कैसे लिखा गया था वो ऐतिहासिक गीत “ऐ मेरे वतन के लोगों”
जब लता मंगेशकर की आवाज में यह गीत सुनकर रो पड़े थे पंडित जवाहरलाल नेहरू.
साल 1963, तारीख 27 जनवरी. नई दिल्ली का नेशनल स्टेडियम लोगों से खचाखच भरा हुआ था. सबसे आगे की पंक्ति में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बैठे थे और उसके बगल में देश राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन. चीन के साथ भारत के दर्दनाक युद्ध का अंत हुए अभी दो महीने ही हुए थे और गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली में यह कार्यक्रम हो रहा था.
कार्यक्रम आगे बढ़ा और मंच पर आईं स्वर कोकिला लता मंगेशकर. उन्होंने गला साफ किया, पल्कें झपकाईं और गाना शुरू किया.
यह गीत था कवि प्रदीप का लिखा हुआ ऐतिहासिक गीत “ऐ मेरे वतन के लोगों.” संगीत सी. रामचंद्र का था. लता जी ने गाना शुरू किया-
“ऐ मेरे वतन के लोगों,
जरा आंख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
जरा याद करो कुर्बानी.”
पूरे हॉल में बिलकुल सन्नाटा छाया हुआ था. सिर्फ भावों और शब्दों में रुंधी हुई लता जी की आवाज गूंज रही थी. सब लोग दम साधे इस गीत को सुन रहे थे. जब लता जी ने गीत की आखिरी पंक्तियां गाईं-
"तुम भूल न जाओ उनको
इसलिए कही ये कहानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
जरा याद करो कुर्बानी."
यह सुनकर सबसे आगे की पंक्ति में बैठे नेहरू जी की आंखें भर आईं.
इस ऐतिहासिक गीत के लिखे जाने की कहानी
प्रदीप ने यह गीत भारत-चीन युद्ध में मारे गए भारतीय सैनिकों की याद में लिखा था. इस गीत के बनने की कहानी एक इंटरव्यू में उन्होंने कुछ यूं बयां की थी. 1962 के आखिरी दिनों की बात है. एक दिन वे मुंबई के माहिम में समंदर के किनारे यूं ही भटक रहे थे.
देश एक तकलीफदेह युद्ध से गुजर रहा था. एक ऐसा युद्ध, जिसमें देश की हार तकरीबन तय हो चुकी थी. ऐसे में समंदर की लहरों की तरह उनके मन में भी विचारों की लहर चल रही थी. अचानक उनके मन में कुछ शब्द आए. उन्होंने वहीं टहल रहे एक आदमी से कलम मांगी और अपनी सिगरेट के डिब्बे के गोल्डन फॉइल पेपर पर वो पंक्तियां लिख लीं. वो पंक्तियां इस गीत की शुरुआती पंक्तियां थीं.
कुछ ही हफ्ते बाद उनके पास महबूब खान का फोन आया. दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में एक चैरिटी फंक्शन होना था. इस अवसर के लिए महबूब खान ने प्रदीप से एक गीत लिखने को कहा.
यह वही ऐतिहासिक गीत था, जिसकी शुरुआती पंक्तियां उन्होंने उस दिन माहिम के समुद्र तट पर लिखी थीं.
प्रदीप ने गीत लिखने के लिए इसका संगीत तैयार करने के लिए सी. रामचंद्र से संपर्क किया और लता जी से अनुरोध किया कि वे इस गीत को गाएं. हालांकि लता जी ने एक इंटरव्यू में कहा है कि शुरुआत में तो उन्होंने इसे गाने से इनकार कर दिया था क्योंकि उन्हें रियाज के लिए पर्याप्त वक्त नहीं मिला था. लेकिन प्रदीप जी के इसरार पर आखिरकार वो गाने को तैयार हो ही गईं.
उसके बाद जो हुआ वो तो इतिहास है. न सिर्फ यह गीत, बल्कि लता जी का भरे मंच से उसको गाना सबकुछ वक्त के फ्रेम में फ्रीज हो गया.
लेकिन इस पूरे प्रकरण की सबसे दुखद बात ये थी कि एक गीत, जो सदा के लिए भारतीय जनमानस के अंत:करण में, स्मृतियों में अपनी जगह बना चुका था, उस महान गीत को रचने वाले को ही उस दिन दिल्ली के उस कार्यक्रम का बुलावा नहीं मिला था. ब्यूरोक्रेसी ही इंतहा ये थी कि कवि प्रदीप को उस कार्यक्रम में आमंत्रित ही नहीं किया गया था.
Edited by Manisha Pandey