डालडा...जिसने वर्षों तक भारत की रसोइयों में किया राज, यूं मिला था अटपटा नाम
भारत की अधिकांश रसोइयों में डालडा ने टिन के डिब्बे से लेकर प्लास्टिक के डिब्बे और फिर पैकेट्स तक का सफर तय किया.
वीकएंड का कुछ स्पेशल खानापीना हो या फिर त्योहारों की डिश बनाना हो..एक वक्त था, जब इन सबके लिए डालडा (Dalda) का इस्तेमाल होता ही होता था. भारत की अधिकांश रसोइयों में डालडा ने टिन के डिब्बे से लेकर प्लास्टिक के डिब्बे और फिर पैकेट्स तक का सफर तय किया. डालडा ने कुछ इस कदर घरों में अपनी पैठ बनाई कि यह वर्षों तक रसोइयों में राज करता रहा.
आज डालडा ब्रांड के तहत डालडा वनस्पति, कॉटन सीड ऑयल, सरसों का तेल, सोयाबीन तेल, सनफ्लॉवर ऑयल, राइस ब्रायन ऑयल, ग्राउंडनट ऑयल उत्पाद बिकते हैं. डालडा का सफर तो दिलचस्प है ही, साथ ही दिलचस्प है इसके नाम की कहानी...कैसे पड़ा यह अटपटा नाम डालडा, क्या है इसका मतलब..आइए जानते हैं कैसे हुई थी 85 साल पुराने डालडा ब्रांड की शुरुआत...
ब्रिटिश काल से हुई शुरुआत
डालडा की शुरुआत की नींव अंग्रेजों के टाइम (British Era) से हुई थी. उन औपनिवेशिक दिनों के ब्रिटिश भारत में, देसी घी को एक महंगा उत्पाद माना जाता था. आम जनता के लिए इसे खरीदना आसान नहीं था. इसलिए वनस्पति घी की जरूरत महसूस की गई, जो देसी घी का विकल्प हो और उससे सस्ता हो. कासिम दादा (Kassim Dada) नाम के व्यक्ति 1930 के दशक से पहले एक डच कंपनी से देसी घी या क्लैरिफाइड मक्खन के सस्ते विकल्प के रूप में वनस्पति घी का भारत में आयात करते थे.
1930 के दशक की शुरुआत तक भारत में मौजूद हाइड्रोजनेटेड वनस्पति घी, कासिम दादा और हिंदुस्तान वनस्पति मैन्युफैक्चरिंग कंपनी (Hindustan Vanaspati Manufacturing Co.) द्वारा देश में आयात किया जाता था. हिंदुस्तान वनस्पति को अब हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड (HUL) और यूनिलीवर पाकिस्तान कहा जाता है. कासिम दादा अपना आयातित उत्पाद 'दादा वनस्पति' के नाम से बेचते थे. यूनिलीवर के लीवर ब्रदर्स जानते थे कि देसी घी महंगा होने के चलते इसके विकल्प के लिए एक मुनाफेवाला बाजार मौजूद है. इसलिए हिंदुस्तान वनस्पति ने स्थानीय स्तर पर हाइड्रोजनेटेड वनस्पति तेल का निर्माण शुरू करने का फैसला किया.
डालडा ऐसे आया अस्तित्व में
घरेलू वनस्पति घी बाजार में पैठ बनाने के अवसर को भांपकर लीवर ब्रदर्स ने अपने हाइड्रोजनेटेड वनस्पति घी के लिए कासिम दादा का सहयोग मांगा और भारत में 'दादा' बनाने के अधिकार खरीद लिए. लेकिन लेकिन बिक्री के लिए शर्त थी कि दादा नाम बरकरार रहे. लेकिन अगर यह नाम बरकरार रखा जाता तो यूनिलीवर कहां झलकती. तो इसका हल यह निकला कि नाम के बीच में 'L' डाला जाए और इसे दादा की बजाया डालडा नाम दिया जाए. कासिम दादा मान गए और इस तरह डालडा नाम अस्तित्व में आया.
1937 में लॉन्च
डालडा को 1937 में पेश किया गया और यह भारत और पाकिस्तान में सबसे लंबे समय तक चलने वाले ब्रांड्स में से एक बन गया. शुरुआत में डालडा की डगर आसान नहीं थी. भारतीयों को यकीन नहीं था कि घी का भी कोई विकल्प हो सकता है. घी, आमतौर पर खाना पकाते वक्त या फिर तैयार खाने पर छिड़कने पर भी अपना स्वाद और सुगंध देता है. ऐसे में डालडा के लिए चुनौती थी कि इसका स्वाद देसी घी की तरह हो, डीप फ्राइंग प्रॉपर्टीज हों लेकिन घी की तरह यह जेब पर भारी न हो.
एग्रेसिव मार्केटिंग ने बनाई बात
इसके बाद कहानी में लीवर की विज्ञापन एजेंसी Lintas की एंट्री हुई. Lintas में डालडा अकाउंट को संभालने वाले हार्वे डंकन ने 1939 में भारत का पहला मल्टी-मीडिया विज्ञापन अभियान कैंपेन क्रिएट किया. इसके अंतर्गत सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने के लिए एक लघु फिल्म को तैयार किया गया था, सड़कों पर घूमने के लिए टिन के आकार की एक गोल वैन थी, पढ़े-लिखे लोगों के लिए प्रिंट विज्ञापन था, और विज्ञापन ब्लिट्जक्रेग के हिस्से के रूप में सैंपल व डिटेल्ड लीफलेट्स वितरण के लिए स्टॉल थे.
व्यापक प्रचार अभियान और अपने पीले रंग पर हरे ताड़ के पेड़ के लोगो वाले टिन के डिब्बों की मदद से डालडा ने पैर जमाने शुरू किए. लीवर ने इन विशिष्ट टिनों को अपने वितरण नेटवर्क के माध्यम से देश भर में पहुंचाया. अलग-अलग उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर अलग-अलग आकार के पैक थे. उदाहरण के लिए होटल और रेस्तरां जैसे उपभोक्ताओं के लिए के लिए एक बड़ा स्क्वैयर आकार का टिन और घर में खपत के लिए छोटे गोल टिन लाए गए.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, अपने अस्तित्व के पहले 25-30 वर्षों में डालडा की स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय खाद्य तेल निर्माताओं से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी. 1980 के दशक तक डालडा का बाजार पर एकाधिकार था. हिंदुस्तान वनस्पति का 'डालडा' इतना फेमस हुआ कि हाइड्रोजनेटेड वनस्पति तेल की मुख्य शैली को आमतौर पर 'वनस्पति घी' के रूप में जाना जाने लगा.
विवादों से नाता
डालडा ब्रांड की राह आसान नहीं रही, इसकी जर्नी में विवाद भी शामिल रहे. 1950 के दशक में डालडा पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया गया था. आलोचकों का कहना था कि डालडा, देसी घी का मिलावटी रूप है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक राष्ट्रव्यापी जनमत सर्वेक्षण किया, जो अनिर्णायक रहा. सरकार ने घी में मिलावट रोकने के उपाय सुझाने के लिए एक कमेटी का गठन किया था. लेकिन उससे भी कुछ निष्कर्ष नहीं निकल सका.
इसके सालों बाद डालडा एक बार फिर विवादों में घिरा. 1990 के दशक में यह विवाद उपजा कि डालडा में जानवरों की चर्बी होती है. तब तक डालडा को "क्लियर ऑयल्स" या रिफाइंड वनस्पति तेलों जैसे मूंगफली (पोस्टमैन), सरसों, कुसुम (सफोला), सूरजमुखी (सनड्रॉप) और पाम ऑयल (पामोलिन) आदि से प्रतिस्पर्धा मिलने लगी थी. इन्हें वनस्पति घी का एक स्वस्थ विकल्प माना जाता था. लिहाजा विवाद और प्रतिस्पर्धा के चलते डालडा की लोकप्रियता में गिरावट आने लगी.
फिर Bunge Limited को बेचा गया ब्रांड
विवाद और बढ़ती प्रतिस्पर्धा के चलते डालडा भारतीय रसोई पर अपनी पकड़ खो रहा था. डालडा की चमक ऐसी फीकी पड़ी कि साल 2003 में Bunge Limited ने कथित तौर पर 100 करोड़ रुपये से कम में हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड से डालडा ब्रांड का अधिग्रहण किया. 30 मार्च 2004 को यूनिलीवर पाकिस्तान ने 1.33 अरब रुपये में नई निगमित कंपनी डालडा फूड्स (प्राइवेट) लिमिटेड को अपने डालडा ब्रांड और खाद्य तेलों व फैट्स के संबंधित व्यवसाय की बिक्री कर दी. यह पाकिस्तान में एक तरह का कॉर्पोरेट लेनदेन था, जिसमें 6 वरिष्ठ यूनिलीवर अधिकारियों के एक समूह ने एक प्रबंधन समूह का गठन किया और सफलतापूर्वक यूनिलीवर पाकिस्तान से डालडा व्यवसाय खरीदा.
Bunge की फिर से अर्श पर पहुंचाने की कोशिश
Bunge के लिए डालडा का अधिग्रहण खाद्य तेल बाजार में बड़ी छलांग थी. कंपनी ने डालडा ब्रांड को दोबारा खड़ा करने के लिए पहली बार 2007 में डालडा के तहत 'Husband's Choice' टैगलाइन से एक खाद्य तेल रेंज लॉन्च की. लेकिन कंपनी को जल्द ही एहसास हुआ कि यह बाजार में पहुंच नहीं बना पा रहा है. इसके बाद 2013 में Bunge ने 'डब्बा खाली, पेट फुल' टैगलाइन के तहत रेंज को फिर से लॉन्च किया. साथ ही ब्रांड की इस नई पोजिशनिंग को बढ़ावा देने के लिए कैंपेन्स के अलावा व्यापक अन्य गतिविधियों का भी सहारा लिया.