क्या भारत का राष्ट्रपति किसी बिजनेसमैन को होना चाहिये?
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (Ram Nath Kovind) का कार्यकाल 24 जुलाई को समाप्त हो रहा है. राष्ट्रपति चुनाव (presidential election) के लिए मतदान 18 जुलाई को होने की घोषणा की गयी है और उसके नतीजे 21 जुलाई तक आयेंगे.
अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने शीर्ष संवैधानिक पद के लिए अपने उमीदवार के नाम की घोषणा नहीं की है. लेकिन इस ऐलान के साथ ही लोगों में इस पद के योग्य उमीदवार को लेकर चर्चा शुरू हो गयी है. इन चर्चाओं में, खासकर सोशल मीडिया पर उमीदवार के रूप में नेताओं और जानी-मानी हस्तियों के नाम सुझाए जा रहे हैं. केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान, फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन, झारखण्ड की पहली महिला राज्यपाल रह चुकीं द्रौपदी मुर्मू, छत्तीसगढ़ की वर्तमान राज्यपाल अनुसूया उइके, उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू का नाम ट्रेंड कर रहा है. इनके अलावा एक और नाम ट्रेंड कर रहा है - रतन टाटा. यह पहली बार नहीं है जब राष्ट्रपति के पद के लिए किसी बिजनेसमैन का नाम सुझाया जा रहा है. 2007 में ए पी जे अब्दुल कलाम की प्रेसिडेंटशीप खत्म होने के बाद अगले दावेदार के रूप में इंफ़ोसिस के फ़ाउंडर और आई. टी. आइकॉन नारायण मूर्ति का नाम भी काफी सुर्ख़ियों में रहा था.
देश के शीर्ष संवैधानिक पद के लिए किसी बिजनेसमैन का नाम प्रस्तावित होने का एक कारण यह है कि लोगों में पारंपरिक तरीके से होने वाली राजनीति और राजनेताओं के प्रति असंतोष है. इसी कारण ग़ैर-राजनैतिक पृष्ठभूमि से आने वाले उमीदवारों के प्रति आकर्षण और विश्वास दिखाई देता है. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प का पहला चुनाव अभियान उनकी इसी छवि पर निर्मित किया गया था.
अमेरिका में रहा है लम्बा इतिहास
दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक अमेरिका में बिजनेसमैन का राजनीति में आने का पुराना इतिहास रहा है. एंड्रू जॉनसन (1865-69) अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से पहले रियल-एस्टेट मालिक थे. हर्बर्ट हूवर (1929-33) ज़िंक माइनिंग के बिजनेस में थे. राष्ट्रपति बनने से पहले हैरी ट्रूमैन (1945-53) का कपड़ों का बिजनेस था. द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के नागासाकी और हिरोशिमा पर बम गिराने का निर्णय ट्रूमैन के कार्यकाल में ही लिया गया था. डोनाल्ड ट्रम्प प्रेसिडेंट बनने से पहले एक सफल आंत्रप्रेन्योर थे. वे अपनी होटल और कैसिनो चेन्स के लिए जाने जाते हैं, ट्रम्प टॉवर तो अमेरिका की सबसे प्रसिद्ध इमारतों में शुमार हो गया है. अपने रिएलिटी टीवी शो से “यू आर फायर्ड” के लिये मशहूर ट्रम्प की कैबिनेट में अहम ओहदों पर बिलेनियर बिजनेसमैन थे.
सरकारी पदों पर बिजनेसमैन को देखना अमेरिका में हमेशा एक डिबेट रहा है. लोगों में यह सवाल रहा है कि क्या सरकार कंपनी की तरह चलायी जा सकती है? क्या ब्रांड-मैनेजमेंट और देश-मैनेजमेंट के लिये एक-जैसी स्किल और मानसिकता चाहिये होती है? क्या सरकार चलाने का प्रमुख उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना हो सकता है? लेकिन अमेरिका पूंजीवाद का सिरमौर है और वहां अध्यक्षीय प्रणाली में राष्ट्रपति को चुनने में जनता के लोकप्रिय मत की सीधी भूमिका होती है, भारत की तरह अप्रत्यक्ष प्रणाली से नहीं चुना जाता राष्ट्रपति. वहाँ किसी उम्मीदवार का बिजनेसमैन/वुमैन होना एक सामान्य बात है. दोनों प्रमुख दलों के पिछले ही चुनाव के राष्ट्रपति पद के दावेदारों पर नज़र डालें तो उनमें कई बड़े पूँजीपति हैं.
यूरोप और एशिया में भी बिजनेसमैन रह चुके हैं राष्ट्र प्रमुख
इटली में 2008-2011 में सिल्विओ बर्ल्युसोनी वहां के प्राइम मिनिस्टर थे. प्राइम मिनिस्टर बनने के पहले बर्ल्युसोनी एक मीडिया टायकून थे और उन्होंने तीन गवर्नमेंट में (1994, 2001-2006, 2008-2011) बतौर प्राइम मिनिस्टर सर्व किया था. थाईलैंड की पहली महिला प्राइम मिनिस्टर यिन्ग्लुक शिनावात्रा (2011-2014) भी इस कार्यभाल को संभालने से पहले एक बिजनेसवूमन रह चुकीं थी. वहीँ यूक्रेन के पांचवे प्रेसिडेंट पेट्रो पोरोशेनको (2014-2019) इस पद को ग्रहण करने से पहले एक इन्वेस्टमेंट कंपनी के डायरेक्टर-जनरल थे.
कम्पनी राज और हमारा इतिहास
द ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी क्वीन एलिज़ाबेथ 1 के कार्यकाल में एक लीगल बॉडी बनी जिसे ईस्ट इंडिया इंडीज, इंडियन ओशियन के देशों में, कारोबार करने की इजाज़त थी. कभी स्पेन और पुर्तगाल का वर्चस्व रही स्पाइस (मसालों) का कारोबार पर धीरे धीरे ईस्ट इंडिया ने कब्ज़ा किया और भारत से मसालों के साथ-साथ कॉटन, सिल्क, इंडिगो, चाय और ग़ुलामों का ट्रेड करना शुरू किया. पलासी और बक्सर के युद्ध में भारतीयों को हराने के बाद कंपनी को ‘दिवानी’ हासिल हुई और उन्होंने इंडिया की गवर्नेंस में अपना दखल बढ़ाना शुरू किया. जिसके खिलाफ हुए 1857 के विद्रोह के बाद द गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1858 के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टर के हाथ से कण्ट्रोल ब्रिटिश राज के हाथ में दिया गया जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद भारत की नीवं बनी. ब्रिटिश राज से भारत को आज़ादी मिलने तक का इतिहास रक्तरंजित रहा है.
क्या है पक्ष-विपक्ष में तर्क?
बिजनेस पर्सन के राजनीति में आने की मांग करने वाले लोगों की एक बड़ी वजह उनका यकीन होता है कि कॉर्पोरेट दुनिया से आए लोग प्रोफेशनल होते हैं और सोल्यूशन-ड्रिवेन होते हैं. सरकार और सरकारी कार्यों के प्रति बेरुखी का एक कारण सरकारी कामों में देरी और भ्रष्टाचार भी माना जाता है. भारत के सन्दर्भ में परिवार-वाद एक बहस का मुद्दा हमेशा रहा है.
कॉर्पोरेट और पॉलिटिक्स को अलग-अलग रखने के पक्षधर लोग इसे प्राइवेटऔर पब्लिक के नज़रिए से देखते हुए मानते हैं कि किसी भी देश की बागडोर उनके हाथों में नहीं सौंपी जा सकती है जो संस्थानों या रिसोर्सेज को कुशलतापूर्वक चलाने के लिए निजीकरण का रास्ता अपना सकते हैं. कॉर्पोरेट कल्चर के “माइ वे या हाई वे” से सरकार नहीं चलाई जा सकती है. बिजनेस वर्ल्ड के लोगों को डोमेस्टिक और फॉरेन पॉलिसीस का इल्म नहीं होता है. बिजनेस का मुख्य उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है और जॉन लॉक के शब्दों में सरकार का मुख्य उद्देश्य “द गुड ऑफ़ मैनकाइंड” होता है.