माया, कमलेश ने आसान की महिलाओं के रोजगार की राह
जींद की कमलेश हों या नरसिंहपुर की माया, महिला सशक्तीकरण की ऐसी मिसाल बन चुकी हैं, जो सिर्फ अपने लिए नहीं जी रही हैं, उन्होंने महिलाओं के एक बड़े समूह को रोजी-रोटी से जोड़ा है। उनकी कामयाबी पर अब सरकारी तंत्र की भी नजर पड़ी है।
हमारे देश में आज जिन-जिन स्तरों पर महिला सशक्तीकरण हो रहा है, उनमें सबसे गौरतलब स्वतंत्र फ्रंट उन जागरूक-जुझारू स्त्रियों के हैं, जो स्वयं तो समर्थ बन ही चुकी हैं, उनके माध्यम से तमाम महिलाओं को रोजगार भी मिल रहे हैं। मसलन, जिंद (हरियाणा) के गांव अमरहेड़ी की कमलेश, नरसिंहपुर (म.प्र.) की महरा गांव की माया विश्वकर्मा अथवा डूंगरपुर (राजस्थान) में खुद मिट्टी के चूल्हे बनाकर नए तरह का रोजगार पैदा करने वाली महिलाएं।
अमरहेड़ी की कमलेश भारत सरकार की स्वयं सहायता समूह योजना से जुड़ने के बाद अपने क्षेत्र की महिलाओं को बिना ब्याज का कर्ज देती हैं ताकि वे कोई भी चीज खरीदकर अपना रोजगार खुद चला सकें। कमलेश अकेले अमरहेड़ी गांव की ही डेढ़ सौ महिलाओं का समूह बनाकर खेतों में कार्य करने जाती हैं। उनके साथ अहिरका, अपोल रोड, जींद शहर तक की महिलाएं भी जुड़ी हुई हैं, जो शहर से खेतों में कार्य करने पहुंचती हैं। ये महिलाएं खेतों में फूल तोड़ने, फसलों की बुवाई, कटाई, मड़ाई, सब्जियों और फूलों की तुड़ाई आदि हर तरह के कृषि कार्य खेतों में करती हैं। कमलेश की कोशिशों से उन्हें अच्छा-खासा रोजगार मिल गया है। अमेरिका की नौकरी छोड़कर माया विश्वकर्मा अपने प्रदेश में उन महिलाओं को जागरूक बना रही हैं, जो पैड से अनभिज्ञ हैं।
डूंगरपुर (राजस्थान) में डब गर समाज की महिलाएं मिट्टी के चूल्हे बनाकर बेचती हैं। उनके बनाए चूल्हों पर भी तमाम परिवार की रसोई चलती है। ये महिलाएं बच्चों की परवरिश और रोजमर्रा का काम करते हुए चूल्हे बनाने और बेचने से होने वाली आमदनी से घर चलाने में पुरुषों की मदद कर रही हैं। शहर में डब गर समाज के 50 से 60 घरों की आबादी है। पुरुष वर्ग ढोल, ताशे और नगाड़े बनाने का काम करता है। गैस और इलेक्ट्रिक चूल्हे के दौर में भी परिवार की महिलाएं यह काम घरेलू उद्योग के रूप में पिछले दो दशकों से करती आ रही हैं। वे तालाबों और खेतों की मिट्टी के साथ ही घोड़े की लीद को मिलाकर छोटे-छोटे कलात्मक चूल्हे और सिगड़ी बनाती हैं, जो ये वजन में हल्के होते हैं। ऐसे चूल्हे, जिन पर घर के आंगन में भी बैठकर आराम से भोजन पकाया जा सके। वे ऑटो से घूम घूमकर चूल्हों की बिक्री करती हैं। एक चूल्हा पचास-साठ रुपए में बिक जाता है। ग्रामीण क्षेत्र वे चूल्हे के बदले अनाज भी ले लेती हैं। बाकी दिनों में वे खेती-बाड़ी, मजदूरी करती हैं।
इसी तरह नरसिंहपुर (म.प्र.) की महरा गांव की माया विश्वकर्मा आधी आबादी के लिए नई नज़ीर बन चुकी हैं। उनका मानना है कि साल में सिर्फ एक दिन महिला सशक्तीकरण दिवस मनाकर औपचारिक होने की जरूरत नहीं है। हमारे लिए तो हर दिन जब उद्यम-रोजगार का होगा, तभी घर-गृहस्थी सुरक्षित चल सकती है। इसी नियति को मानते हुए अपनी कोशिशों से आज वह पैड वुमेन के रूप में मशहूर हो चुकी हैं।
एक छोटे से गांव और आर्थिक रूप से कमजोर परिवार से होने के बावजूद माया ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन के दम पर पहले खुद को सशक्त बनाया और अब वे खुद रोजगार पैदा करके गांव की अशिक्षित महिलाओं को रोजगार उपलब्ध करवा रही हैं। इतना ही नहीं महिलाओं को आर्थिक के साथ-साथ शारीरिक रुप से भी सशक्त बनाने का उन्होंने बीड़ा उठाया है। वह अपने क्षेत्र की पहली ऐसी लड़की हैं, जिसने एम्स दिल्ली में शोध के बाद अमेरिका जाकर कैमिकल एन्ड बायोलॉजी से इंजीनियरिंग में पीएचडी करने बाद वहीं कुछ वक्त तक बायोलॉजिस्ट की नौकरी भी की लेकिन फिर भारत लौटकर 'सुकर्मा फाउंडेशन' की स्थापना कर प्रदेश के एक दर्जन से अधिक जिलों की लगभग बीस हजार महिलाओं से मिलीं, उनकी समस्याओं को समझा।
उसके बाद नवंबर 2017 से नरसिंहपुर में रोजाना कम से कम एक हजार सेनेटरी पैड बनवा कर महिलाओं को उपलब्ध करा रही हैं। जो महिलाएँ सेनेटरी पैड खरीदने में सक्षम नहीं होती हैं, उनके लिए डोनर भी ढूंढे जाते हैं या फिर उन्हें सस्ते दामों पर उपलब्ध करा दिया जाता है।
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