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अमेरिका में आएगी 1990 जैसी मंदी? दो अर्थशास्त्रियों से जानें भारत को कितना फायदा कितना नुकसान!

अमेरिका में मंदी आना तय है. सवाल ये है कि इसका भारत पर कितना असर होगा. क्या इससे हमें फायदा होगा या नुकसान होगा. जानिए अर्थशास्त्रियों का क्या कहना है.

अमेरिका में आएगी 1990 जैसी मंदी? दो अर्थशास्त्रियों से जानें भारत को कितना फायदा कितना नुकसान!

Thursday October 20, 2022 , 8 min Read

वैश्विक मंदी (Global Recession) के डर ने निवेशकों को चिंता में डाल दिया है. नतीजा ये हो रहा है कि आए दिन शेयर बाजार में भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहे हैं. तमाम अर्थशास्त्रियों के अनुसार अमेरिका में मंदी (Recession in US) आना तय है. इसी बीच रेटिंग एजेंसी फिच रेटिंग्स की एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसने इस डर को और भड़का दिया है. रिपोर्ट के अनुसार कहा जा रहा है कि अमेरिका में इस बार जो मंदी आने वाली है वह 1990 जैसी हो सकती है. फिच के अनुसार उसे इस बार भी 1990 की मंदी जैसा पैटर्न देखने को मिल रहा है. बता दें कि 1990 में अमेरिका की इकनॉमी में जबरदस्त मंदी देखने को मिली थी, जो करीब 8 महीनों तक चली थी. अब सवाल ये है कि अगर अमेरिका जैसा सुपर पावर देश भी मंदी की मार झेलेगा तो भारत जैसे देश का क्या होगा? क्या भारत पर भी इसका असर होगा? अगर होगा तो कितना और इससे कैसे बच सकता है भारत.

जितनी जल्दी आएगी मंदी, भारत के लिए उतना अच्छा

मंदी को लेकर YourStory ने बात की मनी9 के एडिटर और बिजनस के जाने-माने दिग्गज पत्रकार अंशुमान तिवारी से. वह कहते हैं अभी यह साफ नहीं है कि अमेरिका में जो मंदी आने वाली है वह कितनी बड़ी और गहरी होगी. देखा जाए तो फेड रिजर्व लगातार ब्याज दरें बढ़ाकर उसे बुलाने की कोशिश में है, ताकि डिमांड घटे और महंगाई नीचे आए. हाल ही में अमेरिका के जो इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन और जॉब्स के आंकड़े आए हैं, उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता कि अमेरिका में इतनी जल्दी महंगाई आने वाली है. शायद अमेरिका में महंगाई 2023 में मार्च-अप्रैल तक आ जाए.

अंशुमान तिवारी का कहा है कि अमेरिका में जितनी जल्दी मंदी आएगी भारत के लिए उतना ही अच्छा होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि जब वहां मंदी आएगी, उसके बाद ही फिर ब्याज दरें घटेंगी, जिससे भारत की मुसीबतें कम होंगी. अमेरिका में महंगाई को काबू करने के लिए फेड रिजर्व लगातार ब्याज दरें बढ़ाता जा रहा है, जिससे भारत को चौतरफा नुकसान हो रहा है. रुपया लगातार टूट रहा है, फॉरेक्स करीब 100 अरब डॉलर तक कम हो चुका है, एफआईआई पैसे निकाल रहे हैं और इंपोर्ट महंगा हो ता जा रहा है. भारत के पास फॉरेक्स जुटाने के बहुत ही कम तरीके हैं, एक्सपोर्ट उनमें से एक है. अगर मंदी आती है तो इससे ग्लोबल डिमांड टूट जाएगी, जिससे भारत के एक्सपोर्ट पर असर पड़ेगा.

मंदी में जितनी देरी होगी, भारत को उतना नुकसान

अगर अमेरिका में मंदी आती है तो कच्चे तेल की कीमतें गिरेंगी, जिससे भारत को फायदा होगा. हालांकि, ये गिरावट कितनी होगी ये पता नहीं. अंशुमान तिवारी कहते हैं कि मंदी का शोर तो मार्च से ही हो रहा है, लेकिन इस बीच भी कच्चे तेल के दाम बढ़े हैं. वहीं एक दिक्कत ये भी है कि भले ही कच्चा तेल सस्ता हो जाए, लेकिन अगर रुपया कमजोर होता रहा तो कोई फायदा नहीं होगा. वहीं ओपेक देश कच्चे तेल की कीमत को 90 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर रखना चाहते हैं, जिसके चलते वह बार-बार प्रोडक्शन घटाकर कीमतें काबू करने में लगे हैं. वहीं मुख्य कमोडिटीज जैसे कॉपर, जिंक, स्टील आदि की कीमतें बुरी तरह नहीं टूटी हैं, ऐसे में अभी मंदी के संकेत नहीं दिख रहे हैं. मंदी आने तक और महंगाई कम होने तक डॉलर जितना मजबूत होगा, भारत को उतना ही नुकसान होगा. ग्लोबल ऑर्डर नहीं मिलने से भी नुकसान होगा. भारत की ग्रोथ का जो अनुमान फरवरी में 8.5 फीसदी पर था, उसे दो बार घटाकर अब 6.5 फीसदी कर दिया गया है, ये और घटी तो 6 फीसदी तक आ सकती है. देखा जाए तो भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी मंदी में ही है. अभी हम इससे निकलने की कोशिश ही कर रहे थे कि अमेरिका की मंदी दस्तक देने लगी है.

भारत पर कितना असर होगा अमेरिका की मंदी का?

अंशुमान तिवारी कहते हैं कि मंदी का असर भारत पर पड़ता तो तय है. खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी हाल ही में माना है कि हम ग्लोबल तूफान में फंसे हैं. केपीएमजी के एक सर्वे के अनुसार 66 फीसदी सीईओ मान रहे हैं कि भारत में कॉरपोरेट इनकम 10 फीसदी तक टूटेगी. रिजर्व बैंक ने मॉनेटरी पॉलिसी कमेटी की रिपोर्ट्स के मिनट्स में भी कहा है कि भारत पर ग्लोबल मंदी का हिट आ रहा है. फेड रिजर्व ने कहा है कि 2023 के अंत तक महंगाई जारी रह सकती है और वह 9 फीसदी तक ब्याज दरों को बढ़ा सकता है. अमेरिका में महंगाई का दौर जितना लंबा खिंचेगा, भारत को उतनी ही ज्यादा दिक्कत होगी.

भारत कैसे निपट सकता है मंदी से?

भारत में पहले ही इनकम लेवल टूटे हुए हैं और डिमांड गिरी हुई है. भारत को तभी फायदा होगा अगर बहुत तेजी से दुनिया की विकास दर गिरे. महंगाई लंबी खिंचती है तो दिक्कत होगी ही. अगर बात सरकारी प्रयासों की करें तो जीडीपी में सरकार का शेयर महज 10 फीसदी है. बाकी 90 फीसदी हिस्सेदारी लोगों की मांग और प्राइवेट सेक्टर की है. अंशुमान तिवारी कहते हैं कि भारत कि अर्थव्यवस्था डिमांड ड्रिवन है यानी डिमांड से चलती है. अर्थव्यवस्था मजबूत तब होगी जब लोग बाजार में निकलेंगे और शॉपिंग करेंगे, जिससे कंपनियों को पैसा मिलेगा और वह उसे इन्वेस्ट करेंगी. सरकार अपनी 10 फीसदी की हिस्सेदारी से मंदी को रोक नहीं पाएगी. ऐसे में सरकार के सामने मंदी से निपटने के लिए सिर्फ एक और रास्ता बचता है कि वह जीएसटी और टैक्स घटा दे. हालांकि, केंद्र और राज्य सरकारों का कुल फिस्कल डेफिसिट पहले ही 10 फीसदी है, ऐसे में सरकार के लिए टैक्स घटाना भी मुमकिन नहीं. यही वजह है कि सरकार ने डिमांड टूटने के दौर में भी जीएसटी बढ़ाने का फैसला किया.

मंदी का मतलब है आर्थिक गतिविधियों में कमी आ जाना. इसका नतीजे ये होता है कि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में निगेटिव ग्रोथ रेट देखने को मिलती है.

अमेरिका में आ चुकी है मंदी, पूरी दुनिया पर दिखेगा असर

ओपी जिंदल ग्लोबल यूनीवर्सिटी में इकनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर अवनींद्र ठाकुर कहते हैं कि पूरी दुनिया इंटीग्रटेड है. ऐसे में मंदी का असर भारत पर भी पड़ेगा, क्योंकि दुनिया के एक बड़े हिस्से पर मंदी का असर है. अमेरिका से लेकर यूरोजोन और चीन तक सभी मंदी की चपेट में हैं. अमेरिका में महंगाई आ चुकी है, क्योंकि दो तिमाही में लगातार वहां की अर्थव्यवस्था संकुचित हुई है.

अवनींद्र ठाकुर कहते हैं कि भारत अभी तक 2020 की मंदी से ही उबर नहीं पाया था. एक बड़ा तबका आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहा था. जो रिकवरी थी वह भी सिर्फ दो ही वजहों से थी. एक तो ये कि सरकारें लोगों को सपोर्ट करने के लिए काफी पैसा खर्च कर रही थीं. दूसरा ये कि जो लोग ऑनलाइन से जुड़े थे, उनकी इनकम में तेजी देखने को मिली. ऐसे लोगों ने इकनॉमी खुलने पर वह सामान खरीदने शुरू किए, जो वह पिछले 2 साल से नहीं खरीद पाए थे, जैसे गाड़ी, फ्लैट आदि. देखने में तो लगा कि रिकवरी हो रही है, लेकिन लोअर क्लास और इनफॉर्मल इकनॉमी से जुड़े लोगों में रिकवरी नहीं दिख रही थी. एक छोटे सपोर्ट पैकेज से वह इस दिक्कत से उबर नहीं पाए और इसी बीच यूक्रेन-रूस का युद्ध हो गया, जिसने कच्चे तेल की कीमतें बढ़ा दीं.

कोरोना काल में इनफॉर्मल बिजनस खत्म होने की वजह से बहुत सारी सप्लाई अभी तक फिक्स नहीं हो पाई है. कीमतें बढ़ने की वजह से लोगों की रियल इनकम कम हो रही है, जिससे पर्चेजिंग पावर घट रही है. बेसिक चीजों के दाम बढ़ने की वजह से लोगों का फोर्स्ड एक्सपेंडिचर बढ़ रहा है और बाकी चीजों को खरीदने की मांग घट रही है. ऐसे में डिमांड-सप्लाई मिसमैच हो गया है. ऐसे में महंगाई कम नहीं होने की वजह से ग्रोथ का गिरना तय है. जहां भी इनफॉर्मल इकनॉमी बर्बाद हुई है, उस हर देश में दिक्कतें हो रही हैं.

अमेरिका-यूरोप ने बेस रेस तेजी से बढ़ाए हैं, ताकि महंगाई कम हो. ब्याज दरें बढ़ने से आप खर्चों को कंट्रोल करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे इन्वेस्टमेंट कम हो गया है. अवनींद्र ठाकुर कहते हैं कि जब भी महंगाई को ब्याज दर बढ़ाकर रोकने की कोशिश की गई है, मंदी को बल मिला है. इससे ग्लोबल डिमांड कम हो जाएगी, जिससे भारत का एक्सपोर्ट गिरेगा. रेपो

भारत कैसे बचेगा मंदी से?

अवनींद्र ठाकुर कहते हैं कि अगर भारत को मंदी से निपटना है तो इसके लिए सरकार को कुछ अहम कदम उठाने होंगे. सबसे पहले तो सरकार को पॉलिसी लेवल पर बदलाव करने होंगे. उनका कहना है कि भारत की इंटरनल डिमांड ही बहुत अधिक है, ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि मंदी का भारत पर कितना असर होगा. सरकार की तरफ से दी जा रही वेलफेयर स्कीमों को बंद करने पर विचार किया जा रहा है. उनका कहा है कि इन स्कीमों को अगर अभी बंद किया तो इससे स्थिति और खराब हो सकती है.

सरकार को इनफॉर्मल इकनॉमी को सपोर्ट करना होगा, क्योंकि उन्हीं से सबसे ज्यादा डिमांड जनरेट होती है. इसके अलावा रूरल इकनॉमी को सपोर्ट करने की जरूरत है. 2008 की मंदी में स्थिति से निपटने में रूरल इकनॉमी ने ही मदद की थी. उस वक्त सरकार ने रूरल इकनॉमी में मनरेगा के जरिए काफी पैसे ट्रांसफर किए थे. वहीं कंस्ट्रक्शन भी उस दौरान रूरल इलाकों में बहुत अधिक हुआ था.