भारत की सबसे पुरानी टॉय शॉप की कहानी.. इंदिरा गांधी, महारानी गायत्री देवी, पटौदी परिवार तक रहे ग्राहक
सतीश सुंदर अपने परिवार की चौथी जनरेशन हैं, जो आरसीएस टॉय शॉप को संभाल रहे हैं. इसके अलावा उनके बेटे अमित भी इस कारोबार की देखभाल कर रहे हैं.
दिल्ली की हमेशा गुलजार रहने वाली जगह कनॉट प्लेस...D ब्लॉक की ओडियन बिल्डिंग में स्थित एक टॉय शॉप...दुकान के अंदर काउंटर पर बैठे 85 साल के ‘नॉट सो ओल्ड’ सतीश सुंदर (Satish Sundra). नॉट सो ओल्ड इसलिए क्योंकि वह उम्र के लिहाज से भले ही बूढ़े हो चले हों लेकिन उनका उत्साह और एनर्जी किसी युवा से कम नहीं है. जिस टॉय शॉप की हम बात कर रहे हैं, वह कोई ऐसी वैसी टॉय शॉप नहीं है. बॉलीवुड एक्टर सैफ अली खान ने एक बार कहा था कि बचपन के दिनों में वह दिल्ली के कनॉट प्लेस की एक टॉय शॉप पर अक्सर जाया करते थे. वह दुकान है भारत की सबसे पुरानी टॉय शॉप रामचंदर एंड सन्स (RCS). कई सिलेब्रिटी, राय बहादुर, राय साहब, राजे-महाराजे, वायसराय, गांधी-नेहरू परिवार, पटौदी परिवार आदि इस दुकान के ग्राहकों में शामिल रहे हैं. यहां तक कि महारानी गायत्री देवी भी वहां आया करती थीं.
सतीश सुंदर अपने परिवार की चौथी जनरेशन हैं, जो आरसीएस टॉय शॉप को संभाल रहे हैं. इसके अलावा उनके बेटे अमित भी इस कारोबार की देखभाल कर रहे हैं. खिलौनों को छोड़कर दुकान का इंटीरियर, फर्नीचर, दरवाजे आदि सभी वैसे ही हैं, जैसे कि 1935 में थे. रामचंदर एंड सन्स टॉय शॉप को सतीश सुंदर के पिता राज सुंदर ने अपने पिता के नाम पर साल 1935 में दिल्ली में शुरू किया था. लेकिन खिलौनों का कारोबार उससे भी पहले से था.
आरसीएस टॉयज शॉप पर इंदिरा गांधी भी, राजीव और संजय गांधी के साथ आती थीं. उसके बाद राजीव और सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी को लेकर आया करते थे. संजय गांधी और मेनका गांधी भी आते थे. शॉप पर आने वाले अन्य नामी रेगुलर कस्टमर्स में गायत्री देवी, कृष्णा मेनन, मंसूर अली खान पटौदी की फैमिली आदि शामिल हैं. सतीश सुंदर बताते हैं कि अंग्रेजों के जमाने में कई बड़े अधिकारी भी आया करते थे.
राजस्थान के एक मारवाड़ी परिवार से ताल्लुक
सतीश सुंदर राजस्थान के एक मारवाड़ी परिवार से ताल्लुक रखते हैं. 1890 में उनके परिवार ने राजस्थान से उत्तर भारत में शिफ्ट किया. सतीश सुंदर के परदादा सेठ चुन्नीलाल ने अपना खिलौना व्यवसाय 1890 में अंबाला कैंटोनमेंट में शुरू किया था. सतीश YourStory Hindi को बताया कि वह ठीक-ठीक नहीं जानते कि उनके परदादा ने खिलौनों का व्यापार ही क्यों चुना. हां, यह जरूर कह सकता हूं कि उस वक़्त यह एक ऐसा व्यापार था, जिसे आसानी से, कम लागत में शुरू किया जा सकता था. उन्होंने अंबाला कैंटोनमेंट से कारोबार शुरू किया. 40 साल बाद परिवार ने कसौली में एक आउटलेट खोला. उस वक्त सतीश सुंदर महज 3 साल के थे.
सतीश बताते हैं कि अंबाला में हमारी दुकान देश की रॉयल्टी और ब्यूरोक्रेसी में पॉपुलर थी. लेकिन वहां साल में तीन महीने ही बिजनेस मिलता था, अक्टूबर से दिसंबर तक क्योंकि वह अंग्रेजों के लिए क्रिसमस पीरियड होता था. कसौली में भी कई अंग्रेज रहते थे इसलिए वहां का मार्केट भी हमारे लिए अच्छा था. तीन महीने की बिक्री में ही हम साल भर चला लेते थे. दुकान भी 6 महीने के लिए ही खोलते थे. जून और जुलाई का तो यह आलम था कि 5 रुपये का सामान बिकना भी बड़ी बात थी.
फिर चले दिल्ली...
1930 के दशक में छोटे शहरों में रहने वाले कई ट्रेडर लाहौर व दिल्ली जैसे बड़े शहरों में बिजनेस सेटअप करने की कोशिश कर रहे थे. सतीश सुंदर के पिता एक ऐसी जगह अपना कारोबार शिफ्ट करना चाहते थे, जहां वह चुनिंदा सीजन्स तक लिमिटेड न हो. ऐसे में सतीश सुंदर के पिता राज सुंदर ने दिल्ली को चुना. उस वक्त नई दिल्ली का कंस्ट्रक्शन शुरू ही हुआ था. कनॉट प्लेस नया था और काफी सस्ता था. बिल्डर्स, शॉप्स को भरने के लिए ट्रेडर्स को कैसे भी करके लुभाने की कोशिश में लगे थे. सतीश सुंदर के पिता जब दिल्ली आए तो उन्होंने राय बहादुर तीरथ राम नाम के कॉन्ट्रैक्टर से किराए पर दुकान ली. रामचंदर एंड सन्स के नाम से दुकान की शुरुआत की. उस वक्त उनके पास बहुत ज्यादा पैसे नहीं थे. तीरथ राम ने कहा कि दुकान रखो, जब दे सकते हो तब किराया दे देना. 3-4 सालों तक उनकी 5 लोगों की फैमिली उसी दुकान में रहती थी और दुकान दो हिस्सों में बंटी थी. बीच में पर्दा लगाकर दुकान को बांटा गया था. कुछ वक्त के बाद उन्होंने हनुमान रोड पर किराए पर दो कमरों का एक घर लिया.
पिता की मृत्यु के बाद संभालना पड़ा बिजनेस
1954 में जब सतीश सुंदर 17 साल के थे, इतिहास ऑनर्स के स्टूडेंट थे, उस वक्त उनके पिता की मृत्यु हो गई. प्रशासनिक सेवा में जाने का सपना रखने वाले सतीश को पिता की मृत्यु के बाद बिजनेस संभालना पड़ा. सतीश सुंदर सेंट स्टीवेंस में पढ़ाई के बाद हायर एजुकेशन के लिए विदेश में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी गए. सतीश सुंदर इस बिजनेस में आने के लिए तैयार नहीं थे. उन्हें फॉरेस्ट सर्विसेज में जाना था. वह खुद को अंग्रेज समझते थे. उन्हें इस बात का बेहद गुमान था कि उनके पिताजी के कस्टमर रॉयल हैं. लेकिन उनके पिता ने उन्हें जमीन से जुड़े रहने में अहम भूमिका निभाई. लेकिन पिता की मृत्यु के बाद उन्हें खिलौना बिजनेस संभालना पड़ा सतीश बताते हैं कि उनकी क्लास में 13 लड़के थे, उनमें से 11 IAS अफसर हैं. 1959 में कॉलेज ख़त्म करने के बाद उन्हें होश संभालने में ही 2-3 साल लग गए और उसके बाद उन्होंने बिजनेस में मन लगाना शुरू किया. उस वक्त टीन के सिपाही सबसे पॉपुलर खिलौने थे और उसके बाद ट्रेन सेट व लकड़ी के जहाज. टॉय कारें ट्रायंफ, सिल्वर क्लाउड, ऑस्टिन और वुलसे के मॉडल्स में आती थीं.
इस चीज से बालमन समझने में मिली मदद
सतीश आगे बताते हैं कि उन्होंने कुछ टीचर्स की मदद से चाइल्ड एजुकेशन के बारे में सीखा और यह खिलौनों का व्यापार चलाने में उनके काम आया. उन्होंने स्कूलों में बिक्री शुरू की. समझा की प्राइमरी और प्री-प्राइमरी के बच्चों के लिए किस तरह के खिलौने सबसे अच्छे रहेंगे. इसी क्रम में उन्होंने चाइल्ड डेवलपमेंट को लेकर कई किताबें भी पढ़ीं. स्कूलों की वजह से उन्हें बिजनेस करना आया. चाइल्ड एजुकेशन की मदद से उनकी कमाई भी अच्छी होने लगी. सतीश कहते हैं कि उन्होंने यह भी सीखा कि शारीरिक और मानसिक तौर पर दिव्यांग बच्चों के लिए अलग तरीके से काम करना पड़ेगा. उनकी ज़रूरतों को समझना पड़ेगा. इस तरह वह कुछ स्पेशल स्कूल्स से जुड़े.
खिलौनों पर बहुत रिसर्च
सतीश कहते हैं कि हम खिलौनों पर बहुत रिसर्च करते हैं. केवल खिलौनों के बारे में स्टडी करने के लिए विदेश जाते हैं, वैकेशन के लिए नहीं. मैं आपको कभी ऐसा खिलौना नहीं बेचूंगा, जिसे देखकर मुझे थोड़ा भी डाउट हो कि बच्चे के विकास के लिए यह अच्छा नहीं है. सतीश कहते हैं कि आज की तारीख में वह 63 देशों में खिलौने एक्सपोर्ट कर रहा हैं. हमारी क्वालिटी की वजह से ही हमारी अंतर्राष्ट्रीय रेपुटेशन है. सतीश कहते हैं कि विदेशी ऑर्डर हमें वेबसाइट के माध्यम से या डायरेक्ट इन्क्वायरी से आते हैं. हम चुनिन्दा कस्टमर्स से वॉट्सऐप से भी कनेक्ट करते हैं. खरीदार अगर सीरियस है तो हम तस्वीरें भी भेज देते हैं.
बिक्री ज़रूरी लेकिन रिश्ते उससे ज्यादा ज़रूरी
आरसीएस टॉयज में आने वाले हर बच्चे को ग्राहक कम और बच्चा ही ज्यादा समझा जाता है. इसलिए अगर दुकान में बच्चे से गलती से कोई खिलौना टूट जाए तो सतीश सुंदर उसका हर्जाना नहीं वसूलते हैं. उनका मानना है कि खिलौने बने ही टूटने के लिए हैं. बच्चे कोई चीज देखेंगे तो हो सकता है कि वह उनसे गिर भी जाए, इसमें बच्चों की क्या गलती.
रामचंदर एंड सन्स टॉय शॉप के कुछ नियम हैं. सतीश कहते हैं कि हमारा मानना है कि बिक्री ज़रूरी है लेकिन रिश्ते उससे ज्यादा ज़रूरी हैं. हमारे दादा-परदादा से जो हमने सीखा है, वह यह है कि आज के लिए नहीं, कल के लिए बेचिए. हो सकता है कि कभी कोई कस्टमर जो खिलौना लेने आए वह उसे न मिले, मगर आप उनसे ऐसा रिश्ता बनाएं कि वे लौटकर ज़रूर आएं. सतीश के यहां यहां पूरे देश से कस्टमर आते हैं. कुछ कस्टमर ऐसे हैं, जो जब भी दिल्ली आते हैं, आरसीएस टॉयज शॉप में ज़रूर आते हैं, फिर चाहे खिलौना लेना हो या न लेना हो.
दुकान पर कई तरह के खिलौने
आज इस दुकान पर कई तरह के खिलौने मिलते हैं. डॉल्स, ट्रेन सेट, मिनिएचर, टॉय कार, सॉफ्ट टॉयज से लेकर सोनी प्लेस्टेशंस, वीडियो गेम्स, रेडियो कंट्रोल्ड रेसिंग कार्स, फ्लाइंग एयरोप्लेन्स, टेलिस्कोप्स आदि. आरसीएस टॉयज अमेरिका के बने गुइलोज के टॉय प्लेन्स के पूरे भारत के लिए अकेले डिस्ट्रीब्यूटर हैं. सतीश के मुताबिक, हमारे स्टोर में अमेरिका और जर्मनी के कुछ ऐसे खिलौने मिलते हैं जो पूरे देश में कहीं नहीं मिलते. इसी के चलते हमारा कस्टमर बेस मज़बूत रहा. आरसीएस टॉयज शॉप में मौजूद खिलौनों की मिनिमम प्राइस रेंज 90 रुपये है और इंटेलेक्चुअल खिलौने 40 हजार रुपये तक हैं. कई ऐसे गेम्स हैं जो बच्चा अकेले नहीं खेल सकता, फैमिली के साथ ही खेलेगा.
जब पिता ने एक खिलौना मांगने पर लगाई मार
सतीश ने अपने बचपन के कुछ दिलचस्प किस्से भी YourStory Hindi के साथ साझा किए. उन्होंने बताया कि 1943 की बात है. उनकी उम्र 7 साल थी. एक दिन उन्होंने अपने पिताजी से एक खिलौना मांगा. यह सुनते ही उनके पिताजी ने सतीश की पिटाई शुरू कर दी और मारते हुए दुकान के दरवाज़े तक ले गए. सतीश बताते हैं कि उन्हें उस वक़्त बहुत बुरा लगा लेकिन बहुत अरसे बाद यह एहसास हुआ कि उनका संयुक्त परिवार था. परिवार में कुल 17 बच्चे थे. एक को अगर पिताजी खिलौना देते तो 16 को और देना पड़ता. यह नुकसान होता, जो उनके मारवाड़ी पिता को मंजूर नहीं था. उन्होंने उसी वक़्त सभी संभावनाएं ख़त्म कर दीं और सतीश को कभी कोई खिलौना खेलने को नहीं मिला.
जब कर्नल फॉक्स के यहां गए साइकिल देने और गिर पड़े..
सतीश बताते हैं कि 1946 की बात है. उनके पिताजी ने एक बार तीन साइकिलें बांध दीं और कहा कि जाओ तीनों को कर्नल फॉक्स के घर छोड़कर आओ. कर्नल फॉक्स औरंगजेब रोड पर रहते थे. पिताजी का डर इतना था कि साइकिलें लेकर सतीश निकल तो पड़े लेकिन दुकान के पास ही गिर पड़े. चोट लगी, खून आने लगा लेकिन पिताजी के डर से वह वापस नहीं लौटे. साइकिलें लेकर जैसे-तैसे कर्नल के घर पहुंचे. कर्नल फॉक्स ने उनकी हालत देखकर कहा कि यह क्या हुआ. सतीश ने पूरी कहानी बताई तो कर्नल फॉक्स ने खुश होकर उन्हें चार आने की टिप दी.
इसके बाद सतीश वापस दुकान पहुंचे और पिता ने उन्हें चोटिल देखा तो सबसे पहले डांटकर साइकिलों की सलामती के बारे में पूछा कि कोई साइकिल टूटी तो नहीं. उन्होंने कर्नल फॉक्स को फोन मिलाया और पूछा कि साइकिलें सही-सलामत मिली हैं कि नहीं, जवाब में हां आया. फिर सतीश ने पिता को डरते-डरते कर्नल के दिए हुए चार आने दिखाए. उस वक़्त उन्हें हफ्ते का एक आना पॉकेट मनी मिलती थी, जिसमें से भी वह दो पैसे बचा लिया करते थे. पिताजी के सामने 4 आने लिए वह कांप रहे थे. पिता ने हाथ में पैसे देखकर फिर डांटकर पूछा कि तूने पैसे मांगे. सतीश ने न में जवाब दिया लेकिन पिता को भरोसा नहीं हुआ. उन्होंने फिर कर्नल को फोन लगाया. जब कर्नल ने कन्फर्म कर दिया कि पैसे उन्होंने अपने मन से दिए हैं और सतीश ने मांगे नहीं हैं, तब जाकर पिताजी शांत हुए. फिर पास के हलवाई से हल्दी वाला दूध मंगवाया गया और पास के डॉक्टर माथुर के पास ले जाकर पट्टी करवाई गई.
अपने बचपन के नामी ग्राहकों के किस्से करते हैं याद
सतीश का कहना है, ‘मुझे याद है कि भरतपुर के महाराजा आया करते थे. उनकी रानी यहां ज़मीन पर बैठा करती थीं. मैं और मेरा भाई दरवाज़े पर खड़े रहते थे. जब भी रजवाड़े आते थे, खाने के पैकेट ज़रूर लाते. मिठाइयों के लालच में हम खड़े रहते. हम जैसे ही दरवाज़े खोलते, दोनों भाइयों को वे लोग पैकेट पकड़ाते.’ उन्होंने आगे बताया कि कभी-कभी हम भाई बिड़ला जी के घर सामान पहुंचाने भी गए हैं. वे कहते थे मुनीम जी तुम खिलौने देखते रहो, बच्चों को अंदर भेज दो. वहां भी हमें खाने को मिलता था.
सतीश यादों को ताजा करते हुए आगे कहते हैं, ‘यहां इंदिरा गांधी आईं, साथ में उनके बच्चे आए, फिर बच्चों के बच्चे आए. कई एक्टर-एक्ट्रेस आए.अभिनेत्री नूतन मुझे बहुत पसंद थीं. वह भी यहां आईं. वहीदा रहमान यहां आईं. परीक्षित साहनी मेरे साथ पढ़ाई करते थे. पटौदी खानदान से हमारे घर जैसे संबंध थे.’ कुछ फिल्म वाले ऐसे भी आते थे जो उधार पर दुकान से सामान ले जाना चाहते थे. मुंबई में यह कल्चर आम है, बाद में असिस्टेंट पैसे देते थे. लेकिन आरसीएस टॉयज शॉप में मना कर दिया जाता था क्योंकि मुंबई से कैसे पैसे आते उस वक़्त...
पीएम हाउस, राष्ट्रपति भवन से फोन पर ऑर्डर
सतीश याद करते हैं कि वह प्रधानमंत्री हाउस और राष्ट्रपति भवन खुद जाते थे डिलीवरी करने. पीएम की सेक्रेटरी का फोन आता था कि फलां खिलौना चाहिए. तब मैं जाता था. उस वक़्त इतनी सिक्योरिटी नहीं थी. वहां अच्छा ट्रीटमेंट मिलता था.
1947 के दंगे भी देखे...
सतीश बताते हैं, ‘ 1947 में मैं 11 साल के थे. सब अपनी आंखों से देखा. मैंने देखा किस तरह तांगे पर जाते हुए लोगों को जिंदा जला दिया गया, आस-पास की दुकानें लूट ली गईं. पाकिस्तान में हमारी दुकान थी जिसे जला दिया गया. 4 दिन दुकान में बंद रहे और खाने को नहीं मिला. 4 दिन बाद मां पास की मिठाई की दुकान से कई दिनों पुरानी बासी बर्फी लेकर आईं और वह हमने खाई.’
लॉकडाउन में खुद करने गए डिलीवरी
सतीश के मुताबिक, कोरोना लॉकडाउन को हमने हमारे व्यापार में ज्यादा बदलाव नहीं लाने दिया. चूंकि हमारे कस्टमर नोएडा से लेकर गुरुग्राम तक हैं, इसलिए वह खुद मास्क लगाकर अपनी गाड़ी में डिलीवरी के लिए निकल जाते थे. ड्राइवर की मदद से वह उस दौर में कॉन्टैक्ट फ्री डिलीवरी करने में सक्षम रहे. कोई भी कस्टमर खोने नहीं दिया. हां लेकिन यह ज़रूर हुआ कि पहले हमारे पास 9 लोग थे दुकान में, अब केवल चार हैं.
आगे इन दो शौकों को करना चाहते हैं पूरा
सतीश बताते हैं कि अब 85 की उम्र के बाद मेरे दो ही शौक हैं, जिन्हें वह पूरा करना चाहते हैं. एक तो मंदिरों का और एक स्कूलों का. मैं अगर कभी रिटायरमेंट लूं तो अपने सभी स्कूलों में जाऊंगा, बच्चों के साथ समय बिताऊंगा. बच्चे मुझे युवा महसूस कराते हैं. इसके अलावा आध्यात्म की ओर और शिफ्ट होउंगा. स्प्रिचुअल सेंटर्स में समय बिताऊंगा, भजन सुनूंगा, गीता का पाठ करूंगा.