नागरिकता विहीन लाखों लोग, जिनका पूरी दुनिया में नहीं है कोई अपना देश
"दुनिया में करीब 40 लाख लोगों के पास किसी देश की नागरिकता नहीं है। ऐसे नागरिकता विहीन लोग अपने मूलभूत मानवीय अधिकारों से वंचित रह रहे हैं। विश्व के कई देशों में बच्चों को मां की नागरिकता नहीं दी जा रही है। ऐसे लोग आखिर जाएं तो जाएं कहां, पूरी दुनिया में उनका अपना कोई देश नहीं।"
दुनिया भर में ऐसे तकरीबन डेढ़ करोड़ लोग हैं जिन्हें कोई भी देश अपना नागरिक मानने को तैयार नहीं है। जबकि अंतरराष्ट्रीय संगठनों के मुताबिक, दुनिया में करीब 40 लाख लोगों के पास किसी देश की नागरिकता नहीं है। ऐसे नागरिकता विहीन लोग अपने मूलभूत मानवीय अधिकारों से वंचित रह रहे हैं। विश्व के कई देशों में बच्चों को मां की नागरिकता नहीं दी जा रही है। नेपाल, ओमान, कुवैत, सऊदी अरब, सूडान आदि करीब पचीस देशों में महिलाएं अपने बच्चों को अपनी नागरिकता प्रदान नहीं कर सकती हैं। उनके स्टेटलेस बच्चे किसी भी देश के मान्यता प्राप्त नागरिक नहीं हैं।
भारत में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित दुर्गा खाटीवाड़ा और असम आंदोलन की पहली महिला शहीद बजयंती देवी के परिवार के सदस्यों को भी असम एनआरसी के पूर्ण मसौदे से बाहर कर दिया गया है। नेपाल की सिंगल मदर दीप्ति गुरुंग बताती हैं कि उनकी स्टेटलेस बेटी नेहा और निकिता नागरिकता न मिलने के कारण डॉक्टर बनने का सपना पूरा नहीं कर पा रही हैं। अपने ही देश में अपराधी भगोड़े की तरह उन्हे आजादी से जीने का हक नहीं है। ओमान की एक्टिविस्ट हबीबा अल हिनाई की बेटी को एक लंबी लड़ाई के बाद नागरिकता मिली। अब वह वकील बनने की तैयारी कर रही है।
गौरतलब है कि वर्ष 1982 में बौद्ध बहुल देश म्यांमार में पारित हुए एक नागिरकता कानून ने लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को बेघर कर दिया है। जातीय हिंसा के चलते लाखों लोग म्यांमार से पलायन कर चुके हैं। आइवरी कोस्ट में तकरीबन 6.92 लाख ऐसे लोग हैं, जिनके पास किसी भी देश की नागरिकता नहीं है। पर्यटकों के बीच लोकप्रिय थाईलैंड में करीब 4.79 लाख लोग किसी भी देश के नागरिक नहीं।
इसी तरह सोवियत संघ के विघटन के बाद से कई रूसी जनजातियां नए बाल्टिक राज्यों में नागरिकता विहीन होकर फंसी हुई हैं। आज करीब 2.25 लाख गैर नागरिक लातविया में और तकरीबन 78 हजार लोग एस्टोनिया में रह रहे हैं, जो नागरिकता की जद्दोजहद से जूझ रहे हैं। सीरिया के उत्तरपूर्वी इलाकों में हजारों कुर्द नागरिकता विहीन हैं। कुवैती खानाबदोश बिदुएन करीब पिछले साठ साल से अपनी नागिरकता को तरस रहे हैं। इराक में नागरिकता विहीन करीब 47 हजार बिदून, फलस्तीनी रिफ्यूजी, कुर्द और अन्य जातीय समूहों, नब्बे के दशक में अपने देश भूटान से बाहर कर दिए गए आज के हजारो नेपाली लोग, भारत से यूरोप गई बंजारा जनजाति रोमा और वेनेजुएलाई के 25 हजार बच्चों की राष्ट्रीयता की पहचना संकट में है।
जहां तक हमारे देश की बात है, भारत का संविधान पूरे भारत वर्ष के लिए एकल नागरिकता की व्यवस्था करता है। 26 जनवरी 1950 के बाद परन्तु 1 जुलाई 1987 से पहले भारत में जन्मा कोई भी व्यक्ति जन्म के द्वारा भारत का नागरिक है। 1 जुलाई 1987 को या इसके बाद भारत में जन्मा कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक है, यदि उसके जन्म के समय उसका कोई एक अभिभावक भारत का नागरिक था।
हाल ही में एनआरसी की प्रक्रिया से भारत में भी 40 लाख से ज़्यादा लोग नागरिकता के अधिकार से वंचित कर दिए गए हैं। इसी तरह आजादी के लगभग सत्तर साल बाद भी हमारे देश में कम से कम साढ़े चार लाख परिवार बेघर हैं। यद्यपि वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, अतीत के एक दशक में ऐसे परिवारों की संख्या आठ प्रतिशत घटी है। उन बेघर लोगों में ऐसे लोग हैं, जो खुले में, सड़क के किनारे, फुटपाथ, फ्लाईओवर या फिर सीढियों के नीचे रहने-सोने को बाध्य हैं अथवा पूजास्थलों, रेलवे प्लेटफार्म अथवा मंडप आदि में दिन काट रहे हैं।
इस समय भारत से एक सवाल तिब्बती नागरिकता का भी जुड़ा हुआ है। गौरतलब है कि बीते छह दशक से तिब्बत की आज़ादी के लिए लड़ रहे निर्वासित तिब्बती भारत में रहकर भारतीय नागरिकता हासिल करने के लिए संघर्षरत हैं। कर्नाटक हाइकोर्ट के एक फ़ैसले के बाद भारत के निर्वाचन आयोग ने 2014 में सभी राज्यों को निर्देश जारी किए थे कि उन तिब्बतियों को मतदाता सूची में शामिल किया जाए, जो 26 जनवरी 1950 और एक जुलाई 1987 के बीच भारत में पैदा हुए हैं।
यह भी कहा गया कि सिटिज़नशिप एक्ट 1955 के सेक्शन (3) (1) (ए) के तहत ऐसा प्रावधान है। यह आदेश जारी होते ही तमाम तिब्बतियों ने मतदाता सूची में पंजीकरण करवा लिया और उन्होंने लोकसभा चुनाव में मतदान भी किया। निर्वासित तिब्बत सरकार के केंद्र हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में वे नगर निगम चुनाव में भी अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर चुके हैं। यद्यपि स्थायी नागरिकता के सवाल ने उनका भी अब तक पीछा नहीं छोड़ा है।