी. फिर आप ये पढ़ क्यों रहे हैं?
- अच्छा ! कहीं आप लिखाई लाइन में तो नहीं हो, और आपने भी अपने बॉस से वीकेंड पर फ़िल्म रिव्यू का वादा किया था और अब तक सुन्न बटे सन्नाटा रहा है सब? और बॉस ने ख़ुद आपको फ़िल्म का टिकट ख़रीदकर भेजा, आपको ही नहीं आपके दोस्तों के लिए भी टिकट भेजा और हिंदुस्तानी भाउ की तरह ‘माइल्ड रिमाइंडर’ दे दिया. फिर तो आपका जाना बनता है. हालांकि बॉस आपके भले के लिए ही आपको धकिया रहे हैं. फिर आप ये पढ़ क्यों रहे हैं? जाइए.
अब समझ लीजिए, कि क्यों ना देखें?
- सब्ज़ी के साथ मुफ़्त धनिया के लिए आप भी सब्जीवाले से दैनिक शास्त्रार्थ करते हैं? मतलब बटुए पर जल्दी किसी को हाथ फेरने नहीं देते. इतनी मेहनत से बनाया-बचाया आपका पैसा ख़र्च करवाने की क़ाबिलियत इस फ़िल्म में नहीं है.
- दर्जनों बार रंदा खा खा के घिस चुकी कहानी, हास्यास्पद सस्पेंस, उबाल खाकर चूल्हे पर गिरे दूध की तरह बासी और नाकारा ऐक्शन, दयनीय ग्राफ़िक्स और वही दो गुणे दो चार वाले गाने (जिन्हें स्पेन में फ़िल्माओ या गुरुग्राम में फ़रक कुछ नहीं पड़ता), बिल्डिंग फोड़कर निकलता ऊल जलूल हेलिकॉप्टर…और इन सबको देशभक्ति के बेसन में तलकर बनाया गया पकौड़ा. दिमाग़ी बदहज़मी ना झेलनी हो तो मत देखिए.
- आपको थोड़ी थोड़ी देर पर पर्दे के उस पार बैठे एक ब्लॉकबस्टर फ़िल्म बनाने जा रहे वो लोग दिखने लगते हैं जो कहानी, शूटिंग, लोकेशन वग़ैरह पर बैठकर बात करते हुए जनता पर हंसते हैं और कंधे उचकाकर आंख मारते हुए कहते हैं कि ‘अरे पब्लिक को यही चलता है’.
- थोड़ा भी कुछ ढंग का देखने की इच्छा रखते हैं तो मत देखिए.
- देखना ही है तो OTT खंगाल लीजिए, एक से बढ़कर एक कंटेंट मौजूद है. जैसे अमेज़न प्राइम पर हालिया रिलीज़ सीरीज़ ‘सिनेमा मरते दम तक’ देखिए. बेहद उम्दा सीरीज़. चार गुमनाम फ़िल्म डायरेक्टर जिन्होंने एक पूरा दौर राज किया ‘एक क़िस्म’ का सिनेमा बनाकर. उन्हें दोबारा मौक़ा मिला तो क्या खेल कहानी दिखती है? इस सीरीज़ की जितनी तारीफ़ करें उतनी कम.
बाक़ी आप समझदार दर्शक हैं. लेकिन ख़ुद से सवाल ज़रूर करें कि सितारे टिमटिमाते क्यों हैं? क्योंकि करेंसी नोट जो हैं वो सफ़र पर निकले हैं, आपका बटुआ तो महज़ एक स्टेशन है. जितनी रफ़्तार, उतनी चकाचौंध. शाहरुख़ खान इस सदी का सितारा है.