कबीर, कालिदास और क्लाइमेट चेंज
मुलाहिज़ा फरमायें हसरत मोहनी के एक शे'र पर:
बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी,
बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी.
इस शे'र में हसरत मोहनी बारिश के ताल्लुक से अपनी नीयत पर उसके असर की बात कर रहे हैं.
ऐसा ही कुछ कबीर भी लिखते हैं:
कबीरा बादर प्रेम का, हम पर बरसा आई,
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई.
बारिश का असर हमारी नियत और आत्मा के साथ-साथ हमारी अर्थव्यवस्था और हमारी जेबों पर भी होता है. मतलब अगर मानसून अच्छा बीते तो अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाती है, किसान की स्थिति अच्छी रहती है, फाइनांस और प्राइम मिनिस्टर के चेहरे खिल जाते हैं. जिस साल पर्याप्त बारिश नहीं होती चीज़ें महँगी होती हैं या बारिश ज्यादा हो जाये तो जान-माल की क्षति होती है. हमारे देश में कुल खाद्य उत्पादन का लगभग 40 फीसदी मानसून पर ही निर्भर है. इसीलिए हर साल अप्रैल-मई में मानसून के अच्छे या खराब रहने की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है. बादलों का खेल अगर अच्छा चले तो हमारी समृद्धि का स्कोर भी अच्छा रहता है. तो इस मौसम पर न सिर्फ पूरे साल का अर्थशास्त्र निर्भर होता है, जल प्रबंधन के सारे इंतज़ाम इसी मौसम में होते हैं.
खैर, एक और शे'र देखें:
वहां वहां बरसी जहाँ जहाँ समुन्दर था,
घटायें क्या करती ऊपर का हुक्म था.
यहाँ थोड़ी राजनीति हो गयी.
वापस लौटते हैं मानसून पर, बारिश पर और मेघ पर. मेघ की बात करें और 'मेघदूतम्' की बात न करें ऐसा तो संभव ही नहीं है.
सोचिये, आज से 1600 साल पहले अपने कल्पना के आधार पर कालिदास ने एक बादल के मूवमेंट को देखकर इतने बड़े शहकार को अंजाम दिया.
कालिदास ने जब आसाढ़ के पहले दिन आकाश पर मेघ उमड़ते देखे तो उनकी कल्पना ने उनसे यक्ष और मेघ के ज़रिये उनकी विरह-व्यथा को दर्ज करते हुए ‘मेघदूतम्’ की रचना करवा डाली. 'मेघदूतम्' कालिदास की कल्पना की उड़ान का परिचायक तो है ही, साथ ही साथ उनके वैज्ञानिक समझ की भी एक झलक है.
कहानी यह है कि राजा कुबेर हिमालय की तराइ में अपने राज्य अलकापुरी से यक्ष को हर निकाल देते हैं. यक्ष मध्य भारत में रामगिरी की पहाड़ियों पर रहने लगता है. आषाढ़ के पहले दिन उसे अपनी प्रेयसी की बहुत याद आती है लेकिन अपनी प्रेयसी तक अपना सन्देश पहुँचाने के लिए यक्ष को कोई संदेशवाहक नहीं मिलता. ऐसे में यक्ष मेघ को अपना दूत बनाता है.
यक्ष मेघ को रामगिरी से अलकापुरी का रास्ता बताता है. क्योंकि यक्ष जानता है कि रामगिरी से अलकापुरी तक का सफ़र लम्बा है इसीलिए वह मेघ को उज्जैन, विदिशा, शिप्रा नदी इत्यादि जगहों पर आराम करने की सलाह देता है. मेघ से शिप्रा नदी का वर्णन करते हुए कालिदास लिखते हैं की रास्ते में मेघ को एक ऐसी नदी दिखेगी जिसका जल नीला होगा. मानसून के समय जामुन बहुत होते हैं. हो सकता है कि कालिदास के समय में शिप्रा नदी के किनारे सैकड़ों की तादाद में जामुन के पेड़ रहे हों और उनके पानी में गिरने से नदी का पानी नीला हो जाता हो.
आगे, यक्ष मेघ को उज्जैन घूमने की सलाह देता है. यक्ष मेघदूत से कहता है कि उज्जैन के महाकाल मंदिर में नृत्य कर रही नारियों पर बूंदे बरसा कर उनकी थकावट दूर करना. कितनी सुन्दर है ये सलाह!
यक्ष मेघ को अपनी गति बढाने के लिए जगह-जगह पर ऊंची उड़ान भरने की भी सलाह देता है. आज के मौसम विज्ञानिक इस बात को मानते हैं कि उत्तर भारत के मानसून के बादल दक्षिण भारत के मानसून के बादलों से अधिक ऊँचाई पर उड़तें है और बिजली कौंधने की संभावना इनमे ज्यादा रहती है.
1600 साल पहले लिखे गए ‘मेघदूतम्’ में बादलों के अलग-अलग फॉर्म्स- सलिल (watery), मारुतम (windy), धूम्र (smoky), ज्योति (electricity)- का भी वर्नण मिलता है. अंत में यक्ष यह दुआ करता है मेघ अपनी प्रेयसी बिजली से कभी अलग ना हो जैसे वह यक्षिणी से जुदा है.
मानसून और रोमांस कालिदास की देन कही जा सकती है. आषाढ़ स्मृतियों में लौटने का महीना होता है. गर्मी की छुटटीयों के बाद स्कूल का नया सेशन शुरू होता था. नयी किताबों, नए यूनिफार्म की खुशबू के साथ-साथ हमारे नये रेजोल्यूशन मानसून की यादों से अलग नहीं किये जा सकते. मानसून के दौरान खेती के सारे काम ख़त्म होते ही उसको सेलेब्रेट करने के लिए दशहरा और दिवाली का इंतज़ार शुरू हो जाता था.
आज के दौर में कालिदास का 'आषाढ़ का पहला दिन' अर्थहीन हो गया है. मानसून इतना अनप्रेडिक्टेबल हो गया है कि कुछ छत, कुछ खेत, कुछ शहर, कुछ मन सूने ही रह जाते हैं. मौसम विभाग की भविष्यवाणियां बादल की तरह अक्सर सटीक नहीं बैठती. वजह? क्लाइमेट चेंज है. वैज्ञानिकों के मुताबिक़, धरती के तापमान में बढ़ोतरी मानसून को अनप्रेडिक्टेबल बना रही है. आये दिन बाढ़ की खबरें, बदल फटने का समाचार, फसलों के बर्बाद होने की ख़बरें हमारी अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य पर असर डाल रही हैं. मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक़, कुछ इलाके बढ़ते तापमान के कारण रहने के काबिल नहीं रह जायेंगे. हाल ही में प्रकाशित हुए एक रिपोर्ट के मताबिक़, इस सदी के अंत तक पृथ्वी का तापमान 2.4 डिग्री तक बढ़ जाने का अनुमान है. अगर हमें पृथ्वी बचानी है तो किसी भी सूरत में वैश्विक तापमान को इससे ज्यादा बढ़ने से रोकना होगा.