जब 12 साल की उम्र में सुधा मूर्ति बन गईं अपनी 80 साल की दादी की गुरु
अचानक दादी ने आगे झुककर नन्ही सुधा के पैर छू लिए और कहा, “मैं अपने गुरु के पैर छू रही हूं. हमारे यहां गुरु का सम्मान करने, उनके पैर छूने की परंपरा है.”
ये कहानी है 12 बरस की नन्ही सुधा की. तब वो सुधा मूर्ति नहीं हुई थीं. 1962 के आसपास की बात है. उत्तरी कर्नाटक के हावेरी जिले में एक छोटा सा कस्बा था शिगांव. सातवीं क्लास में पढ़ने वाली छोटी सुधा वहां अपने दादा-दादी के साथ रहती थीं. स्कूल से लौटकर सुधा दिन-भर की कहानियां दादी को सुनातीं. दादी वहीं बरामदे में बैठी पोती के स्कूल से लौटने की इंतजार करती. दोनों की गहरी दोस्ती थी.
वैसे इस दोस्ती की एक वजह और थी. सुधा दादी को किताबों और पत्र-पत्रिकाओं से कहानियां पढ़कर सुनाया करती थी. दादी ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था. किताबों में लिखे काले अक्षर उनके लिए विचित्र आकृतियों के अलावा कुछ नहीं थे. उन्हें आश्चर्य होता कि इन गोल-गोल काले अक्षरों में ये कहानी छिपी है, जो तू पढ़कर सुना रही है.
उन दिनों यातायात के उतने साधन नहीं थे. सो कस्बे में अखबार और पत्र-पत्रिकाएं भी बहुत देर से पहुंचती थीं. सुबह के अखबार को भी शिगांव तक पहुंचते-पहुंचते दिन चढ़ जाता था. दोपहर हो जाती. साप्ताहिक पत्रिका भी एक दिन देर से पहुंचती थी. शिगांव के लोग बड़ी बेसब्री से उस बस का इंतजार करते, जिससे चलकर रोज का अखबार और पत्र-पत्रिकाएं वहां आया करती थीं. लोग घंटों लाइन लगाकर अखबार-पत्रिका के इंतजार में खड़े रहते.
उन दिनों गांव में कन्नड़ की एक पत्रिका आती थी- कर्मवीर. उस पत्रिका में त्रिवेणी नाम की एक लेखिका की कहानी सिलसिलेवार प्रकाशित होती थी. हर हफ्ते एक नया एपिसोड. कहानी का नाम था- ‘काशी यात्रा.’ काशी यात्रा एक बूढ़ी स्त्री की कहानी थी, जिसकी बस एक ही ख्वाहिश है कि किसी तरह एक बार उसे काशी यानी वाराणसी की यात्रा का अवसर मिल जाए. वो मरने से पहले बस एक बार काशी जाकर भगवान विश्वनाथ के दर्शन करना चाहती थी.
इस यात्रा के लिए वह बहुत समय से एक-एक पैसा जोड़ रही थी. लेकिन जब यात्रा का समय आया तो वह बनारस नहीं जा पाई. गांव की एक जवान, गरीब लड़की की शादी के लिए उसने अपने सारे पैसे दे दिए और काशी जाने का विचार छोड़ दिया.
सुधा की दादी भी हर हफ्ते पत्रिका के आने का बेसब्री से इंतजार करती थीं. सुधा स्कूल से आती तो उन्हें उस बूढ़ी अम्मा की कहानी पढ़कर सुनाती. दादी को वो कहानी इतनी पसंद थी कि उसमें लिखी बातें उन्हें मुंहजबानी याद हो गई थीं. वह हर शाम मंदिर के पार्क में अपने साथ की स्त्रियों से मिलने जातीं तो उन्हें भी उस बूढ़ी स्त्री की कहानी सुनातीं. मंदिर में औरतें भी रोज उनके आने और आगे की कहानी सुनने का इंतजार करतीं.
दादी उस कहानी की बूढ़ी स्त्री के साथ बहुत जुड़ाव महसूस करती थीं. उन्हें दुख था कि बचपन में ही उनकी शादी हो गई. वो कभी स्कूल नहीं गईं, काशी नहीं गईं. अपने गांव के बाहर उन्होंने कोई दुनिया नहीं देखी. दादी की कहानी और काशी यात्रा की उस बूढ़ी स्त्री की कहानी में बहुत साम्य था. दादी को मानो वो अपनी ही कहानी लगती थी.
फिर एक बार ऐसा हुआ कि सुधा किसी कजिन की शादी में एक हफ्ते के लिए गांव से बाहर गई. जब वह लौटी तो देखा कि दादी बहुत उदास थीं. उनकी आंखों में आंसू भरे थे. हुआ ये था कि इस दौरान पत्रिका तो पहले की तरह आती रही, लेकिन दादी एक अक्षर भी खुद से पढ़ नहीं पाईं. उन्होंने खुद को बहुत असहाय महसूस किया. शर्मिंदगी का एहसास भी कि उन्हें पढ़ना नहीं आता.
दादी ने उस दिन तय किया कि अब वो कन्नड़ पढ़ना सीखेंगी. और इस तरह 80 बरस की दादी 12 बरस की पोती की शिष्या बन गईं. सुधा ने दादी को वर्णमाला सिखाने से शुरुआत की. स्कूल जाने से पहले वो होमवर्क देकर जाती और मेहनती दादी रोज वक्त पर अपना होमवर्क पूरा करके रखती थीं. दादी बड़ी लगन और मेहनत से सीखती रहीं.
जब दशहरा आया तो सुधा दादी के लिए एक उपहार लेकर आई. सुंदर रंगीन कागज में लिपटा वो एक बेशकीमती उपहार था. दादी ने पैकेट खोलकर देखा तो अंदर से एक किताब निकली. ये वही कहानी थी काशी यात्रा, जो अब एक उपन्यास के रूप में छपकर आ गई थी. दादी ने उपन्यास का नाम पढ़ा और लेखिका का नाम – ‘काशी यात्रा, त्रिवेणी.’
अचानक दादी आगे बढ़ीं और उन्होंने झुककर नन्ही सुधा के पैर छू लिए. सुधा को बड़ा अजीब लगा. बड़े लोग थोड़े न अपने से छोटों के पैर छूते हैं. जब सुधा ने पूछा कि दादी ये आपने क्या किया तो जवाब में दादी ने कहा, “मैं अपने गुरु के पैर छू रही हूं. हमारे यहां गुरु का सम्मान करने, उसके पैर छूने की परंपरा है.”
सुधा मूर्ति की यह मन को छू लेने वाली आत्मकथात्मक कहानी उनकी एक किताब में संकलित है. एक बार पढ़ना सीखने के बाद दादी ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. अब वो कर्मवीर में छपने वाली सारी कहानियां खुद पढ़ती थीं.