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पीने के पानी से लेकर भ्रष्टाचार से लड़ने तक, आदिवासी युवाओं को मोबाइल वीडियो के साथ बदलाव लाने में मदद कर रहा है यह 29 वर्षीय शख्स

नितेश भारद्वाज द्वारा शुरू की गई आदिवासी जनजागृति (Aadiwasi JanJagruti) पहल, ग्रामीण महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले में आदिवासी गांव के युवाओं को मोबाइल फोन के जरिए "वह परिवर्तन जिसे वह देखना चाहते हैं" उसे लाने में सशक्त बनाती है।

पीने के पानी से लेकर भ्रष्टाचार से लड़ने तक, आदिवासी युवाओं को मोबाइल वीडियो के साथ बदलाव लाने में मदद कर रहा है यह 29 वर्षीय शख्स

Monday July 05, 2021 , 8 min Read

"झारखंड के सिहान गांव के रहने वाले नितेश 12वीं की परीक्षा में दो बार फेल हुए क्योंकि वह "साइंस" को नहीं समझ सके। यह महसूस करने के बाद कि वे इंजीनियरिंग के लिए नहीं बने हैं, वे पत्रकारिता करने लगे। दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन खत्म करने के बाद, उन्होंने दून यूनिवर्सिटी से अपनी मास्टर डिग्री में डेवलपमेंट कम्युनिकेशन में विशेषज्ञता प्राप्त करने से पहले विभिन्न चैनलों और प्रोडक्शन हाउस में भी काम किया।"

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जब नितेश भारद्वाज एसबीआई के यूथ फॉर इंडिया फेलोशिप के हिस्से के रूप में ग्रामीण महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले में पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं के माध्यम से बड़ी रकम खर्च करने के बावजूद कुछ गांवों में बहुत कम विकास हुआ था। 


वह याद करते हैं, "जहां इस क्षेत्र ने भारत में आधार कार्ड प्राप्त करने वाली पहली महिला होने का गौरव प्राप्त किया, तो वहीं कुछ क्षेत्रों में कोई मोबाइल नेटवर्क या बिजली तक नहीं थी, और अन्य में पीने योग्य पानी नहीं था।" 


भौगोलिक रूप से, नंदुरबार - मध्य प्रदेश और गुजरात दोनों की सीमा में - सतपुड़ा रेंज के अंतर्गत आने वाला कठिन इलाका है।

प्रासंगिक जानकारी का अभाव

जहां प्राथमिक और माध्यमिक स्कूली शिक्षा ने अधिकांश क्षेत्र में प्रवेश किया था, तो वहीं आदिवासी बहुल इस जिले में सरकार के नेतृत्व वाली कई विकास योजनाओं का लाभ नहीं पहुंचा।


वह कहते हैं, “उच्च-स्तरीय भ्रष्टाचार था, और इससे मुझे एहसास हुआ कि लोगों को विभिन्न तरीकों से लाभान्वित करने के लिए सही और प्रासंगिक जानकारी का प्रसार किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, स्वच्छ भारत मिशन का समर्थन करने वाले अमिताभ बच्चन यहां काम नहीं करेंगे क्योंकि यह उस भाषा में प्रचारित नहीं होता है जिसमें लोग सहज होते हैं।” 


इस तरह नितेश का काम शुरू हुआ। उन्होंने जागरूकता पैदा करने और झूठी सूचनाओं को खारिज करने का फैसला किया जो गांवों में व्यापक रूप से फैलती थीं क्योंकि फैक्ट-चेक का कोई तरीका नहीं था।


इन्होंने आदिवासी जनजागृति की नींव भी रखी - यह एक गैर-लाभकारी संस्था है जो उनके विकास के लिए काम करती है। नितेश के काम को समझने के लिए पहले उनकी अपनी कहानी को भी समझना है, जिसमें असफलता और जिस चीज में वह विश्वास करते थे उसे पाने के लिए संघर्ष शामिल है।


झारखंड के सिहान गांव के रहने वाले नितेश 12वीं की परीक्षा में दो बार फेल हुए क्योंकि वह "साइंस" को नहीं समझ सके। यह महसूस करने के बाद कि वे इंजीनियरिंग के लिए नहीं बने हैं, वे पत्रकारिता करने लगे। दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन खत्म करने के बाद, उन्होंने दून यूनिवर्सिटी से अपनी मास्टर डिग्री में डेवलपमेंट कम्युनिकेशन में विशेषज्ञता प्राप्त करने से पहले विभिन्न चैनलों और प्रोडक्शन हाउस में भी काम किया।


हालांकि, 2017 में एसबीआई फेलोशिप ने उनके जीवन और नंदुरबार में उनके संपर्क में आए लोगों के जीवन को बदल दिया। वह धडगांव गांव में एमजेपीडब्ल्यूएसी-महाराज जनार्दन पोहार्या वालवी आर्ट्स कॉलेज में छात्रों के साथ दोस्त बन गए और उन्हें पेजमेकर और क्वार्कएक्सप्रेस जैसे एप्लीकेशन पर काम करना सिखाकर एक कैंपस अखबार प्रकाशित करने में मदद की।

बदलाव के लिए मोबाइल वीडियो

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चूंकि अखबार केवल कैंपस तक ही सीमित था, इसलिए छात्र इसे फिल्मों का निर्माण करके बड़े पैमाने पर हासिल करना चाहते थे। दिलचस्प बात यह है कि योरस्टोरी के साथ बातचीत के दौरान, नितेश बताते हैं कि वह कॉलेज के छात्रों को 'बच्चे' कहकर संबोधित करते हैं - जोकि उनके साथ उनके घनिष्ठ संबंध को परिभाषित करता है।


वह कहते हैं, “नागराज मंजुले की सैराट (एक मराठी फिल्म) अभी-अभी रिलीज हुई थी और बहुत बड़ी हिट हुई थी। छात्रों ने सोचा कि अगर एक छोटे से गांव का आदमी फिल्म बनाकर इतनी महानता हासिल कर सकता है, तो वे भी छोटे स्तर पर कुछ करने की कोशिश क्यों नहीं कर सकते।” 


उन्होंने अलग-अलग पृष्ठभूमि से गांव के 25-30 युवाओं का एक समूह बनाया, और उन्हें मोबाइल वीडियो बनाने, एक स्क्रिप्ट लिखने, आइडिया जनरेट करने, विभिन्न कैमरा एंगल, एडिटिंग और अंत में इसे अपलोड करने का प्रशिक्षण दिया।


फिल्म के प्रभावी होने के लिए, इसे एक कठिन विषय पर बनाया जाना था, और छात्रों ने इसके लिए बाल श्रम को चुना। नितेश कहते हैं, फिल्म का अंतर्निहित संदेश उपहास या समाज पर अभियोग का नहीं था, बल्कि एक साधारण विचार था कि अगर फिल्म का नायक - एक छोटे लड़के को पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर नहीं उठाना पड़ता - तो वह स्कूल भी जा सकता था।


वह कहते हैं, “हमने फिल्म को YouTube पर अपलोड किया, और इसने काफी अच्छा प्रदर्शन किया। स्थानीय अखबारों ने इसके बारे में बात की, और जल्द ही, हमने इन युवाओं के बीच आत्मविश्वास में वृद्धि देखना शुरू कर दिया।”


आखिरकार, इन युवाओं ने पोवारी में एक फिल्म स्वच्छ भारत बनाई, जिसने कलेक्टर का ध्यान आकर्षित किया। कलेक्टर ने उन्हें मोबाइल फोन और एक मोबाइल प्रोजेक्टर गिफ्ट में दिए।


वह कहते हैं, "हमने 2017 में विभिन्न गांवों में मोबाइल प्रोजेक्टर पर इन शॉर्ट फिल्मों को, स्वयं सहायता बैठकों और 85 गांवों में ग्राम पंचायतों को प्रसारित किया। उन्हें इतनी जबरदस्त प्रतिक्रिया मिली कि हमने सरकार द्वारा संचालित प्रत्येक योजना के मोबाइल वीडियो बनाने के बारे में सोचा।" 

जमीनी स्तर पर समाधान खोजना

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2019 तक, स्वयंसेवकों का आधार बढ़कर 50 हो गया। नितेश ने अपनी फेलोशिप का कार्यकाल पूरा कर लिया था और झारखंड लौट आए थे। हालांकि, स्वयंसेवकों ने उनके नेतृत्व में काम जारी रखा।


नितेश ने देखा कि उनके कामों का प्रभाव यह हुआ कि लोग विभिन्न समस्याओं का समाधान खोजने के लिए उनके पास आने लगे। वह एक ऐसे उदाहरण की बात करते हैं जहां आमखेड़ी के ग्रामीणों ने शिकायत की थी कि पीने योग्य पानी पाने के लिए उन्हें पहाड़ी पर कुछ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है क्योंकि गांव में कोई बोरवेल नहीं है।


वह कहते हैं, “हमने इस मुद्दे पर 15 मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री बनाई। खंड विकास अधिकारी ने इसे देखा और सरपंच को छह बोरवेल खोदने के लिए फंड का इस्तेमाल करने के लिए निर्देशित किया गया।” 


सबसे बड़ा प्रभाव तब पड़ा जब मिनी बैंकों के बैंकिंग कोरस्पोंडेंट का स्टिंग ऑपरेशन किया गया। इसमें देखा कि ये बैंकिंग कोरस्पोंडेंट ग्रामीणों द्वारा 500 रुपये की निकासी के लिए 20 रुपये का शुल्क लेते थे वो भी उन ग्रामीणों से जो बैंक तक पहुंचने के लिए कम से कम 20 किमी पैदल चलकर आते थे। परिणामस्वरूप, कुछ कोरस्पोंडेंट के लाइसेंस रद्द कर दिए गए, और अन्य ने अतिरिक्त शुल्क नहीं लेने का वचन दिया।


COVID-19 महामारी के दौरान, आदिवासी जनजागृति स्वयंसेवकों का मुख्य मिशन वायरस के बारे में गलत जानकारी को खारिज करना, सामाजिक दूरी को लागू करना और लोगों को खुद को टीका लगाने के लिए प्रोत्साहित करना है।


वह कहते हैं, “टीकाकरण को प्रोत्साहित करने के लिए गांवों का दौरा करने वाले स्वास्थ्य कर्मियों को पीटा गया और भगा दिया गया। बहुत सारी झूठी खबरें चक्कर काटने लगीं- जैसे कि यह जनसंख्या नियंत्रण और गरीबों को मारने के लिए किया जा रहा था। हमने पोवारी और भिलोरी में एक शॉर्ट फिल्म बनाई, जहां हमने तथ्यों को समझाने के लिए शिक्षकों की मदद का इस्तेमाल किया। जल्द ही, लोग समझ गए और टीकाकरण अभियान में भाग लेने लगे।” 

जीवन बदलना, एक बार में एक वीडियो

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स्वयंसेवक अब अपने गावों में सामाजिक और सामुदायिक नेता बन गए हैं। आदिवासी जनजागृति को कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलता है। इसकी आय का छोटा स्रोत YouTube और चैनलों पर छोटे विज्ञापनों से आता है। कई बार ग्रामीण भी इसमें शामिल हो जाते हैं। नितेश स्वयंसेवकों को भुगतान करने के लिए प्राप्त अनुदान और पुरस्कार राशि का इस्तेमाल करते हैं। लोग इस्तेमाल किए गए लैपटॉप और मोबाइल फोन भी दान करते हैं।


हालांकि, स्वयंसेवकों के लिए जीवन ने एक दृढ़ मोड़ ले लिया है। नितेश के अनुसार, वे अब अधिक आश्वस्त हैं, और उनमें से कुछ को अशोक विश्वविद्यालय और निरमा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट जैसे संस्थानों से प्रतिष्ठित फेलोशिप भी मिली है।


पिछले साल, नितेश ने आदिवासी जनजागृति पर पूर्णकालिक ध्यान केंद्रित करने के लिए रांची में उपायुक्त कार्यालय के साथ सलाहकार के रूप में अपनी जॉब छोड़ दी। उनका कहना है कि उनका परिवार उनके फैसले से खुश नहीं था, लेकिन उन्होंने परिवारों के तर्कों का विरोध करते हुए कहा कि उनकी सबसे बड़ी संपत्ति नंदुरबार के गांवों में लोगों की खुशी से आती है।


वह कहते हैं, “पांच और ब्लॉक हैं जिन तक हम विस्तार करने की योजना बना रहे हैं, जिसके बाद हम पड़ोसी जिलों पर ध्यान केंद्रित करेंगे। हम अपने मकसद में मदद के लिए सीएसआर फंड की भी तलाश कर रहे हैं।"


उनका उद्देश्य आदिवासी जनजागृति को "गांवों का बीबीसी" बनाना है। वह कहते हैं, “अगर कोई हैंडपंप काम नहीं कर रहा है, तो एक बड़ा न्यूज चैनल इसे कवर नहीं करेगा। हमें ग्रामीण स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी।”


Edited by Ranjana Tripathi