भारतीय मूल के अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी एस्थर डुफलो को नोबेल पुरस्कार
अमर्त्य सेन के बाद अर्थशास्त्र में दूसरे भारतीय अभिजीत विनायक बनर्जी और उनकी धर्मपत्नी फ्रांस की एस्थर डुफ्लो (Esther Duflo) को वर्ष 2019 का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई है। जेएनयू के छात्र रहे अभिजीत इस समय फोर्ड फाउंडेशन में प्रोफेसर हैं। उनकी मां निर्मला कहती हैं, अभिजीत पर पूरे देश को गर्व है।
अमर्त्य सेन के बाद अर्थशास्त्र में दूसरे भारतीय अभिजीत विनायक बनर्जी और उनकी दूसरी धर्मपत्नी फ्रांस की एस्थर को वर्ष 2019 का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया जाएगा। उन्हें यह पुरस्कार 'वैश्विक स्तर पर गरीबी उन्मूलन के लिए किये गये कार्यों के लिये दिया जा रहा है। नोबेल समिति के एक बयान के मुताबिक, 'इस वर्ष के पुरस्कार विजेताओं का शोध वैश्विक स्तर पर गरीबी से लड़ने में हमारी क्षमता को बेहतर बनाता है। मात्र दो दशक में उनके नये प्रयोगधर्मी दृष्टिकोण ने विकास अर्थशास्त्र को पूरी तरह बदल दिया है। विकास अर्थशास्त्र वर्तमान में शोध का एक प्रमुख क्षेत्र है।'
वर्तमान में बनर्जी मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में अर्थशास्त्र के फोर्ड फाउंडेशन अंतरराष्ट्रीय प्रोफेसर हैं। बनर्जी ने वर्ष 2003 में डुफ्लो और सेंडिल मुल्लाइनाथन के साथ मिलकर अब्दुल लतीफ जमील पावर्टी एक्शन लैब (जे-पाल) की स्थापना की थी। वह प्रयोगशाला के निदेशकों में से एक हैं। बनर्जी संयुक्तराष्ट्र महासचिव की '2015 के बाद के विकासत्मक एजेंडा पर विद्वान व्यक्तियों की उच्च स्तरीय समिति' के सदस्य भी रह चुके हैं।
अभिजीत की नोबेल विजेता पत्नी एस्थर डुफ्लो से पहले उनकी शादी अरुंधति तुली बनर्जी से हुई थी। तुली भी एमआईटी में साहित्य की लेक्चरर हैं। अभिजीत और अरुंधती, कोलकाता में एक साथ पढ़ा करते थे और साथ ही एमआईटी पहुंचे। दोनों का एक बेटा भी है। बाद में दोनों अलग हो गए। फिर अभिजीत के जीवन में एमआईटी की प्रोफेसर एस्थर डुफ्लो आईं। इन दोनों का भी एक बेटा है। ये लोग शादी से पहले ही लिव-इन में रहने लगे थे। बेटे के जन्म के तीन साल बाद 2015 में दोनों ने शादी रचा ली थी।
उल्लेखनीय है कि अभिजीत विनायक बनर्जी के ही एक अध्ययन पर भारत में विकलांग बच्चों की स्कूली शिक्षा की व्यवस्था को बेहतर बनाया गया, जिसमें क़रीब 50 लाख बच्चों को फ़ायदा पहुंचा है। एस्थर डुफ्लो अर्थशास्त्र में नोबेल जीतने वाली सबसे कम उम्र की महिला हैं। एस्थर ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि महिलाएं भी कामयाब हो सकती हैं, ये देखकर कई महिलाओं को प्रेरणा मिलेगी और कई पुरुष औरतों को उनका सम्मान दे पाएंगे।
कोलकाता यूनिवर्सिटी से 1981 में बीएससी करने के बाद अभिजीत विनायक बनर्जी ने 1983 में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी से एमए की पढ़ाई पूरी की। वर्ष 1988 में उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी पूरी की। अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार दिए जाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें बधाई देते हुए लिखा है कि अभिजीत विनायक बनर्जी ने ग़रीबी उन्मूलन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है। बताते हैं कि अभिजीत विनायक बनर्जी ने ही राहुल गांधी की न्याय योजना की रुपरेखा तैयार की थी। इसकी पुष्टि खुद राहुल गांधी ने करते हुए ट्वीट किया है- अभिजीत ने न्याय योजना को तैयार किया था, जिसमें ग़रीबी को नष्ट करने और भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की क्षमता है।
अभिजीत विनायक बनर्जी के जेएनयू कनेक्शन को लेकर भी सोशल मीडिया पर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है। रामचंद्र गुहा ने ट्वीट किया है कि अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो को नोबेल मिलने की ख़बर से खुश हूं। वे इसके योग्य हैं। अभिजीत बहुत बदनाम किए जा रहे यूनिवर्सिटी के गर्व भरे ग्रेजुएट हैं। उनका काम कई युवा भारतीय विद्वानों को प्रभावित करेगा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी अभिजीत विनायक बनर्जी को बधाई दी है।
अभिजीत विनायक बनर्जी का जन्म मुंबई में हुआ था और उनकी पढ़ाई लिखाई पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर में हुई, जबकि उच्च शिक्षा के लिए वे नई दिल्ली में रहे। उनके माता-पिता निर्मला और दीपक बनर्जी, इस देश के जाने माने अर्थशास्त्री रहे हैं। उनकी मां निर्मला मुंबई की थीं, जबकि पिता कोलकाता के। अभिजीत ने कोलकाता के साउथ प्वाइंट स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज से बैचलर डिग्री हासिल की। इसके बाद वे जेएनयू चले आए, अर्थशास्त्र से एमए करने। 1981 से 1983 तक वे यहां पढ़ते रहे।
अभिजीत बनर्जी को कई बार इस सवाल का सामना करना पड़ा कि उन्होंने आख़िर पढ़ाई के लिए जेएनयू में आने का चुनाव क्यों किया। ये भी कहा जाता था कि शायद उन्हें दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनामिक्स में दाखिला नहीं मिला था लेकिन इस बारे में अभिजीत बनर्जी ने ख़ुद ही लिखा है-
'सच्चाई ये है कि मैं डी-स्कूल (दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनामिक्स) गया था और मेरे पिता भी शायद यही चाहते थे कि मैं वहां जाऊं लेकिन जब मैंने इन दोनों जगहों (जेएनयू और दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स) को देखा था, मैंने अपना मन बना लिया था। जेएनयू की बात ही अलग थी।'
जेएनयू के बारे में अभिजीत लिखते हैं,
'ये सच है कि मेरे अभी जो जिगरी दोस्त हैं, वे सब डी-स्कूल गए थे। हालांकि मैंने जेएनयू में भी कई दोस्त बनाए। अरुण रमन, जानकी नायर, मनोज पांडेय, प्रगति महापात्रा, संजय शर्मा, शंकर रघुरामन, श्रीकुमार जी, और वेणु राजामोनी और न जाने कितने और क़रीबी दोस्त बने लेकिन सबसे ख़ास बात रहे जेएनयू के शिक्षक, जिनसे मुझे मिलने का मौक़ा मिला। जेएनयू में पहले ही दिन मुझे प्रोफ़ेसर मुखर्जी और प्रोफ़ेसर सेनगुप्ता से बात करने का मौक़ा मिला, जो मुझे आज भी याद है। पहले ही दिन मुझे प्रोफ़ेसर जैन को भी एक नज़र देखने का मौक़ा मिला। सबसे ज़्यादा मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने अर्थशास्त्र के बारे में बात की और ये भी बताया कि किसी भी मामले में अलग-अलग नज़रिया रखना कितना महत्वपूर्ण है। डी-स्कूल में मुझे सिर्फ़ ये सुनने को मिलता था कि उच्च शिक्षा के लिए कौन अमरीका चला गया या जाने वाला है या फिर कौन आईआईएम जा रहा है लेकिन मैं जानता था कि मुझे कहां जाना है।'
फ़रवरी, 2016 में जब जेएनयू को लेकर हंगामा शुरू हुआ था तो अभिजीत बनर्जी ने हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख लिखा था-
'वी नीड थिंकिंग स्पेसेज़ लाइक जेएनयू एंड द गर्वनमेंट मस्ट स्टे आउट ऑफ़ इट' यानि हमें जेएनयू जैसे सोचने-विचारने वाली जगह की ज़रूरत है और सरकार को निश्चित तौर पर वहां से दूर रहना चाहिए। उस लेख में उन्होंने ये भी बताया था कि 'उन्हें किस तरह से 1983 में अपने दोस्तों के साथ तिहाड़ जेल में रहना पड़ा था, तब जेएनयू के वाइस चांसलर को इन छात्रों से अपनी जान को ख़तरा हुआ था। ये 1983 की गर्मियों की बात है। हम जेएनयू के छात्रों ने वाइस चांसलर का घेराव किया था। वे उस वक्त हमारे स्टुडेंट यूनियन के अध्यक्ष को कैंपस से निष्कासित करना चाहते थे। घेराव प्रदर्शन के दौरान देश में कांग्रेस की सरकार थी। पुलिस आकर सैकड़ों छात्रों को उठाकर ले गई। हमें दस दिन तक तिहाड़ जेल में रहना पड़ा था, पिटाई भी हुई थी लेकिन तब राजद्रोह जैसा मुकदमा नहीं होता था। हत्या की कोशिश के आरोप लगे थे।'
वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर एम. लिखते हैं कि कोलकाता के आभिजात्य साउथ प्वॉयंट स्कूल में पढ़ाई के दौरान अभिजीत अपने घर के पास बनी बस्ती के बच्चों के साथ खेलते थे। ग़रीबी की वजह से वह बच्चे स्कूल नहीं जा पाते थे. ये देख कर अभिजीत के दिल में टीस उठती थी और वह अपने माता-पिता के साथ इस बात पर अक्सर चर्चा करते थे। स्कूल नहीं जाने की वजह से बस्ती के तमाम बच्चे पूरे दिन खेलते रहते थे और किसी भी खेल में अभिजीत को पलक झपकते हरा देते थे। उन बच्चों के रवैये ने अभिजीत के बाल मन में कई सवालों को जन्म दिया था।
शायद उन सवालों के जवाब तलाशने की बेचैनी ने ही अभिजीत को नोबेल तक पहुंचाया है। कोलकाता में रह रहीं अभिजीत की मां प्रो.निर्मला बनर्जी कहती हैं कि उन्होंने अभिजीत को नोबेल मिलने की उम्मीद नहीं की थी। दोपहर दो-ढाई बजे छोटे बेटे ने फोन पर कहा कि मां टीवी ऑन करो। उसके बाद ही उन्हे इसका पता चला। अभिजीत सिर्फ़ मेरा ही नहीं, पूरे देश का बेटा है। उस पर पूरे देश को गर्व है।